गुरुवार, नवंबर 14, 2019

बच्चों के अधिकार और वर्तमान समाज:सुरेन्द्र कुमार पटेल का आलेख

आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री भारत रत्न पंडित जवाहर लाल नेहरु का जन्मदिन है. वे बच्चों से बहुत प्यार करते थे और इसी कारण उनका  जन्मदिन बालदिवस के रूप में मनाये जाने का निश्चय किया गया. वास्तव में आज का दिन “बच्चों के अधिकार और वर्तमान समाज” विषय पर चिंतन करने का है.

हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं है किन्तु हम जिस समाज में रहते हैं, उसमें हमें जो दिखाई देता है, उससे हम सहजता से पता लगा सकते हैं कि वच्चों का भविष्य और उसमें वर्तमान समाज की भूमिका क्या है?

बच्चों का जीवन जहाँ गुजरता है, वह है उसका परिवार, समाज  और उसका विद्यालय. इसके बाद वह बड़ा होता है और गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है तब उसका समाज के अन्य क्षेत्रों से सम्बन्ध निर्माण होता है. 

बच्चों का पहला जीवन निर्माण परिवार में  होता है. अपने परिवार के बीच रहकर वह बहुत सी बातों को सीखता है. परन्तु क्या परिवारों को इस जिम्मेदारी का एहसास होता है कि परिवार केवल कुछ जरूरतों को पूरा करने का साधन नहीं हैं बल्कि वह बच्चों की एक खुली कार्यशाला हैं. क्या परिवार के सदस्य इतने सचेत हैं कि वह जो कुछ भी आचरण करते हैं, उसका बच्चों के बालमन पर कैसा प्रभाव पड़ता है. विशेष रूप से परिवार में माता-पिता के पारस्परिक व्यवहार का बच्चों के बालमन पर गहरा प्रभाव पड़ता है. घरेलू हिंसा बच्चों के भीतर भय, अवसाद और कुन्ठा को जन्म देती है. माता-पिता के मध्य कटुता का भाव बच्चों के व्यक्तित्व को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है. तो वहीं जिस परिवार में परस्पर प्रेम-भाव होता है, उसमें बच्चों के व्यक्तित्व का खुला और पूर्ण विकास होता है.

प्रत्येक परिवार को जीवन में अलग तरह की चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. किसी को अर्थाभाव का सामना करना पड़ता है, किसी परिवार में रुग्णता की समस्या होती है, किसी परिवार में असामयिक परिस्थितियों से उत्पन्न चुनौतियाँ होती हैं. वास्तव में परिवार की यही चुनौतियाँ बच्चों को भावी समाज की चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्हें तैयार करती हैं. किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि परिवार उन चुनौतियाँ का सामना किस तरह करता है? इन चुनौतियों का सामना करने के लिए वह कैसा साधन अपनाता है. एक परिवार अपनी कठिनाइयों का सामना करने के लिए जिन साधनों को अपनाता है, वह एक बच्चे के जीवन के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत बन जाते हैं. यदि परिवार अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए नीति-अनीति का विचार किये बिना एन-केन-प्रकारेण तरीकों को अपनाता है तो बहुत अधिक संभावना है कि बच्चा बड़ा होकर इन्हीं नीतियों का अनुसरण करे.

एक बच्चे का यह अधिकार है कि वह अपने व्यक्तित्व का इस प्रकार विकास करे जो उसकी अन्तर्निहित क्षमता को प्रकट करती हो तथा जिसका एक सामाजिक मूल्य हो, और वह अपने व्यक्तित्व के आलोक में गरिमा और आत्मसम्मान का बोध प्राप्त कर सके और ससम्मान अपने जीवन की जरूरतों को पूरा कर सके. जब वह यह सीख रहा होता है तब उसे इन मूल्यों की  समझ नहीं होती. वह तो बस जो उसके चारों ओर की परिस्थितियां हैं उनसे सहजता से चीजों को ग्रहण करता रहता है और उन्हीं परिस्थितियों के आलोक में अपने जीवन की कुछ मूलभूत अवधारणाओं को विकसित करता है या यह कहें कि उसके भीतर अवधारणाएं विकसित हो जाती हैं. बाद में सारा जीवन वह इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त रहता है. अतः एक परिवार पर बच्चों के जीवनमूल्यों के निर्माण में सचेत भूमिका निभाने की महती जिम्मेदारी है.

