जग का तम सूरज हरे, घर का हरता दीप।
मन का तुम गुरुवर हरें, स्वाति बूंद हरे सीप।।1।।
मन का तुम गुरुवर हरें, स्वाति बूंद हरे सीप।।1।।
गुरु माता गुरु पिता गुरुवर ईश्वर होंय।
गुरुकृपा जब तक नहीं तब तक अंधा होय।।2।।
गुरुकृपा जब तक नहीं तब तक अंधा होय।।2।।
सोई रस जग सिद्ध है जामें जो है लीन।
सुखी रहे निश दिवस बस अगाध जल मीन।।3।।
सुखी रहे निश दिवस बस अगाध जल मीन।।3।।
ताजिए ऐसे मीत को जो अवगुण में लीन।
जैसे उथले घाट को तज देती है मीन।।4।।
प्यासा पानी पिएं भूखा भोजन जोय।
ऐसे धर्म निष्ठ का जीवन पावन होय।।5।।
जैसे उथले घाट को तज देती है मीन।।4।।
प्यासा पानी पिएं भूखा भोजन जोय।
ऐसे धर्म निष्ठ का जीवन पावन होय।।5।।
महक रही वसंत में लू से उकठी डार।
समय एक सा ना रहे बदले बारंबार।।6।।
समय एक सा ना रहे बदले बारंबार।।6।।
निर्बल को पहचान के अपनी सेवा देय।
ऐसे नर की दासी बन खुशियां पायन होय।।7।।
बुरा काम ना कीजिए बुरा ना बोलिए बोल।
संतन के ढिग बैठकर सुनिए शब्द अमोल।।8।।
संतन के ढिग बैठकर सुनिए शब्द अमोल।।8।।
जाके मन नहीं शुद्धता तन पापों में लिप्त।
ऐसे नर ना होइहै कबहूं दुखों से मुक्त।।9।।
ऐसे नर ना होइहै कबहूं दुखों से मुक्त।।9।।
जननि जनक को त्याग के बहुरि करैं जे निंदा।
जग में ऐसे भटक जाय जैसे उड़ें परिंदा।।10।।
जग में ऐसे भटक जाय जैसे उड़ें परिंदा।।10।।
काव्य रचना: कोमल चंद कुशवाहा
शोधार्थी हिंदी
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा
मोबाइल 7610103589
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4 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर दोहे
Very very nice
Good
Good
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