यह कविता एक व्यंग्य के रूप में है जो आज के ताजा परिदृश्य में बिल्कुल सटीक बैठती है। अगर वर्तमान परिदृश्य को देखा जाए तो यथार्थ और धरातल में उतना ही अंतर है जितना सैद्धांतिक भाग और प्रायोगिक भाग में! उम्मीद करूंगा यह कविता आप सभी को पसंद आएगी | यह कविता एक वार्तालाप के रूप में है जिसके दो पात्र हैं एक मैं और दूसरा मेरी अंतरात्मा।
मेरा सपना
नींद नहीं आ रही,
क्यों?
परेशान हूँ,
क्यों?
पता नहीं,
गर्मी होगी,
थोड़ी है,
शायद बिजली नहीं होगी,
है,
कूलर नहीं चल रहा,
चल रहा है,
फिर?
नींद नहीं आ रही
क्यों?
पता नहीं
किसी की याद आ रही होगी?
नहीं,
किसी से नाराज हो?
हाँ
किससे?
खुद से,
क्यों?
जब देखता हूँ मैं,
खुली निगाहो से सपना,
देश, भारत देश सबका हो अपना,
पर सबने
अपने अपने नजरिए से बाट लिया है इसे,
किसी ने धर्म के नाम पर,
किसी ने कर्म के नाम पर,
किसी ने क्षेत्र के नाम पर,
तो किसी ने संस्कृति के नाम पर,
तो कुंठित हो उठता हूँ
मेरा सपना टूट रहा है,
सोचने लगता हूँ
क्या मै उस धरा का वासी हूँ
जहाँ राम, रहीम हुआ करते थे
जहाँ गंगा जमुना तहज़ीब हुआ करती थी
जहाँ नानक अपना सन्देश दिया करते थे
जहाँ नारी के सम्मान के लिए,
शीश कट जाया करते थे,
पर आज तो
नारी सरे आम लूट ली जाती है
और हम भीष्म पितामह की तरह,
धृतराष्ट्र की तरह,
राजनीति में बट कर
मौन व्रत धारण कर जाते हैं
लुटती है तो लुट जाने दो द्रोपदी को,
कृष्णा ने एक बार बचा लिया द्रोपदी को,
इस नारी को कौन बचा पायेगा।
उस विश्वास का क्या?
भूखे मरते किसान का क्या?
कर्ज में डूबे खलिहान का क्या
बस सपने हैं
टूटने लगते हैं
और नींद नहीं आती है
सोचने लगता हूँ
क्या करुँ
किसी के सामने अपनी बात नहीं रख पाता
क्यों की मैं ट्रोल हो जाता हूँ.
फिर चुप हो कर सो जाता हूँ
पर नींद नहीं आती है,
नींद में फिर वही सपने दिखाई देते हैं
कभी तो पूरा होगा मेरा सपना
जब भारत देश सबका होगा अपना
रचना: शिव एफ.
शासकीय उत्कृष्ट विद्यालय कटंगी
2 टिप्पणियां:
सादर प्रणाम, नींद ना आने का कारण है, नींद शरीर को तो आ रही है, ज़मीर बेचैन है। खूसुरत कविता भी, सामग्री भी, और सब्जेक्ट भी।
Sir bhut achi kavita hai
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