शनिवार, नवंबर 30, 2019

धरती के बेटे: कुलदीप की कविता


धरती के बेटे
किसान, माँ धरती के बेटे
देश कृषि प्रधान हुआ करता था।
करते थे पूजा धरती की
मिट्टी का सम्मान हुआ करता था।

लहराती थी हरियाली
सुंदर खेत-खलिहान हुआ करता था।
घर- आँगन, गाँव- गली चहुँ ओर
खुशहाल हुआ करता था।
                          
टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डी
खेतों को जाने वाली, मोह मन लेती थी।
मन्द-मन्द बहती स्वच्छ हवा
सबको स्वस्थ जीवन देती थी।

दिनभर खेतों में मेहनत कर
सब भरपूर नींद में सोते थे।
भाईचारे का संबंध थे रखते
सुख-चैन कभी नहीं खोते थे।

प्रकृति से तब लोगों का
एक घनिष्ठ संबंध हुआ करता था।
खाने से लेकर रहने की
कुटिया तक प्रबन्ध हुआ करता था।

मगर आधुनिकता निगल गई
कृषि की अर्थव्यवस्था को।
फिर सारी हद पार किये
कम करने के लिए व्यस्तता को।

हरित क्रांति आने से ही जैसे
धीरे-धीरे हरियाली छीन रही।
कम अवधि में अधिक उपज से
जैसे ख़ुशहाली छीन रही।

रासायनिक उर्वरक से कम समय में 
पैदावार तो बहुत बढ़ी।
मगर प्रकृति से छेड़छाड़ में 
धरती और जीवों की उम्र घटी।

मंहगाई बढ़ी लेकिन फिर भी
बढ़ी न फसलों की कीमत।
मेहनत को छोड़कर कमाई में
वापस आती बस लागत।

संसाधनों के अभाव में
अब जाये तो जाये कहाँ किसान।
देखकर भी दिल्ली चुप बैठी है
कुछ कर नहीं रहा प्रधान।

कल्लेह, तहसील-जयसिंहनगर,जिला शहडोल (मध्यप्रदेश)
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शुक्रवार, नवंबर 29, 2019

रास्ता नया बनाना है:सुरेन्द्र कुमार पटेल की कविताएँ


रास्ता नया बनाना है
मन में ले संकल्प,
रास्ता नया बनाना है!
हर मुश्किल है आसान,
बस पथबाधाओं से टकराना है!

तुम हो चले हो बूढ़े,
पर उनको यह सन्देश न दो,
इस धरती पर आया जो अभी-अभी,
उसको थकने का परिवेश न दो!
दुःख ही में तो,
दुःख रोक मुस्काना है!                        
...मन में ले संकल्प 1

जब रास्ता लगे कठिन,
आहिस्ता-आहिस्ता पग धारो!
मन जब डूबे गहरी उदासी में,
भर उल्लास खुद को उबारो!
मोती डूबा गहरे सागर में,
ढूंढ उसे ही लाना है!                                       ...
मन में ले संकल्प 2

दुनिया में नहीं है ऐसी उलझन,
जो सुलझ न पाए अप्रतिम प्रयासों से,
करनी होती है कोशिश अथाह,
दारिद्र्य दूर होता नहीं सिर्फ कयासों से
शनैः शनैः किये काजों का भी
परिणाम एक दिन आना है!                                
...मन में ले संकल्प 3

पथ नहीं यह दुर्गम,
यह तो पथचिन्त्य का बंटवारा है!
स्वचिन्त्य का हो विस्तार
फिर तो पूरा संसार हमारा है!
कितने गये यहाँ से दिए बिना कुछ,                        
कुछ ने भरा खजाना है!                                  
...मन में ले संकल्प 4

तुम आये अभी-अभी जग में,
इस जग से ऊब गए?
लगता है किसी गहरे खंदक में
उतरे और डूब गए!
रोको सांस, फिर डूबो,
इस दरिया से पार तुम्हें पाना है!                           
...मन में ले संकल्प 5

निश्चयात्मक वृत्ति करो और बढ़ो,
अनिश्चयवृत्ति से विस्तारित होती है पथबाधा
प्रेम-प्रफुल्लित हो जो स्वागत करते
मंजिल आती ऐसे जैसे कृष्ण को राधा
पथ बाधाएं होंगी काँटों वाली
उन्हें ही तो गले लगाना है!                                 
...मन में ले संकल्प 6

बहुत सरल है यह सब कहना,
करके दिखलाने का भी उद्यम करना है,
होगी ही कठिन तपस्या इस तप की,
हो सफल साधना, ऐसा संयम करना है.
सस्ता तप तो सब कर लेते हैं
वीरोचित तो कठिन साधना अपनाना है                      
...मन में ले संकल्प 7

हार नहीं वो जो रण में हारे,
हार वही है जो मन में हारे!
मन की जीत जो जिन्दा रख लेते,
मंजिल मिलती, होते मंजिल के रखवाले!
अपने चिन्तन में सिर्फ
जीत का जश्न मनाना  है                                
...मन में ले संकल्प 8


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गुरुवार, नवंबर 28, 2019

क्या अब भी वैसा ही है वो मेरा गाँव:सुरेन्द्र कुमार पटेल की कविताएँ

क्या अब भी वैसा ही है वो  मेरा गाँव 
क्या अब भी वैसा ही है,
वो मेरा गांव!
जेठ की दुपहरी धूप, 
और पीपल की छांव!

