राजनीतिक व्यवहार और समाज
राजनीति, समाज विज्ञान का ही एक विषय है। यह व्यवहार और सिद्धान्त दोनों रूपों में समान रूप से सत्य है। राजनीतिक व्यवस्था वास्तव में सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता को पूरा करने के लिए ही है। यदि समाज न हो तो अन्य किसी शास्त्र का होना न तो संभव है और न ही उसका कोई औचित्य है। तथापि समाज पर राजनीतिक व्यवहारों के बढ़ते प्रभाव के कारण राजनीतिक व्यवहार और समाज के संबंधों पर विमर्श करने की आवश्यकता महसूस हुई।
सूचना और संचार क्रान्ति ने घर की दीवारों को शब्दबेधी मात्र नहीं बना दिया अपितु सुंदर मखमली परदों को पारदर्शी भी बना दिया है। सोशल मीडिया ने समूचे संसार को आंखों के सामने जीवंत कर दिया है। लोग मात्र क्रिकेट का आंखों देखा हाल नहीं सुनते बल्कि किसकी रसोई में क्या पक रहा है, यह भी सुनते और देखते हैं।
यही हाॅल देश और प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों का है। एक मायने में यह बहुत अच्छा है कि आप अपना प्रार्थना-पत्र घर बैठे अपने किसी अधिकारी को ईमेल करके तत्काल भेज सकते हैं। कोई प्रतिवेदन सौंप सकते हैं। किसी आदेश के अनुपालन की सूचना सम्प्रेषित कर सकते हैं। घर बैठे किसी बड़े माॅल या शो से कोई सामान मंगवा सकते हैं। यह सब हमारे लिए लाभदायक ही है।
अब तो किसी राज्य के राज्यपाल भवन और राष्ट्रपति भवन की दूरी भी सूचना क्रान्ति ने लगभग समाप्त कर दी है। यह हो सकता है कि पाॅंच मिनट के भीतर राज्यपाल किसी प्रदेश में लागू राष्ट्रपति शासन समाप्त करने की सिफारिश राष्ट्रपति को मेल कर दे, राष्ट्रपति भवन उसे केन्द्रीय मंत्रिमंडल को भेजकर अनुमोदन प्राप्त कर ले और अगले ही मिनट राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन समाप्त करने का आदेश जारी कर दे। बाकी सब तो राज्यपाल भवन में ही होना है तो बचे हुए अगले तीन मिनट में राज्यपाल स्वविवेक से किसी पार्टी के अधिक मत प्राप्त दल के नेता को सरकार बनाने का न्यौता दे-दे और मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह भी हो जाय! यह सब संभव हुआ है तो सूचना क्रान्ति से!
किन्तु हमारे विमर्श का विषय यह है कि राजनीतिक दांव-पेंच की पल-पल की खबरें सूचना क्रान्ति के फलस्वरूप समाज के जिन लोगों को मिल रही हैं क्या वे इस प्रकार की राजनैतिक गतिविधियों को सुनकर राजनैतिक नहीं हो रहे हैं? अपनी आंखों के सामने इस प्रकार येन-केन-प्रकारेण सरकार बनाते देख क्या उनके मन में येन-केन-प्रकारेण उपलब्धियां हासिल कर लेने की प्रेरणा नहीं प्राप्त हो रही है। उत्तर हां में है। कल-कल निनाद करती सरिता का प्रवाह देखकर उसमें कूद पड़ने का मन किसका नहीं होता? कौन है जो चमत्कार को अपनी आंखों से देखे और स्वयं चमत्कृत न हो उठे? राजनीति में इस प्रकार के उलटफेर और दांव-पेंच के चाहे जो निहितार्थ हों किन्तु इनका सामाजिक जीवन में अनुकरण विघटनकारी ही साबित होगा।
जो समाज परस्पर सहयोग से आगे बढ़ने का आकांक्षी था, वह आज एक-दूसरे को खौंदकर आगे बढ़ने में विश्वास करने लगा है। इसका कारण यह नहीं है कि खौंदकर आगे बढ़ने में बहुत कुछ हासिल होना है किन्तु खौंदकर आगे बढ़ने से उस पथ पर चलने की नौबत नहीं आती जिस पथ पर चलने से पांव में छाले पड़ जाते हैं। आजकल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे विभिन्न प्रकार के संगठन और उसमें पदलोलुपता की अंधी दौड़ राजनीतिक प्रेरणा का ही परिणाम हैं। राजनीति यह सिखा रही है कि ऐन वक्त पर किस प्रकार फायदा उठा लेना है बिना यह सोचे कि जो वर्षों-वरष किसी संगठन को पालने-पोषने में वक्त लगाता है वह इस तरह के छलावे को देखकर किस प्रकार और कितना लहुलुहान हुआ होगा। उसका हृदय किस प्रकार बेध गया होगा। राजनीति में इस प्रकार की भावनाओं का कोई स्थान नहीं है और परिणामस्वरूप घर, परिवार और समाज में भी!
