शनिवार, फ़रवरी 27, 2021

थोड़ा सा एडजस्ट कीजिये (कविता)

प्रवासी विद्यार्थी : पथ व पाथेय,साधन व साध्य

प्रवासी विद्यार्थी : पथ व पाथेय,साधन व साध्य
         प्रवासी विद्यार्थियों से तात्पर्य है ऐसे विद्यार्थियों से है जो अपना घर छोड़कर किसी शहर में आगे के अध्ययन और जीवन में कुछ कर दिखाने का सपना संजोए कुछ किताबें, कुछ खाने - पीने का समान गठरी - मोठरी साथ लिए बड़ी हसरत से जाते हैं,लगभग चार – छह की झुंड में प्राय: रेलवे स्टेशन या बस स्टेशन पर दिखाई पड़ जाते हैं।पहले तो अक्सर पैसेंजर ट्रेन व बस से जाते थे,जो हमारे हमारे जमाने की बात थी, वैसे अभी भी कमोवेश यही स्तिथि है।अब तो एक्सप्रेस ट्रेन और अच्छी बसें हैं।फिर भी विद्याध्ययन के लिए तो कष्ट उठाना ही पड़ता है।यह कहानी प्रायः इंटर मीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद शुरू होती है।
           मध्यम वर्गीय के सबसे निचले पायदान पर मौजूद  किशोर सरकारी नौकरी की आस लगाए बैठे लाखों विद्यार्थियों की कहानी जो मेडिकल, इंजीनियरिंग,प्रबंधन एवं अन्य प्रतिष्ठित परीक्षाओं की तैयारी करने में असमर्थ हैं।उन्हें उनके घरवालों से सिर्फ महीने का मकान का किराया,घर के खेत में उपजे धान का चावल एवं गेहूं का आटा, गैस भराने के लिए एवं किताबें खरीदने के रुपए ही मिल सकता है। गैस से पहले हम लोगों के समय अंगीठी बुरादा वाली, तत्पश्चात स्टोव आया तो लगा कितना सकून मिला,लेकिन मिट्टी का तेल लेने में शरीर का पसीना तेल की तरह ही टपकता था।इन्हीं सभी से हम लोग भी रूबरू होकर बिना साधन का रोना रोए,अर्जुन की तरह चिड़िया की आंख पर निशाना साधने की भांति साध्य तक पहुंचने की अनवरत साधना से  यहां तक पहुंचे हैं।
       उनके सामने इन सीमित संसाधनों से महीना निकालने की चुनौती पहले बनी रहती है।इस दौरान खाना बनाने में कितना कम समय खर्च हो इसका भी ध्यान रखना होता है। दाल - भात एवं आलू का चोखा एक ही समय में कैसे बनता है ये सिर्फ इनको पता है।रोटी जल गई हो या सब्जी में नमक कम हो,पानी ज्यादा हो या फिर भात पका ही न हो, खाते समय सभी का स्वागत ऐसे किया जाता है मानो किसानों के मेहनत की कद्र करने का ठेका इन्हें ही मिला हो,और कितना स्वादिष्ट होता था,क्योंकि अपना खुद का जो बनाया होता है।न कोई शिकायत न कोई गिला, खा लिया जैसा मिला।ऐसा ही कुछ मर्दाना खाना इन प्रवासी विद्यार्थियों का होता है।खिचड़ी को ' राष्ट्रीय भोजन जयहिंद' कहना हमने यहीं सीखा।