बछड़ों के रंभते स्वर,
उस पर श्यामा की पुचकार!
लिए रोटियां हाथ में,
हाथ फेर दादी करे दुलार!
वह स्मृति बाल-टोलियों की,
गोधूल में खेलते नंगे पांव!                                ....क्या अब भी वैसा ही है 1

न बाल हाथ में, न गिल्ली
न क्रिकेट का साजो-सामान!
मैले-कुचले कपड़ों से जो बन जाता
उन गेंदों में थी कितनी शान!
नदी किनारे जबरन जाना 
और बहाना सचमुच की नाव!                             ....क्या अब भी वैसा ही है 2

खेल-खेल में लड़ जाना,
और रेफरी बना करवाना फैसला!
गिरे जो कोई खेलमें,
धूल झाड़ बढ़ा देते हौसला!
छोटे-छोटे झगड़ों में भी,
ढूंढ़ते थे अजब-गजब के दाव!                             ....क्या अब भी वैसा ही है 3

एक पेड़ आम का, नीचे उसके
बालझुण्ड अपार!
दिन-दिनभर टिके बगीचे में,
बहना चाहे कितनी ही गरम बयार!
बांट-चूंट के घर आ जाते, जो पाते,
देते नहीं किसी को घाव!                                  ....क्या अब भी वैसा ही है 4

इसके घर या उसके घर में
बीत जाती थी सबकी शाम!
लिए टोकरी भर कण्डा सिर में,
कितनी ही लगती तन में घाम!
राजा बन जब करते नाटक
जल जाता मन का अभाव!                                 ....क्या अब भी वैसा ही है 5

नींद ऊंघते सो-जाते पर
सुनते नित्य नया किस्सा!
‘‘ऐसे-ऐसे’’ होता था,
हर किस्से का हिस्सा!
उन किस्सों का जीवन पर 
निश्चित ही पड़ गया होगा प्रभाव!                         ....क्या अब भी वैसा ही है 6

सुबह-सबेरे उठकर पढ़ना,
काम कोई हो गया महान!
चार लाइनें जोड़ बन जाता,
कोई तुलसी, या रसखान!
एक-दूसरे का छप्पर छाते,
ऐसा था सभीजनों का भाव!                                ....क्या अब भी वैसा ही है 7

खुलकर हंसते, लगा ठहाके,
नहीं किसी का था उपहास!
कारण-अकारण ही मिल जाता
जिससे करते वे विनोद और परिहास!
खुलकर जीवन जीना, बातें खुलकर
ऐसा था उनका स्वभाव!                                   ....क्या अब भी वैसा ही है 8

त्यौहारों की तो बात गजब थी,
गांव की गलियों में लगती भीड़!
रंग-बिरंगे कपड़ों में बढ़ते सब
अपार जनसमूह को चीर!
रिश्तों की मिठास में घुल जाता
होता भी जो मन का दुराव!                               ...क्या अब भी वैसा ही है 9

सब के संकट टल जाते 
जब मिल जाते मनमीत!
कीचड़ मध्य खड़ा हो रोपित करतीं
और गातीं खेती के मंगलगीत!
श्रम-साधना को जीवित रखतीं,
और रखतीं मन में उराव!                             ....क्या अब भी वैसा ही है 10

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बुधवार, नवंबर 27, 2019

यादें:सतीश कुमार सोनी की कविता

     
      
 यादें
कुछ तो है बीते हुए कल में, 
बसी है यादें हर एक पल में। 
देकर नाम पुराने दिन का, 
जीता हूं मैं उसी हलचल में।
          
खोकर मन स्वप्न दिखा जाता है,
बीते हुए पल की याद दिला जाता है।

भूला नहीं इसे मैं
आज और कल में,
कुछ तो है बीते हुए कल में, 
कुछ तो है बीते हुए पल में।।

अच्छी, नयी-पुरानी यादें,
एक दिन सब धूमिल हो जाती हैं,
न जाने क्यों सारी बातें 
दिल में कहीं दब जाती हैं।

लड़ते झगड़ते यारों के संग 
दिन और साल गुजर जाता है,
देकर अपनी याद सुहानी 
न जाने कौन किधर जाता है।

