आप मुझे नहीं जानते
अगर कोई किसी को नहीं जानता तो इसमें किसका दोष है?उसका जो नहीं जानता या जिसे नहीं जाना जा रहा ?"
असल में हम जितने छोटे होते हैं,हमारा अहंकार उतना ही बड़ा होता है, जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, अहंकार छोटा होता जाता है। इस बड़े-छोटे का उम्र से कोई रिश्ता नहीं है, यह आपके अंतर्मन की यात्रा और उसके फलने -फूलने के तौर-तरीकों पर निर्भर करता है।
किसी अजनबी व्यक्ति से परिचय करनेकी पहल से इसे समझा जा सकता है। कई बार अपने पार्श्व में बैठे सहयात्री से परिचय जाने बिना ही सैकड़ों मील की यात्रा कट जाती है। और कई बार कुछ ही मिनटों में एक-दूसरे का हाल-चाल ऐसे जान लिया जाता है जैसे वे दोनों बहुत पुराने परिचित हों। वास्तव में दो व्यक्तियों के मध्य अहम् की ही दूरी होती है। यही अहम कई बार भय और शंका को जन्म देता है. ऐसे में जो व्यक्ति पहले पहल करता है बडप्पन दिखाने का श्रेय उसकी ही झोली में जायेगा क्योंकि उसने अपने अहम से ऊपर उठकर पहल करने की कोशिश की है। हो सकता है सामने वाला व्यक्ति परिचय देने में कोई रूचि न दिखाए और ऐसे में स्वयम के अपमान होने का खतरा तो है ही! किन्तु इस खतरे का आभास कौन कराता है? यही अहम! और कई बार ऐसा होता है कि लोग अपने पड़ोसी के बारे में कई सालो तक कुछ नहीं जानते।
कई बार हम अपनी दीनता के भाव से भी परिचय बनाने से कतराते हैं। यह भी एक तरह का अहम ही है. हम दीं हैं तो हमारे अपमान होने का खतरा अधिक है क्योंकि व्यक्ति हमारे बारे में कुछ भी कहने के लिए ज्यादा स्वतंत्र है। उसे मालूम है कि हम उसकी प्रतिक्रिया नहीं दे सकेंगे। किन्तु उसके व्यवहार से उत्पन्न होने वाले अपमान का एहसास तो हमें हमारे भीतर का अहम ही कराता है। आजकल ज्यादातर लोग अपने काम से मतलब रखने लगे हैं। जिसका परिणाम यह है कि लोगों के मध्य समरसता का अभाव है और भाईचारे की भी कमी है। और अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि आप तो मुझे जानते ही नहीं!
अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझना, उतना ही अनुचित है, जैसे दूसरे से स्वयं को कमतर समझना। जीवन में संतुलन का भाव कैसा हो इसे स्वयं पर नियंत्रण से समझा जा सकता है। हमारा मन अपने आप में शोध का विषय और ऊर्जा का भंडार है, जितना अधिक स्वयं को जानेंगे, दूसरों को जानना उतना ही सरल होता जाएगा ।
आइए एक-दूसरे को जानें और समझें।
शिवमंगल सिंह "सुमन" ने ठीक ही लिखा है-
"मैं पूर्णता की खोज में, दर-दर भटकता ही रहा,
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ रोड़ा अटकता ही रहा।
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है।
साथ में चलते रहे, कुछ बीच में ही फिर गए,
गति न जीवन की रुकी,जो गिर गए सो गिर गए।
रहे जो हर दम डटे ,उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है।
जब तक मंजिल पा न सकूं, तब तक मुझे न विराम है,
क्या राह में परिचय कहूं मैं, राही हमारा नाम है।
बस चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है।"
रचनाकार:धर्मेन्द्र कुमार पटेल
नौगवां, मानपुर जिला-उमरिया(मध्यप्रदेश)
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3 टिप्पणियां:
Very Nice Dharmendra Ji
बहुत बढ़िया सर।
शुभकामनाएं।💐
Er. Pradeip ji एवं सतीश कुमार जी, आप दोनों की कीमती टिप्पणियों का बहुत-बहुत आभार.
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