       मां बाप के दर्द को अपने सपनों में सहेजना कोई इनसे सीखे।जिस समय जमाने को बाइक,आइफोन,फिल्म इत्यादि के आने का इंतजार रहता है उस समय इन्हें प्रतियोगिता दर्पण,योजना,वैकेंसी,इंटरव्यू,रिजल्ट आदि का इंतजार रहता है।अपने अध्ययन के दौरान ये अपने आप को रूम में ऐसे बंद रखते हैं मानो लाकडॉउन का कंसेप्ट सरकार को इन्होंने ही दिया हो।मेडिकल वालों को जीवविज्ञान पढ़ना है, इंजीनियरिंग वालों को रसायन एवं भौतिकी ही पढ़ना है,एम बी ए वालों को बिजनेस ही पढ़ना है मगर इन्हें सबकुछ पढ़ना है।कुछ को भारत के राज्यों की राजधानी पता नहीं और इन्हें देखिए इनसाइक्लोपीडिया एवं ब्रिटानिका से लोहा लेने चल पड़े हैं।शाम को चाय पीने के बहाने रूम से निकलने पर किताबों की दुकान पर पुस्तकों को देखने में घंटों खड़े रहना, कुछ प्रश्न व उत्तर तो ऐसे ही देखते -  देखते रट जाते हैं।प्रयागराज में तो ज्ञानभारती कब कटरा से विश्वविद्यालय रोड पहुंच गई, हमें तब पता चला जब आयोग से कार्य समाप्त कर तीन वर्ष पूर्व कुछ पुस्तकें खरीदने गया फिर मालूम हुआ।
         जहां एक ओर दुनिया दिवाली में पटाखे फोड़ने में व्यस्त रहती है वहीं इन्हें लुसेंट की किताब में थारू जनजाति के दीवाली को शोक के रुप में मनाने का संप्रताया एवं पटाखे से निकलने वाले हरे रंग बेरियम के कारण पढ़ने की व्यस्तता रहती है।जहां लोगों में देशभक्ति की भावना सिर्फ 15 अगस्त, 2 अक्टूबर एवं 26 जनवरी के दिन ही उमड़ती है वहीं रोजाना आजादी के योद्धाओं के योगदान पढ़ना इनके डेली रुटीन में है।जहां आज भी समाज में जात-पात,धर्म,संप्रदायिकता का जहर विद्यमान है वहीं इनके कमरे में एक ही थाली में विभिन्न जाति एवं धर्मों का हाथ निवाले को उठाने के लिए एक साथ मिलता है। इससे बढ़िया समाजिक सौहार्द का उदाहरण कहीं और मिल ही नहीं सकता।गंगा – जमुनी तहजीब की जीवंतता की अद्भुत मिशाल।
             कुल मिलाकर इतिहास के गौरवान्नित गाथाओं से लेकर वर्तमान घटनाओं की विविधताओं को समेटना इनकी आदत सी बनी रहती है।दुनिया जहां फास्ट फूड के चर्बी को जिम के ट्रेडमिल पर घटाने में व्यस्त हैं वहीं इन्हें  मैराथन सरीखे फिजिकल अभ्यास हेतु सड़क,साइकिल,खेत इत्यादि को माध्यम बनाना पड़ता है।सरकारी नौकरी में मेडिकल वालों,इंजीनियरिंग वालों की अभिरुचि उत्पन्न होने में सिर्फ इनकी मेहनत है जिसके चमक से भारी भरकम लागत वाली नौकरियां भी फीकी पड़ गयी  हैं।
        लक्ष्य इनके इतने सार्थक है कि लड़की वाला दूसरे पेशे से जुड़े लड़कों को मानो ऐसे भगा रहा हो जैसे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप को भगाया गया एवं सरकारी नौकरी प्राप्त लड़कों की खोज इतनी है जितनी कोरोनावायरस की वैक्सीन।कुल मिलाकर इनका एक ही लक्ष्य है परीक्षा को पास कर सरकारी नौकरी हासिल कर मां बाप को वो सबकुछ देना जिसके लिए वो एक दिन तरसे थे,और बड़ी मुश्किल में दिन व्यतीत कर इन्हें पढ़ने बाहर भेजा था।
     हमें गर्व है कि एक अध्यापक के रूप में हम लोग भी ऐसे विद्यार्थियों को उनकी मंज़िल तक ले जाने का एक छोटा सा ज़रिया हैं।
            डॉ ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।
मो: 9415694678
Email: opcbns@gmail.com