हम बनते बिगड़ते थे एक ही पल में,
कुछ तो है बीते हुए कल में,
कुछ तो है बीते हुए पल में।

किसी का रोना, किसी का गाना, 
थोड़े-थोड़े में सब कह जाना।
लड़कर मनभर फिर उसे मनाना,
सब कुछ याद बहुत आता है।

ऐसी मीठी-मीठी यादों के संग 
जीवन का एक पन्ना और पलट जाता है।
देखें पलट कर जब हम इसको,
जीवन का एक चिट्ठा नजर आता है।

करते हैं हम याद इसे 
हर सुख-दुख के पल में,
कुछ तो है बीते हुए कल में, 
कुछ तो है बीते हुए पल में।।

रचना:सतीश कुमार सोनी
जैतहरी, जिला-अनूपपुर (मध्य प्रदेश)
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सोमवार, नवंबर 25, 2019

राजनीतिक व्यवहार और समाज


राजनीतिक व्यवहार और समाज
राजनीति, समाज विज्ञान का ही एक विषय है। यह व्यवहार और सिद्धान्त दोनों रूपों में समान रूप से सत्य है। राजनीतिक व्यवस्था वास्तव में सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता को पूरा करने के लिए ही है। यदि समाज न हो तो अन्य किसी शास्त्र का होना न तो संभव है और न ही उसका कोई औचित्य है। तथापि समाज पर राजनीतिक व्यवहारों के बढ़ते प्रभाव के कारण राजनीतिक व्यवहार और समाज के संबंधों पर विमर्श करने की आवश्यकता महसूस हुई। 

सूचना और संचार क्रान्ति ने घर की दीवारों को शब्दबेधी मात्र नहीं बना दिया अपितु सुंदर मखमली परदों को पारदर्शी भी बना दिया है। सोशल मीडिया ने समूचे संसार को आंखों के सामने जीवंत कर दिया है। लोग मात्र क्रिकेट का आंखों देखा हाल नहीं सुनते बल्कि किसकी रसोई में क्या पक रहा है, यह भी सुनते और देखते हैं।
यही हाॅल देश और प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों का है। एक मायने में यह बहुत अच्छा है कि आप अपना प्रार्थना-पत्र घर बैठे अपने किसी अधिकारी को ईमेल करके तत्काल भेज सकते हैं। कोई प्रतिवेदन सौंप सकते हैं। किसी आदेश के अनुपालन की सूचना सम्प्रेषित कर सकते हैं। घर बैठे किसी बड़े माॅल या शो से कोई सामान मंगवा सकते हैं। यह सब हमारे लिए लाभदायक ही है।

अब तो किसी राज्य के राज्यपाल भवन और राष्ट्रपति भवन की दूरी भी सूचना क्रान्ति ने लगभग समाप्त कर दी है। यह हो सकता है कि पाॅंच मिनट के भीतर राज्यपाल किसी प्रदेश में लागू राष्ट्रपति शासन समाप्त करने की सिफारिश राष्ट्रपति को मेल कर दे, राष्ट्रपति भवन उसे केन्द्रीय मंत्रिमंडल को भेजकर अनुमोदन प्राप्त कर ले और अगले ही मिनट राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन समाप्त करने का आदेश जारी कर दे। बाकी सब तो राज्यपाल भवन में ही होना है तो बचे हुए अगले तीन मिनट में राज्यपाल स्वविवेक से किसी पार्टी के अधिक मत प्राप्त दल के नेता को सरकार बनाने का न्यौता दे-दे और मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह भी हो जाय! यह सब संभव हुआ है तो सूचना क्रान्ति से!

किन्तु हमारे विमर्श का विषय यह है कि राजनीतिक दांव-पेंच की पल-पल की खबरें सूचना क्रान्ति के फलस्वरूप समाज के जिन लोगों को मिल रही हैं क्या वे इस प्रकार की राजनैतिक गतिविधियों को सुनकर राजनैतिक नहीं हो रहे हैं? अपनी आंखों के सामने इस प्रकार येन-केन-प्रकारेण सरकार बनाते देख क्या उनके मन में येन-केन-प्रकारेण उपलब्धियां हासिल कर लेने की प्रेरणा नहीं प्राप्त हो रही है। उत्तर हां में है। कल-कल निनाद करती सरिता का प्रवाह देखकर उसमें कूद पड़ने का मन किसका नहीं होता? कौन है जो चमत्कार को अपनी आंखों से देखे और स्वयं चमत्कृत न हो उठे? राजनीति में इस प्रकार के उलटफेर और दांव-पेंच के चाहे जो निहितार्थ हों किन्तु इनका सामाजिक जीवन में अनुकरण विघटनकारी ही साबित होगा।

