प्रकृति, विज्ञान और यह
आपदा
जब से कोरोना परिवार के सदस्य कोविड 19 ने
वैश्विक महामारी का स्वरूप धारण किया है तबसे प्रकृति और विज्ञान के बारे में
लोगों की धारणा तेजी से बदल रही है। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे मनुष्य ने अपनी मानसिक क्षमता
का पूर्ण उपयोग कर लिया है और अब वह प्रकृति
के सामने समर्पण कर चुका है। किन्तु तभी उसे किसी नई संभावना का समाचार मिलता है और वह चहक
उठता है। उसे विज्ञान के भरोसे यह आशा बंधती है कि किसी न किसी तरीके वह इस आपदा
से निकल जाएगा।
हमारे चारों ओर स्थित जड़-चेतन पदार्थ और उनके संचालन के नियम सब कुछ प्रकृति है और प्रकृति के नियमों को जानना विज्ञान है। प्रकृति के इन नियमों को जानते हुए व्यवहार करना ही वैज्ञानिक विचारधारा है। प्रकृति के नियमों का उपयोग कर नई युक्तियों का निर्माण वैज्ञानिक आविष्कार है।
मनुष्य सदा से ही प्रकृति के नियमों अर्थात विज्ञान
का उपयोग करता रहा है। भले ही तब वह इसे विज्ञान नहीं कहता था। मानव सभ्यता का विकास,
वास्तव में वैज्ञानिक प्रगति का ही विकास है। अन्य जीवों की भांति पूर्व में मानव
की भी केवल मूलभूत आवश्यकताएं थी किन्तु शनैः शनैः उसकी आवश्यकताएं बढती गईं और वैज्ञानिक आविष्कार भी।
मनुष्य, वैज्ञानिक आविष्कारों के सहारे उन चीजों
का अत्यधिक दोहन करने लगा, जिनका निर्माण सदियों के स्वाभाविक विकास के फलस्वरूप हुआ है। जिनका पुनर्निर्माण मनुष्य चाहकर भी एक समय
सीमा के भीतर नहीं कर सकता जिसमें समुद्र,वन,भूमि,वन्यजीव, जल और वायु सम्मिलित
हैं। वहीं विभिन्न रोगों के कारण और उनके निदान को जानने समझने के लिए उसने जीवन के मूलकणों, मूल संरचनाओं को जानने की कोशिश की
जिसे कुछ लोगों द्वारा विज्ञान की चरम सीमा माना जाने लगा है।
वस्तुतः प्रकृति और विज्ञान अलग नहीं हैं। फर्क
बस इतना है कि मेरा शरीर प्रकृति है और मेरे शरीर के विभिन्न पहलुओं को जानना
विज्ञान है। प्रकृति में पाई जाने वाली सारी चीजें जड-चेतन और उसकी घटनाएँ
एक-दूसरे से इतनी अधिक अंतर्संबंधित हैं कि हम सभी पहलुओं को पकड़ नहीं सकते और
यहाँ तक की जान भी नहीं सकते। हम जितनी दूर तक पकड़ लेते हैं, जान लेते हैं उसे
विज्ञान का नाम देते हैं और जिसे पकड नहीं पाते, जिसका रहस्य जान नहीं पाते उसे
पराशक्तियों के प्रभाव के अधीन मान लेते हैं।
हम विज्ञान के मात्र एक पहलू पर ध्यान देते हैं। हम उन पहलुओं पर अधिक ध्यान
देते हैं जिसके तात्कालिक प्रभाव होते हैं। हम समष्टि के सन्दर्भ में
विचार करने के स्थान पर व्यष्टि के सम्बन्ध में अधिक विचार करते हैं। हम विज्ञान
के उपयोगी पहलुओं पर तो ध्यान देते हैं किन्तु उसी उपयोग से अंतर्संबंधित अन्य
पहलुओं को छोड़ देते हैं। हमारा यही दृष्टिकोण विज्ञान के नकारात्मक पक्ष के प्रभाव का कारण बनता है।
बहुधा कीटनाशक दवाइयों का छिडकाव करने वाले
किसान दुकान में सिर्फ कीटनाशक दवाईयां मांगते हैं। किन्तु उनके हानिकारक प्रभावों के बारे में नहीं पूछते। हम मोटरसाइकिल चलाते हैं। उसमें ईंधन भरवाते हैं। किक मारते हैं। गाडी स्टार्ट हो जाती है। और अधिक स्पीड से गाडी चलाने के लिए एक्सिलेतर