शुक्रवार, फ़रवरी 26, 2021

मुझ पर हँसते हो (कविता)


मुझ पर हँसते हो 

मुझ पर हँसते हो 
क्यूं मेरा मजाक बनाते  हो ,
जितना मै खुद को समझती हूँ 
इतना तुम कहाँ समझते हो ।
मेरा क़ाबिलियत पर भरोसा है मुझे 
क्योंकि खुद के लिए जीना है मुझे ,
इस बात को तुम कहाँ समझते हो 
मुझे नादान समझकर तुम खुद को 
कितना सयाना समझते हो ? 

शोभा तिवारी ✍
काशीपुर उत्तराखंड 😊
मौलिक स्वरचित और अप्रकाशित रचना

मंगलवार, फ़रवरी 23, 2021

सपना (कविता) : सुरेन्द्र कुमार पटेल


            
  

 ● सपना●
सपने मन में अपने, कुछ तो बुना करें
चाहे विषय अपने मन का ही चुना करें।
जब चाहे बोयें, जितना चाहे बड़ा करें
सपनों की धुन में जैसा चाहे सुना करें। 

सपनों को सजाने जैसा चाहे रंग मिलाएं
स्वप्न  बाग में चाहे जैसा फूल  खिलाएं।
रहें विचारमग्न अकेला  या दुनिया घूमें
बैठ अकेला या किसी को मन में लाएं। 

सपनों में रहना व विचरना मनमर्जी है
है शिकायत  खुद की खुद से अर्जी है।
नहीं किसी भय या चिंता में सपना देखें
सपनों को सजाने में खुली खुदगर्जी है। 

सपनों की क्षमता है हवा में महल बनाएं।
पकड़ गगन को  चाहे मुट्ठी में भर लाएं।
जाना चाहें पार  अंतरिक्ष में  यानों से,
सपनों में कीच लपेटें या समंदर नहाएं।
 
सपना ही तो है, क्यों न उल्लास मनाएं,
दीप प्रज्ज्वलन की सर्वत्र प्रकाश समाए।
मुख मंडल पर स्वाभाविक आभा दमके,
सपनों की यह आभा नव आस जगाए। 

इस दुनिया  में जो भी छटा निराली हो,
सूखे होठों को तलाशती जो प्याली हो।
कम से कम सपनों में तो हक हो अपना
दृष्टि जाय जिधर वहाँ-वहाँ हरियाली हो।
                   ●रचना●
          #सुरेन्द्र_कुमार_पटेल
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स्वास्थ्य का खजाना मोटे अनाज (आलेख)- डॉ ओ पी चौधरी

