धरती के बेटे
किसान, माँ धरती के बेटेदेश कृषि प्रधान हुआ करता था।
करते थे पूजा धरती की
मिट्टी का सम्मान हुआ करता था।
लहराती थी हरियाली
सुंदर खेत-खलिहान हुआ करता था।
घर- आँगन, गाँव- गली चहुँ ओर
खुशहाल हुआ करता था।
टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डी
खेतों को जाने वाली, मोह मन लेती थी।
मन्द-मन्द बहती स्वच्छ हवा
सबको स्वस्थ जीवन देती थी।
दिनभर खेतों में मेहनत कर
सब भरपूर नींद में सोते थे।
भाईचारे का संबंध थे रखते
सुख-चैन कभी नहीं खोते थे।
प्रकृति से तब लोगों का
एक घनिष्ठ संबंध हुआ करता था।
खाने से लेकर रहने की
कुटिया तक प्रबन्ध हुआ करता था।
मगर आधुनिकता निगल गई
कृषि की अर्थव्यवस्था को।
फिर सारी हद पार किये
कम करने के लिए व्यस्तता को।
हरित क्रांति आने से ही जैसे
धीरे-धीरे हरियाली छीन रही।
कम अवधि में अधिक उपज से
जैसे ख़ुशहाली छीन रही।
रासायनिक उर्वरक से कम समय में
पैदावार तो बहुत बढ़ी।
मगर प्रकृति से छेड़छाड़ में
धरती और जीवों की उम्र घटी।
मंहगाई बढ़ी लेकिन फिर भी
बढ़ी न फसलों की कीमत।
मेहनत को छोड़कर कमाई में
वापस आती बस लागत।
संसाधनों के अभाव में
अब जाये तो जाये कहाँ किसान।
देखकर भी दिल्ली चुप बैठी है
कुछ कर नहीं रहा प्रधान।
रचनाकार:कुलदीप पटेल (के•डी•)
कल्लेह, तहसील-जयसिंहनगर,जिला शहडोल (मध्यप्रदेश)
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2 टिप्पणियां:
बहुत ही शानदार कविता है, कुलदीप जी
बहुत बढ़िया कविता कुलदीप।
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