जो समाज परस्पर सहयोग से आगे बढ़ने का आकांक्षी था, वह आज एक-दूसरे को खौंदकर आगे बढ़ने में विश्वास करने लगा है। इसका कारण यह नहीं है कि खौंदकर आगे बढ़ने में बहुत कुछ हासिल होना है किन्तु खौंदकर आगे बढ़ने से उस पथ पर चलने की नौबत नहीं आती जिस पथ पर चलने से पांव में छाले पड़ जाते हैं। आजकल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे विभिन्न प्रकार के संगठन और उसमें पदलोलुपता की अंधी दौड़ राजनीतिक प्रेरणा का ही परिणाम हैं। राजनीति यह सिखा रही है कि ऐन वक्त पर किस प्रकार फायदा उठा लेना है बिना यह सोचे कि जो वर्षों-वरष किसी  संगठन को पालने-पोषने में वक्त लगाता है वह इस तरह के छलावे को देखकर किस प्रकार और कितना लहुलुहान हुआ होगा। उसका हृदय किस प्रकार बेध गया होगा। राजनीति में इस प्रकार की भावनाओं का कोई स्थान नहीं है और परिणामस्वरूप घर, परिवार और समाज में भी!

आम आदमी किसी कुटिल चाल वाले व्यक्ति के शब्दों के पीछे छिपे निहितार्थ को जब नहीं समझ पाता तो आजकल उसे भोंदू समझा और माना जाता है। आजकल हर हंसी के ठहाकों के पीछे रुदन के तार जुड़े होने के पीछे यही राजनीतिक दुष्प्रेरणा है। आज आदमी दूसरे आदमी को ठगने की तैयारी में है। जो आदमी ऐसा नहीं है वह ठगे जाने के लिए तैयार है। हमने भगवान के नाम पर फैले आडम्बर को  नकारने की हिम्मत दिखाई, विभिन्न प्रकार की  रूढ़िवादी परम्पराओं को नकारने का साहस जुटाया किन्तु राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने वाले लालचियों को अपना आदर्श मान लिया! तब सवाल उठता है कि क्या समाज का संगठित स्वरूप न होने का समाज को इतना नुकसान उठाना पड़ेगा कि जिस समाज हित के लिए समाज ने राज्य से व्यवस्था का इकरारनामा किया था वह राजनैतिक हस्तक्षेप समाज को अपनी उंगलियों पर नचाने लगेगा और समाज का आदर्श बन बैठेगा?  

राजनीति का अंतिम उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना होता है। अतः राजनीति में दांव-पेंच की एक सीमा तक इजाजत है। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश में वह सब भी संविधान के अनुसार करने की ही इजाजत है। 

देखना यह है कि हम अपने सामाजिक संबंधों में इस प्रकार के दांव-पेंच के अभ्यस्त तो नहीं हो रहे? ऐसा होना किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं है। होता यह है कि हमारे आसपास के परिवेश में हो रहे बदलावों से हमारी दृष्टि में कब बदलाव हो जाता है हमें पता ही नहीं चलता। राजनैतिक जोड़-घटाव को देखते सुनते कब हम अपने निजी रिश्तों की गहराईयों में इस प्रकार का गुणा-भाग करने लग जाते हैं, हमें मालूम नहीं पड़ता। हमें सोचना होगा कि सामाजिक जीवन में इस प्रकार के दांव-पेंच की जितनी अधिकता होगी हमारे आपसी संबंध उतने अधिक अविश्वसनीय होते जाएंगे। इस प्रकार का अविश्वसनीय होना सामाजिक और राजनैतिक दोनों दृष्टि से  खतरनाक साबित होंगे। 

खुलकर हंसने का अभाव इन्हीं दांव-पेंचों ने पैदा किया है। सरकारी और निजी कार्यालयों में गुटनिर्माण ऐसे ही दांव-पेेंचों का सहज परिणाम है। इन्हें प्रोत्साहित करने से व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों रूपों में  क्षति ही होती है। सामाजिक संबंधों में और विशेष रूप से रिश्तों में गर्मजोशी का अभाव ऐसे ही दांव-पेंचों की वजह से है। हमारा देश बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, वसुधैव कुटुम्बकम और अतिथि देवो भव की भावना में विश्वास करता है। विडम्बना है कि राजनैतिक पतन ने हमारी इस सांस्कृतिक विरासत का पराभव करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है।
हमें तय करना पड़ेगा कि हम किस हद तक राजनैतिक व्यक्तित्व को अपने जीवन में स्थान दें। सत्ता व्यवस्था देखने वाले व्यक्तियों का काम समाज की व्यवस्था को ठीक करने का है। हमें अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक अच्छाइयों को बचाने, पल्लवित और पुष्पित करने के उत्तरदायित्व का निर्वहन स्वयं ही करना पड़ेगा। हमारे सामाजिक जीवन का श्रंगार, राजनीति के सिन्दूर का भूखा नहीं होना चाहिए। हालांकि अब यह बहुत कठिन हो चला है। फिर भी यदि समाज अपनी और राजनीति की ठीक-ठीक स्थिति का भान प्राप्त कर ले तो समाज में उत्तम आदर्शों की स्थापना का काम भी होगा और राजनीति को सामाजिक आदर्शों की पटरी से उतरने का भय भी। यह सीख पाए तो ठीक वरना यही कहते फिरेंगे, जिसे किसी महान लेखक ने लिखा है- छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए।