स्वास्थ्य का खजाना मोटे अनाज- डॉ ओ पी चौधरी

                   जी हां हम बात कर रहे हैं पुराने समय में बोए और खाए जाने वाले अनाजों की, जिन्हें आज मोटा अनाज कहा जाता है। मौका था साईं समसपुर(अम्बेडकरनगर) हम सभी के आदरणीय और एक मात्र शेष बचे हम लोगों के काका(चाचा) श्री राम लौटन वर्मा जी, जिनसे मिलने का सौभाग्य गांव जाने पर 18 फरवरी को मिला।  घर - दुआर, पशु - प्राणी, हाल- चाल के बाद बातचीत चल पड़ी खेती - किसानी, गांव - गिराव की, खान - पान की,  रहन - सहन की। फिर बात होती गई और वे लोग अपने बचपन और हम अपने बचपन की खेती - किसानी आदि के बारे में चर्चा करने लगे। जब सांवा, कोदो, मेडूआ, बाजरा,  ज्वार,  बोड़ा,  मटर,  चना,  तीसी/अलसी,  राई,  जौ, खेसारी, केराव आदि बड़े पैमाने पर बोए जाते थे। हम लोग उस कालखंड के आखिरी गवाह हैं,  ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि कुछ किशोरवय नवयुवक भी वहां मौजूद थे,  लेकिन वे अधिकतर अनाजों से अनभिज्ञ थे। हमने सोचा कि हम लोगों के बचपन में जो फसलें उगाई जाती थी और लोग उनका सेवन करते थे तथा बिना दवा के फिट रहते थे,  क्यों न उसके बारे में बात चीत की जाय।  जिन्हें मोटा अनाज कहा जाता है, वे स्वास्थ्य की दृष्टि से कितने उपयोगी थे, आज लोगों को समझ में आ रहा है । अब सरकार भी इन फसलों को संरक्षित व संवर्धित करने का प्रयास कर रही है। जिस सावाँ और जौ को लोग बहुतायत मात्रा में पैदा करते थे आज वह सावाँ , कोदो,  जौ ढूढे नहीं मिल रहा है।  भाई मेवालाल जी,  मुस्कान ज्योति समिति,  लखनऊ जो बर्मी कम्पोस्ट, जैविक खेती के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिए हैं, और पूरे देश में घूम - घूम कर एक जन आंदोलन का रूप दे रहे हैं। एक दिन  बताने लगे  कि यार ओ पी हम तो सावाँ का चावल उड़ीसा से मंगवाते हैं और उसका सेवन कर रहे हैं,  बहुत ही सुपाच्य है। मुझे स्वयं ही लारी कार्डियोलॉजी,  लखनऊ में इलाज के दौरान डायटिशियन द्वारा फ्लेक्सी सीड के सेवन का सुझाव दिया गया तो आश्चर्य हुआ कि तीसी/अलसी तो अब बोई नहीं जाती,  तिरस्कृत है,  उसका सेवन?लेकिन अब मैं कर रहा हूं।  जौ, कोदो, मडुआ पेट के लिये काफी फायदे मन्द होता था । आज भी  उत्तराखंड, मध्य प्रदेश,  झारखंड, उड़ीसा में यह बोया जाता है।  बाजरा (सफेद और लाल), मक्का बोए जाते थे। मक्के के खेत में फूट वाली ककड़ी बो दी जाती थी। ककड़ी जब पककर फूटती थी उसे फूट कहा जाता था जिसे गुड़ (राब)से खाते थे, जो अब केवल अस्ताबाद जगदेव बाबू की कुटी पर ही खाने को मिलती है।  बचपन में तो हम और सेवाराम भैया (अवकाश प्राप्त वरिष्ठ जेल अधीक्षक,  डॉ सेवाराम सिंह चौधरी) उड़ा लाया करते थे।  उसे खाने में कितना मजा आता था, उसका वर्णन करना बड़ा मुश्किल है । एक ही खेत में एक साथ 3-3 फसलें उगाई जाती थी। अरहर के खेत में उसके साथ ही तिल, मूँग, उड़द, सनई,  पेटुवा बो दिया जाता था। सनई और पेटुआ से सन निकलता था,  जिससे कुएं से पानी निकालने की उबहन, चरखी चलाने के लिए बरहा,  बरारी,  पशुओं को बांधने के लिए पगहा,  गेरॉव,  नाथी,  सिंघौटी बनाई जाती थी और भी तरह - तरह की रस्सी और चारपाई के लिए बाध और ओरदवन बनता था। सनई के फूल का साग बड़ा ही स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन था,  इन फसलों के साथ आयरन से भरपूर बथुआ फ्री में मिल जाता था, हांडी में चना,  सरसों,  बथुआ के साग की गमक अब याद ही बन गई है,  कल्पा बूढ़ी कहती थी, ' हंडिया में साग बाय मोर जेरा लाग बाय '। तीसी से मीठी बेझरी/बेरनी(अब राम खुशियाल बाबू की पत्नी श्रीमती शीला देवी ही हमारे पूरे गांव में बना पाती हैं) गजब का व्यंजन बनता था,  जितना स्वादिष्ट उतना ही फायदेमंद। अब यही फ्लेक्सी सीड और रागी के रूप में वरिष्ठ आहार विशेषज्ञों द्वारा संस्तुत किया जा रहा है,  फिर दशकों से उपेक्षित पड़े इन मोटे अनाजों की ओर हमारा दृष्टिकोण परिवर्तित हुआ, उनके भी दिन बहुरे हैं,  बड़ी - बड़ी बहू देशी कंपनियां उनको नए कलेवर में प्रस्तुत कर बड़ा व्यापार खड़ा कर रहे हैं। कुछ लोग अरहर के साथ ही बाजरा और उड़द भी बो देते थे।  जाड़े के दिनों में बाजरे की रोटी,  देशी घी और गुड़ के साथ,  मक्के की रोटी सरसों के साग साथ लोग खाते थे और ठंड से बचाव करते थे,  क्योंकि तब इतने साधन उपलब्ध नहीं थे ओढ़ने और बिछाने के। भेडियहवा कम्बल और पुइयरा की गोनरी ही काफी थे। एक खेत में एक साथ कितनी फसल तैयार हो जाती थी। यह सब जून में बोई जाती थी। बाजरे का तना जानवरों के लिये चारा का काम करता था। तिल का तेल सिर दर्द में काफी लाभदायक होता है।  मिट्टी के दीये में तेल डालकर उसे जलाया जाता था, तिमिर दूर कर एक अनोखी खुशबू भी बिखेरता था,  जिस सुगंध का वर्णन चंदी बाबू ही कर सकते हैं।   