आम आदमी किसी कुटिल चाल वाले व्यक्ति के शब्दों के पीछे छिपे निहितार्थ को जब नहीं समझ पाता तो आजकल उसे भोंदू समझा और माना जाता है। आजकल हर हंसी के ठहाकों के पीछे रुदन के तार जुड़े होने के पीछे यही राजनीतिक दुष्प्रेरणा है। आज आदमी दूसरे आदमी को ठगने की तैयारी में है। जो आदमी ऐसा नहीं है वह ठगे जाने के लिए तैयार है। हमने भगवान के नाम पर फैले आडम्बर को नकारने की हिम्मत दिखाई, विभिन्न प्रकार की रूढ़िवादी परम्पराओं को नकारने का साहस जुटाया किन्तु राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने वाले लालचियों को अपना आदर्श मान लिया! तब सवाल उठता है कि क्या समाज का संगठित स्वरूप न होने का समाज को इतना नुकसान उठाना पड़ेगा कि जिस समाज हित के लिए समाज ने राज्य से व्यवस्था का इकरारनामा किया था वह राजनैतिक हस्तक्षेप समाज को अपनी उंगलियों पर नचाने लगेगा और समाज का आदर्श बन बैठेगा?
राजनीति का अंतिम उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना होता है। अतः राजनीति में दांव-पेंच की एक सीमा तक इजाजत है। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश में वह सब भी संविधान के अनुसार करने की ही इजाजत है।
देखना यह है कि हम अपने सामाजिक संबंधों में इस प्रकार के दांव-पेंच के अभ्यस्त तो नहीं हो रहे? ऐसा होना किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं है। होता यह है कि हमारे आसपास के परिवेश में हो रहे बदलावों से हमारी दृष्टि में कब बदलाव हो जाता है हमें पता ही नहीं चलता। राजनैतिक जोड़-घटाव को देखते सुनते कब हम अपने निजी रिश्तों की गहराईयों में इस प्रकार का गुणा-भाग करने लग जाते हैं, हमें मालूम नहीं पड़ता। हमें सोचना होगा कि सामाजिक जीवन में इस प्रकार के दांव-पेंच की जितनी अधिकता होगी हमारे आपसी संबंध उतने अधिक अविश्वसनीय होते जाएंगे। इस प्रकार का अविश्वसनीय होना सामाजिक और राजनैतिक दोनों दृष्टि से खतरनाक साबित होंगे।
खुलकर हंसने का अभाव इन्हीं दांव-पेंचों ने पैदा किया है। सरकारी और निजी कार्यालयों में गुटनिर्माण ऐसे ही दांव-पेेंचों का सहज परिणाम है। इन्हें प्रोत्साहित करने से व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों रूपों में क्षति ही होती है। सामाजिक संबंधों में और विशेष रूप से रिश्तों में गर्मजोशी का अभाव ऐसे ही दांव-पेंचों की वजह से है। हमारा देश बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, वसुधैव कुटुम्बकम और अतिथि देवो भव की भावना में विश्वास करता है। विडम्बना है कि राजनैतिक पतन ने हमारी इस सांस्कृतिक विरासत का पराभव करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है।
हमें तय करना पड़ेगा कि हम किस हद तक राजनैतिक व्यक्तित्व को अपने जीवन में स्थान दें। सत्ता व्यवस्था देखने वाले व्यक्तियों का काम समाज की व्यवस्था को ठीक करने का है। हमें अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक अच्छाइयों को बचाने, पल्लवित और पुष्पित करने के उत्तरदायित्व का निर्वहन स्वयं ही करना पड़ेगा। हमारे सामाजिक जीवन का श्रंगार, राजनीति के सिन्दूर का भूखा नहीं होना चाहिए। हालांकि अब यह बहुत कठिन हो चला है। फिर भी यदि समाज अपनी और राजनीति की ठीक-ठीक स्थिति का भान प्राप्त कर ले तो समाज में उत्तम आदर्शों की स्थापना का काम भी होगा और राजनीति को सामाजिक आदर्शों की पटरी से उतरने का भय भी। यह सीख पाए तो ठीक वरना यही कहते फिरेंगे, जिसे किसी महान लेखक ने लिखा है- छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए।
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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2 टिप्पणियां:
अच्छा आलेख सर, बहुत अच्छी जानकारी
बहुत बढ़िया आलेख
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