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शनिवार, नवंबर 23, 2019

कि हां हां हो कि हूं हूं हो...विकास गीत:धर्मेन्द्र पटेल


विकास गीत ( ब्याह गीत की धुन में)

                  1.
बदल रहो है समाज हमारा ,आओ खुशियां मनाई हो,
कि हां‌ हां हो कि हूं हूं हो......
कुम्भकरणी नींद जो सोवत हैं , उन्हें भी आज जगाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो.....
                2.
सामाजिक कुरीतियां और आडम्बर मिलकर दूर भगाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो....
बच्चों को शिक्षा दिलवाई उन्हें भी शिक्षित करवाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो...
              3.
बेरोजगारी दूर भगाई कौंनौं रोजगार अपनाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो...
खूब करो कठिन परिश्रम होगी बहुत कमाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो.....
               4.
घर मुहल्ले गांव वालों से कबहूं न करियो लड़ाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो
हो सके तो खुशियां बांटो उनकी करो  बड़ाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो.....
            5.
चारों तरफ शांति माहौल बने ऐसी जुगत भिड़ाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो....
भाईचारा और मुहब्बत की सब देने लगें दुहाई हो,
कि हां हां हो कि हूं हूं हो.....

रचनाकार:धर्मेन्द्र कुमार पटेल
नौगवां, मानपुर जिला-उमरिया(मध्यप्रदेश)
[डिस्क्लेमर:इस ब्लॉग पर रचनाकर द्वारा भेजी गयी रचना इस विश्वास और उम्मीद के साथ प्रकाशित की जाती है कि वह रचनाकार की मौलिक और अप्रकाशित रचना है.अन्यथा के लिए रचनाकार स्वयं उत्तरदायी होगा.]
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मंगलवार, नवंबर 19, 2019

बढ़ै न पावैं तोहरौ लरिका: राम सहोदर का हास्य व्यंग्य



 बढ़ै न पावैं तोहरो लरिका
अइसन नीति बनावै
 (आधुनिक शिक्षा नीति पर हास्य व्यंग्य)
आज की शिक्षा पद्धति भैया, मोरे समझ न आवै।
जन-जन में शिक्षा का नारा, बहुतै हंसी करावै।
सभी पढ़ो और सभी बढ़ो ,यह नीति बहुत ही भावै।
पर न होंय फेल, न मंजिल पामैं बस साक्षर कहलावै।
बढ़ै न पावै तोहरौ लरिका, अइसन नीति बनावै।1।

हर एक गांव में टोला-टोला, विद्यालय खोलबावै।
एक-एक शिक्षक दइ-दईके जनता का बहलावै।
आदेश नया नित भेज-भेजके शिक्षक का अरझावै।
तिसरे रोज संकुल केन्द्र मांही शिक्षक का बइठावै।
बढ़ै न पावै तोहरौ लरिका, अइसन नीति बनावै।2।

हर माह परीक्षा उचित रहा, अब तिसरेउ माह करावै।
प्रतिभा पर्व परीक्षा होइगा, मास्टर अतिथि कहावै।
परीक्षाफल तैयार करावै अऊ ग्रेडवार छंटबावै।
रिकाॅर्ड सम्हारा और सुधारा, नेट मांही अपलोड करावैं।
बढ़ै न पावै तोहरौ लरिका, अइसन नीति बनावै।3।

अनेकानेक पंजी शाला मंाही, नित्य नया बनवावै।
एसएमसी बैठक, पालक सम्पर्क मुद्दा अहम बतावै।
शिक्षक केर बदनामी डटके जनता से करबावै।
कोऊ न मांगैं काम का लेखा, गुणवत्ता जंचबावैं।
बढ़ै न पावै तोहरौ लरिका, अइसन नीति बनावै।4।

नेता और मिनिस्टर समझा भितरघात करबावै।
आपन लरिका सभ्य बनावैं, लै प्राइवेट पढ़ावै।
जनगणना सर्वे,  मतदाता सूची सब शिक्षक से करबावै।
गली-गली मांही रैली लेके नारा भीत लिखावै।
बढ़ै न पावै तोहरौ लरिका अइसन नीति बनावै।5।

