क्या अब भी वैसा ही है वो मेरा गाँव
क्या अब भी वैसा ही है,वो मेरा गांव!
जेठ की दुपहरी धूप,
और पीपल की छांव!
बछड़ों के रंभते स्वर,
उस पर श्यामा की पुचकार!
लिए रोटियां हाथ में,
हाथ फेर दादी करे दुलार!
वह स्मृति बाल-टोलियों की,
गोधूल में खेलते नंगे पांव! ....क्या अब भी वैसा ही है 1
न बाल हाथ में, न गिल्ली
न क्रिकेट का साजो-सामान!
मैले-कुचले कपड़ों से जो बन जाता
उन गेंदों में थी कितनी शान!
नदी किनारे जबरन जाना
और बहाना सचमुच की नाव! ....क्या अब भी वैसा ही है 2
खेल-खेल में लड़ जाना,
और रेफरी बना करवाना फैसला!
गिरे जो कोई खेलमें,
धूल झाड़ बढ़ा देते हौसला!
छोटे-छोटे झगड़ों में भी,
ढूंढ़ते थे अजब-गजब के दाव! ....क्या अब भी वैसा ही है 3
एक पेड़ आम का, नीचे उसके
बालझुण्ड अपार!
दिन-दिनभर टिके बगीचे में,
बहना चाहे कितनी ही गरम बयार!
बांट-चूंट के घर आ जाते, जो पाते,
देते नहीं किसी को घाव! ....क्या अब भी वैसा ही है 4
इसके घर या उसके घर में
बीत जाती थी सबकी शाम!
लिए टोकरी भर कण्डा सिर में,
कितनी ही लगती तन में घाम!
राजा बन जब करते नाटक
जल जाता मन का अभाव! ....क्या अब भी वैसा ही है 5
नींद ऊंघते सो-जाते पर
सुनते नित्य नया किस्सा!
‘‘ऐसे-ऐसे’’ होता था,
हर किस्से का हिस्सा!
उन किस्सों का जीवन पर
निश्चित ही पड़ गया होगा प्रभाव! ....क्या अब भी वैसा ही है 6
सुबह-सबेरे उठकर पढ़ना,
काम कोई हो गया महान!
चार लाइनें जोड़ बन जाता,
कोई तुलसी, या रसखान!
एक-दूसरे का छप्पर छाते,
ऐसा था सभीजनों का भाव! ....क्या अब भी वैसा ही है 7
खुलकर हंसते, लगा ठहाके,
नहीं किसी का था उपहास!
कारण-अकारण ही मिल जाता
जिससे करते वे विनोद और परिहास!
खुलकर जीवन जीना, बातें खुलकर
ऐसा था उनका स्वभाव! ....क्या अब भी वैसा ही है 8
त्यौहारों की तो बात गजब थी,
गांव की गलियों में लगती भीड़!
रंग-बिरंगे कपड़ों में बढ़ते सब
अपार जनसमूह को चीर!
रिश्तों की मिठास में घुल जाता
होता भी जो मन का दुराव! ...क्या अब भी वैसा ही है 9
सब के संकट टल जाते
जब मिल जाते मनमीत!
कीचड़ मध्य खड़ा हो रोपित करतीं
और गातीं खेती के मंगलगीत!
श्रम-साधना को जीवित रखतीं,
और रखतीं मन में उराव! ....क्या अब भी वैसा ही है 10
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर सर । आपके शब्द बचपन की यादें ताजा कर रही है।
स्मरणीय
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