प्रवासी विद्यार्थी : पथ व पाथेय,साधन व साध्य
प्रवासी विद्यार्थियों से तात्पर्य है ऐसे विद्यार्थियों से है जो अपना घर छोड़कर किसी शहर में आगे के अध्ययन और जीवन में कुछ कर दिखाने का सपना संजोए कुछ किताबें, कुछ खाने - पीने का समान गठरी - मोठरी साथ लिए बड़ी हसरत से जाते हैं,लगभग चार – छह की झुंड में प्राय: रेलवे स्टेशन या बस स्टेशन पर दिखाई पड़ जाते हैं।पहले तो अक्सर पैसेंजर ट्रेन व बस से जाते थे,जो हमारे हमारे जमाने की बात थी, वैसे अभी भी कमोवेश यही स्तिथि है।अब तो एक्सप्रेस ट्रेन और अच्छी बसें हैं।फिर भी विद्याध्ययन के लिए तो कष्ट उठाना ही पड़ता है।यह कहानी प्रायः इंटर मीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद शुरू होती है।
मध्यम वर्गीय के सबसे निचले पायदान पर मौजूद किशोर सरकारी नौकरी की आस लगाए बैठे लाखों विद्यार्थियों की कहानी जो मेडिकल, इंजीनियरिंग,प्रबंधन एवं अन्य प्रतिष्ठित परीक्षाओं की तैयारी करने में असमर्थ हैं।उन्हें उनके घरवालों से सिर्फ महीने का मकान का किराया,घर के खेत में उपजे धान का चावल एवं गेहूं का आटा, गैस भराने के लिए एवं किताबें खरीदने के रुपए ही मिल सकता है। गैस से पहले हम लोगों के समय अंगीठी बुरादा वाली, तत्पश्चात स्टोव आया तो लगा कितना सकून मिला,लेकिन मिट्टी का तेल लेने में शरीर का पसीना तेल की तरह ही टपकता था।इन्हीं सभी से हम लोग भी रूबरू होकर बिना साधन का रोना रोए,अर्जुन की तरह चिड़िया की आंख पर निशाना साधने की भांति साध्य तक पहुंचने की अनवरत साधना से यहां तक पहुंचे हैं।
उनके सामने इन सीमित संसाधनों से महीना निकालने की चुनौती पहले बनी रहती है।इस दौरान खाना बनाने में कितना कम समय खर्च हो इसका भी ध्यान रखना होता है। दाल - भात एवं आलू का चोखा एक ही समय में कैसे बनता है ये सिर्फ इनको पता है।रोटी जल गई हो या सब्जी में नमक कम हो,पानी ज्यादा हो या फिर भात पका ही न हो, खाते समय सभी का स्वागत ऐसे किया जाता है मानो किसानों के मेहनत की कद्र करने का ठेका इन्हें ही मिला हो,और कितना स्वादिष्ट होता था,क्योंकि अपना खुद का जो बनाया होता है।न कोई शिकायत न कोई गिला, खा लिया जैसा मिला।ऐसा ही कुछ मर्दाना खाना इन प्रवासी विद्यार्थियों का होता है।खिचड़ी को ' राष्ट्रीय भोजन जयहिंद' कहना हमने यहीं सीखा।
मां बाप के दर्द को अपने सपनों में सहेजना कोई इनसे सीखे।जिस समय जमाने को बाइक,आइफोन,फिल्म इत्यादि के आने का इंतजार रहता है उस समय इन्हें प्रतियोगिता दर्पण,योजना,वैकेंसी,इंटरव्यू,रिजल्ट आदि का इंतजार रहता है।अपने अध्ययन के दौरान ये अपने आप को रूम में ऐसे बंद रखते हैं मानो लाकडॉउन का कंसेप्ट सरकार को इन्होंने ही दिया हो।