       बरसात होते ही खेतों की हल - बैल से खूब गहरी जुताई कर दी जाती थी और मेडबंदी कर दी जाती थी। जब जोर की बारिश होती थी तो लेवा करके धान कि बुवाई कर दी जाती थी। उस समय बाईसनगीना बड़े पैमाने पर बोए जाता था,  उसका चावल अच्छा होता था।  बगड़ी,  सरया,  करहनी,  जहां पानी ज्यादा लगता था वहां जड़हन बोया जाता था। इसका चावल लाल होता था, प्रायः लाई बनाने के काम आता था। इसका भात मीठा होता था।  सरया और सहदेइया उस समय के जीरा बत्तीस थे। पैदावार कम होती थी। कहीं कहीं करंगा और सेलहा धान बोया जाता था उसमें तुड़ बड़ा बड़ा होता था। अब तो धान कि रोपाई होने लगी आई आर ऐट धान ने पैदावार बढ़ा दी,  मंसूरी भी अच्छी पैदावार देता है,  बासमती व बंगाल जूही की पैदावार तो कम है लेकिन खाने में स्वाद अच्छा है। हाइब्रिड की इतनी किस्में प्रचलित हैं,  जिनका नाम गिनाना कठिन है। गेहूं नरमारोजू,  के अडसठ खूब चला पहले अब बहुत सी किस्में हैं। पहले जौ,  चना,  मटर, सरसों, तीसी आदि बड़े पैमाने पर बोए जाते थे। जौ अब लगभग गायब ही हो गया है। जौ जब से गायब हो गया, और गेहूं आ गया लोग केवल गेहूं के पिसान का प्रयोग करने लगे, तबसे पेट की बीमारी बढ़ गई है। उस समय चरखी, बेनी,  पुरवट, , ढेकुली, रहट, सैर,  से सिंचाई होती थी।  जो इन फसलों की सिंचाई के लिये पर्याप्त थे। कुएं, तालाब, पोखरी, गड़ही आदि थे जो जलाशय का और जल संरक्षण का कार्य करते थे।

       *अब हमें पुन: इन्हीं मोटे अनाजों की जरूरत है,  रासायनिक खादों,  कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खेती की ओर अग्रसर होने की जरूरत है, निजामपुर,  परुइया आश्रम के विजय वर्मा जी,  जो राजकीय इंटर कॉलेज, बाराबंकी में भूगोल प्रवक्ता भी हैं,  जैविक खेती कर समाज को एक नई सोच/दिशा प्रदान कर रहे हैं, ताकि सभी को पौष्टिक व शुद्ध आहार मिल सके। हम उनको साधुवाद देते हैं कि पूरे समाज को एक नई दिशा एवं विषाक्त मुक्त खाद्यान्न उपलब्ध करा रहे हैं।  इसमें सरकार का सहयोग बहुत आवश्यक है। स्वस्थ व्यक्ति,  स्वस्थ समाज,  स्वस्थ व सशक्त राष्ट्र। 

"जोहार प्रकृति, जोहार किसान!"
डॉ ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग,
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गुरुवार, फ़रवरी 18, 2021