के हैंडल को मरोड़ते हैं। पेट्रोल डालने से
गाडी चलती है, यह नियम प्राकृतिक है। वैज्ञानिकों ने इसे बस जाना है। कैसे चलेगी इसकी युक्तियाँ खोजी हैं। हमने उन युक्तियों के सहारे अपनी दूरियों को कम किया
है। परन्तु क्या किसी रोज हमने किसी पेट्रोल टंकी
में या गाडी वाले की दुकान में यह पूछा है कि एक लीटर पेट्रोल के जलने से कितना
सीसा वायुमंडल में मिलेगा? हमने कभी नहीं
पूछा होगा। जिस प्रकार गाडी का इंजन पेट्रोल
डालने से स्टार्ट होना प्राकृतिक नियमों के अधीन है, उसी प्रकार पेट्रोल जलने से
सीसा पैदा होना, उसका वायुमंडल में फैलना और फिर सांसों के द्वारा हमारे फेफड़ों तक पहुंचना और अधिक मात्रा हो जाने पर
रोगकारक हो जाना यह भी प्राकृतिक ही है। परन्तु हमारा मस्तिष्क लाभ
के बारे में, विशेष रूप से तात्कालिक लाभ के बारे में अधिक ध्यान देता है। विज्ञान
ने सिखाया कि किस प्रकार दाब के सिद्धान्तों का प्रयोग करके नलकूपों से पानी
वायुमंडल दाब और गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध
ऊपर लाया जा सकता है। इसके पूर्व भी
मनुष्य कई युक्तियों का प्रयोग कर भूमिगत पानी को सतह पर लाता रहा है। मगर गलती कहाँ हुई? मनुष्य को यह पता है कि नलकूप खोदकर पंप के
माध्यम से पानी को ऊपर खींचकर उसका उपयोग किया जा सकता है। किन्तु क्या एक साधारण सा यह नियम उसे पता नहीं
है कि भूमिगत पानी ऊपर खींचने की मात्रा से यदि कम मात्रा में धरती में पानी
जायेगा तो अंततः एक दिन भूमिगत पानी हमारी
पहुँच से दूर हो जाएगा। और यदि ऐसा होता है
तो क्या तब हम यह कहेंगे कि प्रकृति हमसे बदला ले रही है? नहीं, प्रकृति कुछ नहीं
कर रही। हम जो एकतरफा कृत्य कर रहे हैं उसका दुष्परिणाम अवश्य सामने आना आ रहा है। इसमें न तो विज्ञान का दोष है और न ही प्रकृति
का! दोष है तो हमारी अनंत लालसाओं का!
कोरोना आपदा के सम्बन्ध में दो बातें कही जाती हैं। एक तो यह कि इसे लैब में बनाया गया। यदि कोरोना को लैब में बनाया गया तो भी यह
अप्राकृतिक नहीं है। वैज्ञानिकों ने
जीन, डीएनए, और आरएनए की संरचना और उसके नियमों को ज्ञात कर वायरस बना लिया होगा। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। किन्तु आश्चर्य की बात यह
है कि इससे फैलने वाली महामारी को प्राकृतिक कह रहे हैं और इसके बनने को अप्राकृतिक।
यहाँ भी मनुष्य ने सिर्फ एक पहलू पर ध्यान दिया। उसके बनाने पर! यह तो निश्चित है कि विभिन्न प्रकार के अत्यंत
सूक्ष्मजीव मनुष्य के शारीरिक प्रणाली पर घातक प्रभाव डालने में सक्षम हैं तो फिर
जिस वायरस को हम बना रहे हैं वह घातक प्रभाव क्यों नहीं डालेगा? यदि वह घातक
प्रभाव नहीं डालता तब हम कह सकते थे कि यह एक अप्राकृतिक कृत्य है। क्योंकि
प्राकृतिक नियमों के अनुसार जो प्रभाव या जो गुणधर्म उसे प्रकट करने चाहिए वह तो
प्रकट होना ही है। इस रूप में इस महाविनाश का कारण प्रकृति और विज्ञान नहीं बल्कि
उसे बनाये जाने की पीछे की राजनीतिक मंशा है। यदि यह बनाया गया तो इसके पीछे