मेडिकल वालों को जीवविज्ञान पढ़ना है, इंजीनियरिंग वालों को रसायन एवं भौतिकी ही पढ़ना है,एम बी ए वालों को बिजनेस ही पढ़ना है मगर इन्हें सबकुछ पढ़ना है।कुछ को भारत के राज्यों की राजधानी पता नहीं और इन्हें देखिए इनसाइक्लोपीडिया एवं ब्रिटानिका से लोहा लेने चल पड़े हैं।शाम को चाय पीने के बहाने रूम से निकलने पर किताबों की दुकान पर पुस्तकों को देखने में घंटों खड़े रहना, कुछ प्रश्न व उत्तर तो ऐसे ही देखते - देखते रट जाते हैं।प्रयागराज में तो ज्ञानभारती कब कटरा से विश्वविद्यालय रोड पहुंच गई, हमें तब पता चला जब आयोग से कार्य समाप्त कर तीन वर्ष पूर्व कुछ पुस्तकें खरीदने गया फिर मालूम हुआ।
जहां एक ओर दुनिया दिवाली में पटाखे फोड़ने में व्यस्त रहती है वहीं इन्हें लुसेंट की किताब में थारू जनजाति के दीवाली को शोक के रुप में मनाने का संप्रताया एवं पटाखे से निकलने वाले हरे रंग बेरियम के कारण पढ़ने की व्यस्तता रहती है।जहां लोगों में देशभक्ति की भावना सिर्फ 15 अगस्त, 2 अक्टूबर एवं 26 जनवरी के दिन ही उमड़ती है वहीं रोजाना आजादी के योद्धाओं के योगदान पढ़ना इनके डेली रुटीन में है।जहां आज भी समाज में जात-पात,धर्म,संप्रदायिकता का जहर विद्यमान है वहीं इनके कमरे में एक ही थाली में विभिन्न जाति एवं धर्मों का हाथ निवाले को उठाने के लिए एक साथ मिलता है। इससे बढ़िया समाजिक सौहार्द का उदाहरण कहीं और मिल ही नहीं सकता।गंगा – जमुनी तहजीब की जीवंतता की अद्भुत मिशाल।
कुल मिलाकर इतिहास के गौरवान्नित गाथाओं से लेकर वर्तमान घटनाओं की विविधताओं को समेटना इनकी आदत सी बनी रहती है।दुनिया जहां फास्ट फूड के चर्बी को जिम के ट्रेडमिल पर घटाने में व्यस्त हैं वहीं इन्हें मैराथन सरीखे फिजिकल अभ्यास हेतु सड़क,साइकिल,खेत इत्यादि को माध्यम बनाना पड़ता है।सरकारी नौकरी में मेडिकल वालों,इंजीनियरिंग वालों की अभिरुचि उत्पन्न होने में सिर्फ इनकी मेहनत है जिसके चमक से भारी भरकम लागत वाली नौकरियां भी फीकी पड़ गयी हैं।
लक्ष्य इनके इतने सार्थक है कि लड़की वाला दूसरे पेशे से जुड़े लड़कों को मानो ऐसे भगा रहा हो जैसे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप को भगाया गया एवं सरकारी नौकरी प्राप्त लड़कों की खोज इतनी है जितनी कोरोनावायरस की वैक्सीन।कुल मिलाकर इनका एक ही लक्ष्य है परीक्षा को पास कर सरकारी नौकरी हासिल कर मां बाप को वो सबकुछ देना जिसके लिए वो एक दिन तरसे थे,और बड़ी मुश्किल में दिन व्यतीत कर इन्हें पढ़ने बाहर भेजा था।
हमें गर्व है कि एक अध्यापक के रूप में हम लोग भी ऐसे विद्यार्थियों को उनकी मंज़िल तक ले जाने का एक छोटा सा ज़रिया हैं।
डॉ ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।
मो: 9415694678
Email: opcbns@gmail.com
1 टिप्पणी:
यथार्थ को बताता सुन्दर आलेख, बहुत बहुत बधाई
एक टिप्पणी भेजें