शिक्षक की गति ऐसी कर दी ज्यों बाॅलीवाॅल खेलावै।
इत जनता फुफकारे, उत शासनौं गला दबावै।
कहैं सहोदर शिक्षा में यदि चाहत सुधार करावै।
शिक्षक केर करैं भर्ती, अउर न गैर काम करबावै।
तब बढ़ जइहैं तोहरौ लरिका जो अइसन नीति बनावै।6।
रचनाकार:राम सहोदर पटेल,एम.ए.(हिन्दी,इतिहास)
स.शिक्षक, शासकीय हाई स्कूल नगनौड़ी 
गृह निवास-सनौसी, थाना-ब्योहारी जिला शहडोल(मध्यप्रदेश)

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शुक्रवार, नवंबर 15, 2019

आप मुझे नहीं जानते:धर्मेन्द्र कुमार पटेल आलेख


 आप मुझे नहीं जानते

अगर कोई किसी को नहीं जानता तो इसमें किसका दोष है?उसका जो नहीं जानता या जिसे नहीं जाना जा रहा ?"
असल में हम जितने छोटे होते हैं,हमारा अहंकार उतना ही बड़ा होता है, जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, अहंकार छोटा होता जाता है इस बड़े-छोटे का उम्र से कोई रिश्ता नहीं है, यह आपके अंतर्मन की यात्रा और उसके फलने -फूलने के तौर-तरीकों पर निर्भर करता है

किसी अजनबी व्यक्ति से परिचय करनेकी पहल से इसे समझा जा सकता है। कई बार अपने पार्श्व में बैठे सहयात्री से परिचय जाने बिना ही सैकड़ों मील की यात्रा कट जाती है। और कई बार कुछ ही मिनटों में एक-दूसरे का हाल-चाल ऐसे जान लिया जाता है जैसे वे दोनों बहुत पुराने परिचित हों वास्तव में दो व्यक्तियों के मध्य अहम् की ही दूरी होती है यही अहम कई बार भय और शंका को जन्म देता है. ऐसे में जो व्यक्ति पहले पहल करता है बडप्पन दिखाने का श्रेय उसकी ही झोली में जायेगा क्योंकि उसने अपने अहम से ऊपर उठकर पहल करने की कोशिश की है हो सकता है सामने वाला व्यक्ति परिचय देने में कोई रूचि न दिखाए और ऐसे में स्वयम के अपमान होने का खतरा तो है ही! किन्तु इस खतरे का आभास कौन कराता है? यही अहम! और कई बार ऐसा होता है कि लोग अपने पड़ोसी के बारे में कई सालो तक कुछ नहीं जानते

कई बार हम अपनी दीनता के भाव से भी परिचय बनाने से कतराते हैं। यह भी एक तरह का अहम ही है. हम दीं हैं तो हमारे अपमान होने का खतरा अधिक है क्योंकि व्यक्ति हमारे बारे में कुछ भी कहने के लिए ज्यादा स्वतंत्र है। उसे मालूम है कि हम उसकी प्रतिक्रिया नहीं दे सकेंगे। किन्तु उसके व्यवहार से उत्पन्न होने वाले अपमान का एहसास तो हमें हमारे भीतर का अहम ही कराता है। आजकल ज्यादातर लोग अपने काम से मतलब रखने लगे हैं। जिसका परिणाम यह है कि लोगों के मध्य समरसता का अभाव है और भाईचारे की भी कमी है। और अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि आप तो मुझे जानते ही नहीं!

अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझना, उतना ही अनुचित है, जैसे दूसरे से स्वयं को कमतर समझना जीवन में संतुलन का भाव कैसा हो इसे स्वयं पर नियंत्रण से समझा जा सकता है। हमारा मन अपने आप में शोध का विषय और ऊर्जा का भंडार है, जितना अधिक स्वयं को जानेंगे, दूसरों को जानना उतना ही सरल होता जाएगा 

आइए एक-दूसरे को जानें और समझें
शिवमंगल सिंह "सुमन" ने ठीक ही लिखा है-
"मैं पूर्णता की खोज में, दर-दर भटकता ही रहा,
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ रोड़ा अटकता ही रहा।
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे, कुछ बीच में ही फिर ग‌ए,
गति न जीवन की रुकी,जो गिर ग‌ए सो गिर ग‌ए।
रहे जो हर दम डटे ,उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है।

जब तक मंजिल पा न सकूं, तब तक मुझे न विराम है,
क्या राह में परिचय कहूं मैं, राही हमारा नाम है।
बस चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है।"
रचनाकार:धर्मेन्द्र कुमार पटेल
नौगवां, मानपुर जिला-उमरिया(मध्यप्रदेश)
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गुरुवार, नवंबर 14, 2019

बच्चों के अधिकार और वर्तमान समाज:सुरेन्द्र कुमार पटेल का आलेख

आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री भारत रत्न पंडित जवाहर लाल नेहरु का जन्मदिन है. वे बच्चों से बहुत प्यार करते थे और इसी कारण उनका  जन्मदिन बालदिवस के रूप में मनाये जाने का निश्चय किया गया. वास्तव में आज का दिन “बच्चों के अधिकार और वर्तमान समाज” विषय पर चिंतन करने का है.

हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं है किन्तु हम जिस समाज में रहते हैं, उसमें हमें जो दिखाई देता है, उससे हम सहजता से पता लगा सकते हैं कि वच्चों का भविष्य और उसमें वर्तमान समाज की भूमिका क्या है?

बच्चों का जीवन जहाँ गुजरता है, वह है उसका परिवार, समाज  और उसका विद्यालय. इसके बाद वह बड़ा होता है और गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है तब उसका समाज के अन्य क्षेत्रों से सम्बन्ध निर्माण होता है. 

बच्चों का पहला जीवन निर्माण परिवार में  होता है. अपने परिवार के बीच रहकर वह बहुत सी बातों को सीखता है. परन्तु क्या परिवारों को इस जिम्मेदारी का एहसास होता है कि परिवार केवल कुछ जरूरतों को पूरा करने का साधन नहीं हैं बल्कि वह बच्चों की एक खुली कार्यशाला हैं. क्या परिवार के सदस्य इतने सचेत हैं कि वह जो कुछ भी आचरण करते हैं, उसका बच्चों के बालमन पर कैसा प्रभाव पड़ता है. विशेष रूप से परिवार में माता-पिता के पारस्परिक व्यवहार का बच्चों के बालमन पर गहरा प्रभाव पड़ता है. घरेलू हिंसा बच्चों के भीतर भय, अवसाद और कुन्ठा को जन्म देती है. माता-पिता के मध्य कटुता का भाव बच्चों के व्यक्तित्व को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है. तो वहीं जिस परिवार में परस्पर प्रेम-भाव होता है, उसमें बच्चों के व्यक्तित्व का खुला और पूर्ण विकास होता है.

प्रत्येक परिवार को जीवन में अलग तरह की चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. किसी को अर्थाभाव का सामना करना पड़ता है, किसी परिवार में रुग्णता की समस्या होती है, किसी परिवार में असामयिक परिस्थितियों से उत्पन्न चुनौतियाँ होती हैं. वास्तव में परिवार की यही चुनौतियाँ बच्चों को भावी समाज की चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्हें तैयार करती हैं. किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि परिवार उन चुनौतियाँ का सामना किस तरह करता है? इन चुनौतियों का सामना करने के लिए वह कैसा साधन अपनाता है. एक परिवार अपनी कठिनाइयों का सामना करने के लिए जिन साधनों को अपनाता है, वह एक बच्चे के जीवन के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत बन जाते हैं. यदि परिवार अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए नीति-अनीति का विचार किये बिना एन-केन-प्रकारेण तरीकों को अपनाता है तो बहुत अधिक संभावना है कि बच्चा बड़ा होकर इन्हीं नीतियों का अनुसरण करे.

एक बच्चे का यह अधिकार है कि वह अपने व्यक्तित्व का इस प्रकार विकास करे जो उसकी अन्तर्निहित क्षमता को प्रकट करती हो तथा जिसका एक सामाजिक मूल्य हो, और वह अपने व्यक्तित्व के आलोक में गरिमा और आत्मसम्मान का बोध प्राप्त कर सके और ससम्मान अपने जीवन की जरूरतों को पूरा कर सके. जब वह यह सीख रहा होता है तब उसे इन मूल्यों की  समझ नहीं होती. वह तो बस जो उसके चारों ओर की परिस्थितियां हैं उनसे सहजता से चीजों को ग्रहण करता रहता है और उन्हीं परिस्थितियों के आलोक में अपने जीवन की कुछ मूलभूत अवधारणाओं को विकसित करता है या यह कहें कि उसके भीतर अवधारणाएं विकसित हो जाती हैं. बाद में सारा जीवन वह इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त रहता है. अतः एक परिवार पर बच्चों के जीवनमूल्यों के निर्माण में सचेत भूमिका निभाने की महती जिम्मेदारी है.