अन्दर की बात (कविता) : राम सहोदर पटेल



अन्दर की बात
दिल का दर्द कैसा, आँसू ये बता देता है।
शुभचिन्तक  का प्रेम, उसका रुख ही बता देता है।
इन्सान का व्यक्तित्व भी, वाणी से पता चलता है,
ज्ञान का असर उसका, बहस बता देता है।
दौलत की वृद्धि से, अहंकार ही पनपता है,
कुटुम्ब रंग कैसा, संस्कार बता देता है।
ध्यान  है कहाँ पर, चालों से पता चलता है,
अन्दर में छिपी खूबी, नजरें ही बता देता है।
नीयत की नीति कैसी, सानिध्य प्रकट करता है,
रिश्ते की नीति कैसी, ये वक्त बता देता है।
समाज नीति कैसी, महफिल से पता चलता है,
है मेल-जोल कैसा, उत्सव ये बता देता है।
सफलतायों भरी राज, चेहरे से पता चलता है,
आतिथ्य प्रेम कैसा, मुस्कान प्रकट करता है,
मन में हो मलाल, जरा साथ बता देता है।
रूलाया यदि किसी की, पशुता ही प्रकट होती है,
हँसना और हँसाना,  इंसान बना देता है॥
भीतर का घर है कैसा,  दरबाजा बता देता है,
पेड़ होगा कैसा, पौधा ही बता देता है।
यदि समय का साथ न ले, तो पिछड़ते जायेंगे,
ऊंचाई तक पहुंचना, अवसर ही बता देता है|
मुश्किल में फंसे  भारी मारग न दिखे आगे,
तब ज्ञान का अहसास ही, मारग को सुझा देता है।
सहोदर का  कहन मान, दूरदृष्टि रखो ध्यान में
सलाह ही बड़ों का,
अरमान सुझा देता है॥
रचनाकार:
राम सहोदर पटेल, स.शिक्षक, ग्राम-सनौसी, थाना-ब्योहारी जिला शहडोल मध्यप्रदेश 
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गुरुवार, फ़रवरी 11, 2021

📍क्रांतिवीर तिलका मांझी📍 : बी एस कुशराम



📍क्रांतिवीर तिलका मांझी📍
    (11फरवरी,जन्म दिवस)
वीर शिरोमणि तिलका मांझी, को करते हैं सेवा जोहार।
आज जन्म दिवस के अवसर, हम करते हैं जय जय कार।।
   ग्यारह फरवरी सत्तरह सौ पचास, में जन्मे थे जबरा-2
सुल्तानगंज के तिलकपुर गांव, प्रांत जानो रहा बिहार।वीर----।
   जबरा पहाड़िया नाम रखे थे, पिता   सुन्दरा   मुर्मू-2
आदिवासियों के हित साधक, इनका रहा संथाल परिवार।वीर-----।
   नाम रख दिए अंग्रेजों ने, इनका तिलका मांझी-2
शब्दार्थ तिलका का गुस्सैल और, मांझी का ग्राम सरदार।वीर----।
   सत्तरह सौ इकहत्तर से चौरासी,जंग लड़े अंग्रेजों से-2
थर्राये अंग्रेजी सैनिक, सुनकर तिलका की ललकार।वीर------।
   मजिस्ट्रेट क्लीवलैंड को, चौरासी में मार दिया--2
उसे पकड़ने अंग्रेजों ने, किए बृहद खाका तैयार।वीर-----।
    अंग्रेजों ने उसे पकड़कर,मीलों मील घसीटे थे-2
घोड़ों के पीछे बांध उसे, जो गिनती के घोड़े चार।वीर----।
   तेरह जनवरी सत्तरह सौ पचासी, उन को दी गई फांसी-2
खुले आम चौराहे स्थित,था एक बट तरु डार ।वीर-----।
   प्रथम शहीद हुए थे मांझी, लेकिन ये दर्जा प्राप्त नहीं-2
नाम छिपाए क्रांतिवीर का, रहे हों जो भी कलमकार।वीर-----।
   आदि विद्रोही थे तिलका जी, स्वतंत्रता आंदोलन के-2
"कुशराम"उन्हें सम्मान न मिला, जिसके थे सच्चे हकदार।
वीर शिरोमणि तिलका मांझी,को करते हैं सेवा जोहार ।।
                    रचयिता-बी एस कुशराम बड़ी तुम्मी
                          जिला-अनूपपुर (मध्य प्रदेश)
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शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2021

तीन कवितायेँ : राम सहोदर पटेल



तीन कविताएँ

काम अपना हो हसने - हसाने के लिये ।

जिन्दगी ये मिली कर दिखाने के लिये ।

काम हो ऐसा मस्तक हो ऊँचा सदा ,

काम होवे न और को रुलाने के लिये ।

कभी शर्मिन्दगी की न नौमत बने ,

फर्ज होवे सदा इन्साफ के लिये ।

लक्ष्य होवे सदा कुछ नया करने की,

लीक होते नही जिम्मेदार के लिये ।

काल उपकार की मूल्य होवे सदा,

धन्य क्षण है जो हो सेवा भाव के लिये।  

 