बच्चों के मनमस्तिष्क पर उसके आसपास के समाज का भी गहरा प्रभाव पड़ता है. प्रायः हम अपने बच्चों तक तो सचेत रहते हैं किन्तु दूसरों के बच्चों के प्रति हम प्रायः उदासीन होते हैं. देखा तो यह भी गया है कि जो व्यक्ति अपने बच्चों को “आप” कहकर बुलाता है वही व्यक्ति दूसरों के बच्चों को “रे” और “बे” कहकर बुलाने से नहीं चूकता. जबकि व्यक्ति का यही आचरण उसे वापस किसी न किसी रूप में प्राप्त होता है. जो व्यवहार आप अपने बच्चों के साथ करते हैं उससे आपके बच्चे का निर्माण होता है किन्तु जो व्यवहार आप दूसरों के बच्चों के साथ करते हैं, उससे आपकी आनेवाली पीढ़ियों का निर्माण होता है. क्योंकि आनेवाले समय में आपके बच्चों को दूसरों के बच्चों से वही प्राप्त होगा जो आपने दूसरों के बच्चों को दिया है. समाज का ऐसा पारस्परिक व्यवहार है कि प्रत्येक व्यक्ति और परिवार के व्यवहार की प्रतिक्रिया वापस हमें प्राप्त होती है. अतः हमें अपने बच्चों को तो प्रेम-व्यवहार और अच्छी शिक्षा देनी ही चाहिए किन्तु हमें वही गरिमापूर्ण व्यवहार औरों के बच्चों के साथ भी करनी चाहिए.

बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में स्कूल और शिक्षकों की भूमिका कई मायनों में महत्वपूर्ण है. पहला यह कि स्कूल एक पूरे समाज का प्रतिबिम्ब होता है. समाज के हर परिवार की अलग-अलग अवधारणाओं को लेकर बच्चे स्कूल आते हैं और स्कूली ज्ञान के अलोक में उसकी परख करते हैं. स्कूल में कही गयी बात बच्चों के लिए पत्थर की लकीर होती है. शिक्षक द्वारा दी गयी सूचना उसके लिए अंतिम सत्य है. किन्तु बदली हुयी परिस्थितियों में क्या स्कूल और शिक्षक इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन करने में सक्षम हैं? पहला तो यही कि भौतिकता और नैतिकता का जो अंतर्द्वंद समूचे समाज में है, क्या शिक्षक उससे अछूता रहकर बच्चों के भविष्य का निर्माण करने के लिए तैयार है? बच्चों को जो अधिकार स्कूलों में मिलने चाहिए, जैसे शिक्षकों का सान्निध्य उसे प्राप्त होना चाहिये वर्तमान में देखें तो कई परिस्थितियों में बच्चों को उपलब्ध नहीं है. एक ओर शिक्षा के प्रति अरुचि ने बच्चों को स्कूलों से विमुख कर दिया है तो वहीं जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं उन्हें विषयवार शिक्षकों की कमी का सामना करना पड़ रहा है. हमारा मूक दर्शक समाज कभी इसकी आवाज नहीं उठाता, क्यों ? यह समझ से परे है.