बच्चों के मनमस्तिष्क पर उसके आसपास के समाज का भी गहरा प्रभाव पड़ता है. प्रायः हम अपने बच्चों तक तो सचेत रहते हैं किन्तु दूसरों के बच्चों के प्रति हम प्रायः उदासीन होते हैं. देखा तो यह भी गया है कि जो व्यक्ति अपने बच्चों को “आप” कहकर बुलाता है वही व्यक्ति दूसरों के बच्चों को “रे” और “बे” कहकर बुलाने से नहीं चूकता. जबकि व्यक्ति का यही आचरण उसे वापस किसी न किसी रूप में प्राप्त होता है. जो व्यवहार आप अपने बच्चों के साथ करते हैं उससे आपके बच्चे का निर्माण होता है किन्तु जो व्यवहार आप दूसरों के बच्चों के साथ करते हैं, उससे आपकी आनेवाली पीढ़ियों का निर्माण होता है. क्योंकि आनेवाले समय में आपके बच्चों को दूसरों के बच्चों से वही प्राप्त होगा जो आपने दूसरों के बच्चों को दिया है. समाज का ऐसा पारस्परिक व्यवहार है कि प्रत्येक व्यक्ति और परिवार के व्यवहार की प्रतिक्रिया वापस हमें प्राप्त होती है. अतः हमें अपने बच्चों को तो प्रेम-व्यवहार और अच्छी शिक्षा देनी ही चाहिए किन्तु हमें वही गरिमापूर्ण व्यवहार औरों के बच्चों के साथ भी करनी चाहिए.

बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में स्कूल और शिक्षकों की भूमिका कई मायनों में महत्वपूर्ण है. पहला यह कि स्कूल एक पूरे समाज का प्रतिबिम्ब होता है. समाज के हर परिवार की अलग-अलग अवधारणाओं को लेकर बच्चे स्कूल आते हैं और स्कूली ज्ञान के अलोक में उसकी परख करते हैं. स्कूल में कही गयी बात बच्चों के लिए पत्थर की लकीर होती है. शिक्षक द्वारा दी गयी सूचना उसके लिए अंतिम सत्य है. किन्तु बदली हुयी परिस्थितियों में क्या स्कूल और शिक्षक इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन करने में सक्षम हैं? पहला तो यही कि भौतिकता और नैतिकता का जो अंतर्द्वंद समूचे समाज में है, क्या शिक्षक उससे अछूता रहकर बच्चों के भविष्य का निर्माण करने के लिए तैयार है? बच्चों को जो अधिकार स्कूलों में मिलने चाहिए, जैसे शिक्षकों का सान्निध्य उसे प्राप्त होना चाहिये वर्तमान में देखें तो कई परिस्थितियों में बच्चों को उपलब्ध नहीं है. एक ओर शिक्षा के प्रति अरुचि ने बच्चों को स्कूलों से विमुख कर दिया है तो वहीं जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं उन्हें विषयवार शिक्षकों की कमी का सामना करना पड़ रहा है. हमारा मूक दर्शक समाज कभी इसकी आवाज नहीं उठाता, क्यों ? यह समझ से परे है.

उन बच्चों की चर्चा किया जाना अत्यावश्यक है जिन्हें स्कूली जीवन के समय में होटलों, दुकानों और कारखानों में काम करना पड़ता है. उन बच्चों की भी चर्चा करना लाजिमी है जो भीख मांगने के लिए मजबूर हैं या मजबूर किये जाते हैं. यह जो काम करते हैं और जो भीख मांगते हैं वह सब समाज के सामने ही तो करते हैं... तो यह बात सभी की सामने है कि बच्चों की एक बड़ी तादाद ऐसा करने के लिए मजबूर है.  इस सम्बन्ध में हमारी सरकारों ने समय-समय पर नीतियां निर्धारित की हैं किन्तु समुचित क्रियान्वयन नहीं होने के कारण समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुयी हैं. संविधान में हमने समाजवाद को अपना लिया है जिसके अंतर्गत राज्य की इस जिम्मेदारी को स्वीकार कर लिया है  कि राज्य नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा फिर ऐसी विडम्बना क्यों है कि बच्चों को होटलों, दुकानों और कारखानों में काम करना पड़ता है. भीख मांगने के लिए मजबूर हैं. और यही नहीं इन कार्यस्थलों में उनके साथ आर्थिक, दैहिक और मानसिक उत्पीडन व शोषण होता है. निश्चित ही बच्चों  एक बड़ा वर्ग कुपोषण जैसी समस्या से ग्रस्त है. लाखों की संख्या में प्रतिवर्ष बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है. 

आज का दिन स्कूलों में बालदिवस मनाकर इतिश्री कर लेने का नहीं है, बल्कि बच्चों की इन समस्याओं के गहन विचार-विमर्श और उसके समुचित निराकरण की दिशा में पहल करने का है.  जब तक समाज का हर वर्ग बच्चों की प्रति पूरी संवेदनशीलता के साथ व्यवहार नहीं करेगा तब तक बच्चों के अधिकार मिलने की बात करना ही बेमानी है. आशा की जानी चाहिए कि आज के दिन  हम सब बच्चों को उनका अधिकार दिलाने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने की जिम्मेदारी का संकल्प लेंगे.

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