दीन सेवा से बढ़कर न कार्य अन्य है ।

है जो सेवक बना बस वही धन्य है ।

काम आये पराये वह ही सम्पन्न है ।

इससे दिल है चुराये वह विपन्न है ।

सेवता है वही जो अकल मन्द है ।

सेव लेता वही जिसमें छलछन्द है ।

शुद्ध अन्तःकरण करे छल - बल तजे ।

निश्छल आचरण करे वह सकलकन्द है ।।

 

साई रहिये सदा स्वार्थपरता से बच ,

दागी बनने से बच बोलिये सबसे सच

कोई अच्छा कहे इसकी चिन्ता न रख ।

बुरा कहने न पाये तू कालिख से बच ।

कितना अच्छा करो निन्दा तो होना है ,

बुरे बकते हैं अच्छे की आदत में रख ।    

चित्त कर ले निर्मल तू सफलगामी वन ,

भावना हो सहोदर सफल लक्ष्य रख।

//रचना//

राम सहोदर पटेल,

शिक्षक, ग्राम-सनौसी, थाना-ब्योहारी जिला शहडोल (मध्यप्रदेश)

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सोमवार, फ़रवरी 01, 2021

निकम्मे जन : राम सहोदर पटेल



कर्मवीरों की बदनामी , निकम्मों ने ही कीन्हा है । 
ये मुठ्ठीभर निकम्मों ने विफलता हाथ दीन्हा है ।
वफादारी भी रोया है , इन्ही चोरों की मजहब से, ह
रामी कामचोरों ने प्रगति अवरुद्ध कीन्हा है ।
चुराया जी सदा है काम से न कर्जा लोन का दीन्हा।
हुए बदनाम खुद व खुद , सकल नौका डुबो दीन्हा। 
इन्हीं निर्लज्ज नीचों से स्वयं लज्जा लजाया है ।
इन्ही ने लात मुक्को की धरोहर भेट लीन्हा है ।
प्रगति  को बैक में डाला परिश्रम से डरे भागे ।
समय के चोर हुरदंगे , ज्ञान अधूरा कर लीन्हा ।
लगाकर ढेर कूड़ा का सफाई सीख देते हैं , 
आलस नाकामी में पड़कर गरीबी मोल ले लीन्हा । 
इन्हें न मान की चिन्ता न चिन्ता नाक कटने की ।
ओ इनका साथ देता है उन्हें बदनाम कर दीन्हा । 
अगर चाहो कि सुधरे ये तो ले बैठेंगे तुमको भी , 
अकल के उल्लू होवे ये , सकल बेकाम कर दीन्हा । 
ये पशु से भी गये गुजरे हैं चोला मानवी पाये।
धरा का बोझ बन बैठे , स्वयं पाषाण कर लीन्हा । 
स्वजन सुख - चैन छीने ये , निजी हैवान कर्मों  से, 
फंसा जो इनके फंदे में , उन्हे निष्काम कर दीन्हा ।
रहो बचके सदा इनसे करो सलाम पहले ही , 
निवेदन भाव दिखलाओ , तो समझे भय से कीन्हा है । 
अकड़ते हैं झगड़ते ये सदा , न नरमी चाल को जाने, 
ये माने चिट को अपना ही , व पट तो अपना ही लीन्हा।
सहोदर इनसे दूरी रह , चहो अपनी भलाई जो।
मेहनत कस जनो का नाम भी बदनाम कर दीन्हा।


//रचना//
राम सहोदर पटेल
शिक्षक, ग्राम-सनौसी, थाना-ब्यौहारी जिला-शहडोल

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तनावमुक्त जीवन कैसे जियें?

तनावमुक्त जीवन कैसेजियें? तनावमुक्त जीवन आज हर किसी का सपना बनकर रह गया है. आज हर कोई अपने जीवन का ऐसा विकास चाहता है जिसमें उसे कम से कम ...