उन बच्चों की चर्चा किया जाना अत्यावश्यक है जिन्हें स्कूली जीवन के समय में होटलों, दुकानों और कारखानों में काम करना पड़ता है. उन बच्चों की भी चर्चा करना लाजिमी है जो भीख मांगने के लिए मजबूर हैं या मजबूर किये जाते हैं. यह जो काम करते हैं और जो भीख मांगते हैं वह सब समाज के सामने ही तो करते हैं... तो यह बात सभी की सामने है कि बच्चों की एक बड़ी तादाद ऐसा करने के लिए मजबूर है.  इस सम्बन्ध में हमारी सरकारों ने समय-समय पर नीतियां निर्धारित की हैं किन्तु समुचित क्रियान्वयन नहीं होने के कारण समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुयी हैं. संविधान में हमने समाजवाद को अपना लिया है जिसके अंतर्गत राज्य की इस जिम्मेदारी को स्वीकार कर लिया है  कि राज्य नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा फिर ऐसी विडम्बना क्यों है कि बच्चों को होटलों, दुकानों और कारखानों में काम करना पड़ता है. भीख मांगने के लिए मजबूर हैं. और यही नहीं इन कार्यस्थलों में उनके साथ आर्थिक, दैहिक और मानसिक उत्पीडन व शोषण होता है. निश्चित ही बच्चों  एक बड़ा वर्ग कुपोषण जैसी समस्या से ग्रस्त है. लाखों की संख्या में प्रतिवर्ष बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है. 

आज का दिन स्कूलों में बालदिवस मनाकर इतिश्री कर लेने का नहीं है, बल्कि बच्चों की इन समस्याओं के गहन विचार-विमर्श और उसके समुचित निराकरण की दिशा में पहल करने का है.  जब तक समाज का हर वर्ग बच्चों की प्रति पूरी संवेदनशीलता के साथ व्यवहार नहीं करेगा तब तक बच्चों के अधिकार मिलने की बात करना ही बेमानी है. आशा की जानी चाहिए कि आज के दिन  हम सब बच्चों को उनका अधिकार दिलाने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने की जिम्मेदारी का संकल्प लेंगे.

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2 टिप्‍पणियां:

Er. Pradeip ने कहा…

बहुत अच्छा आलेख है।
आजादी के संघर्ष का दौर वह समय था जब मानवीय मूल्य अपने शिखर को छू रहे थे। संघर्ष काल ने त्याग, जीवटता और सच्चे राष्ट्रवाद का सामाजिक ताना बाना गढ़ा। आज जैसे हर मूल्य अपने ढलान पर है। और शिक्षा भी अछूता नही रहा है। आज की शिक्षा व्यवस्था पर मुनाफा कमाने का बहुत ज्यादा दबाब है। सरकार भी शिक्षा का बजट कम करते जा रही है। पाठ्यक्रम में भी राजनीतिक दखल प्रारम्भ है। ऐसे में हमारे पास सीमित विकल्प हैं। एक जिम्मेदार नागरिक की तरह हम सबका यह दायित्व बनता है कि शिक्षा को लेकर नए प्रयोग की जिम्म्मेदारी हम सभी उठाएं। यह न केवल सत्ताधारियों को आइना दिखाने का वक्त है बल्कि देश मे नैतिकता और मानवीय मूल्यों का नया रीढ़ निर्मित करने का वक्त भी।

आपस की बात सुनें ने कहा…

बहुत-बहुत धन्यवाद प्रदीप जी.
...बच्चों के बीच घिरे रहकर, बहुत-कुछ करके भी कुछ नहीं कर पाने की पीड़ा सहना एक अलग एहसास है. एक तरफ नीतियों के द्वारा शिक्षा को लोगों की पहुँच से दूर करने का कुचक्र, अच्छी शिक्षा के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा और उतना ही सामान्य जनमानस का शिक्षा के प्रति उदासीनता हमें ऐसी स्थिति में ला खड़ा करता है, जहाँ चीजों का अभाव भी नहीं है, फिर भी शिक्षा नहीं है... क्यों ?कैसे ...समझते सब हैं पर सब समझ से परे है.

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