सादगी छोड़कर विलासिता में डूबे हैं हम।
नए नए अविष्कार करके बहुत आगे हैं हम।
वह दौर और था जब,
पीपल बरगद नीम को पूजते थे हम।
आज उनमें आरा चला रहे हैं हम।
कौन कहता है नहीं बदले हम।
वह दौर और था जब राह चलते,
दादा, चाचा, भैया बुलाते थे हम।
अब कान में ईयर फोन लगाकर।
मौन धारण कर निकलते हैं हम।
कौन कहता है नहीं बदले हम।
वह संस्कार जो हमें,
जियो और जीना सिखाते थे।
आज उनको भूल गए हैं हम।
जियो और जीने की संस्कृति भूल कर
प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं हम।
कौन कहता है नहीं बदले हैं हम।
जो वन हमारी सुरक्षा करते थे।
उन्हें काटकर सूखा, बाढ़
और महामारी झेल रहे हैं हम।
आप और हम रोज बदलते हैं।
कभी रात को कभी दिन को बदलते हैं।
कौन कहता है नहीं बदले हैं हम।
अभी रिश्ता कभी रंग बदलते हैं
कभी चेहरा तो कभी मोहरा बदलते हैं।
इस बदलाव में इतना आगे निकल गये।
प्रकृति को नथिंग ओर
आदमी को समथिंग कहने लग गये।
फिर भी प्रकृति दयालु ही रही।
अपनी गोद में बैठा ही रही।
वह बदलाव को सहती रही।
फिर भी हम बदलते रहे।
प्रकृति को छोड़ ढोग से दुनिया को लूटा।
शायद इसी कारण प्रकृति का कहर टूटा।
आज विलासिता रो रही है।
जंगली बस्तियां सुख से सो रही हैं।
ना टूटते प्रकृति के नियम।
सभी अपनाते संयम।
बने रहते सभी जीव और जंगल।
ना होता विश्व में अमंगल।
कारखानों के धुंए ने।
छिद्र किया ओजोन पर।
मानव स्वार्थी निकला।
प्रकृति ने भरोसा किया स्वयं पर।
पशु पक्षी जलचर सब सुखी हैं।
बस मानव ही सबसे दुखी है।
जो वैज्ञानिक नहीं कर सके महीनों में।
प्रकृति ने कर दिया कुछ दिनों में।
अब एक स्वर में कहना पड़ेगा।
नेचर इज समथिंग मैन इज नथिंग।
रचना: कोमल चंद कुशवाहा
शोधार्थी हिंदी
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा
मोबाइल 7610 1035 89
7 टिप्पणियां:
Good
Awesome
आधुनिकता पर करारा व्यंग है। इस रचना मे रचनाकार व्यंग करने मे सफल हुआ है।
Excited
Very nice sir
Most nice poem sir
Most nice poem sir
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