राजनीतिक इच्छा शक्ति अवश्य रही होगी। अतः विज्ञान ने नहीं बल्कि राजनीतिक दुस्साहस ने
सारे संसार को संकट में डाला है।
अब दूसरी स्थिति पर विचार करते हैं। यदि यह
वायरस किसी अन्य जीव से मनुष्य में आया तब की स्थिति में प्रकृति के इस नियम का
उपयोग किया गया कि मांसभक्षण से पेट की
क्षुधा मिटाई जा सकती है। प्रकृति
के नियम के अनुसार जो ऊर्जा उस पक्षी के मांस में रही होगी वह मांसभक्षण करने वाले
को प्राप्त हुई। किन्तु उसके दूसरे पहलू के बारे में
बिलकुल विचार नहीं किया गया।
प्रत्येक जीवित शरीर कई सूक्ष्मजीवों का आवास
होता है। दो जीवों का सम्बन्ध सहजीवी, परजीवी
या सहपरजीवी आदि स्वरुप का कुछ भी हो सकता है। प्राकृतिक समझौता उन दो जीवों के मध्य लम्बे समय
के विकास के परिणाम स्वरूप विकसित हुआ है। जब मांसभक्षण करते हैं तब उसके शरीर में स्थायी
रूप से या अस्थायी रूप से रहने वाले जीव का हमारे शरीर के साथ कैसा सम्बन्ध होगा, इसे नहीं जानते। हमारा शरीर उस जीव या अणु के साथ कैसी
प्रतिक्रिया करेगा, यह भी नहीं जानते। अब जो परिणाम सामने आ रहे हैं वह प्राकृतिक
नियमों के अनुरूप भी हैं और वैज्ञानिक भी। अतः इस आपदा की पीछे प्रकृति की कोई सोच निहित
है या कोई प्राकृतिक शक्ति सोच-समझकर नियंत्रित कर रही है, ऐसा सोचना सही नहीं है। हाँ, यह अवश्य है कि प्रकृति की एक घटना, एक
नियम प्रकृति के अगणित नियमों के साथ इतनी अधिक अंतर्संबंधित है कि उसके ओर-छोर का
पता लगाना मुश्किल ही नहीं असंभव-सा है। इसलिए अपनी भूल का प्रायश्चित करने के
स्थान पर प्रकृति पर दोष मढना सही नहीं है।
एक प्रश्न मन में उभरना स्वाभाविक है कि
प्रत्येक आपदा के पीछे मानवीय भूल नहीं होती? फिर ऐसी आपदाएं क्यों आती हैं? इस
प्रश्न के साथ मनुष्य यह भूल जाता है कि पृथ्वी में प्राकृतिक तौर पर पाए जाने
वाले अन्य जीवों का भी अस्तित्व है जो आज से नहीं सर्वदा से है। हो सकता है मनुष्य
उन्हीं जीवों का कोई बड़ा रूपांतरण हो। इन जीवों के मध्य संघर्ष भी पुराना ही है।
जब तक पृथ्वी पर जीवों का अस्तित्व रहेगा, यह संघर्ष जारी रहेगा। यदि यह कहें के
मानव प्रकृति से संघर्ष करता है और विजयी होता है, यह पूर्ण सत्य नहीं है। चूंकि
मानव के पास एक विकसित सोच है इसलिए हम ऐसे वाक्यों का प्रयोग करते हैं कि मानव
लड़ता है। चूंकि मानव भी प्राकृतिक अवयव है अतः इनसे लड़ने और जीतने का प्राकृतिक
गुण मानव में भी विद्यमान है। वास्तव में प्रकृति ही प्रकृति से लडती है। मानव
विज्ञान की युक्तियों से यह अवश्य जानने की कोशिश करता है कि यह प्रकृति काम कैसे
करती है। और फिर वह उसका उपयोग अपने बचाव में करता है। किन्तु अन्य जीव बिना उन
युक्तियों के संघर्ष करते हैं जो मानव सभ्यता के साथ-साथ आज भी जीवित हैं।
विज्ञान जानने का उपक्रम है। यदि प्रकृति को जान
पाएंगे, समझ पायेंगे तो बेहतर तरीके से बचाव कर पायेंगे। किन्तु हर बार और प्रकृति
के हर रहस्य को मानव समझ ही ले, यह जरूरी नहीं है। यह निर्भर करता है कि मानव
प्रकृति को समझने लायक कितनी युक्तियों का उपयोग अब तक कर सका है और वे युक्तियाँ कितनी कारगर रही हैं। हम मानव सभ्यता के इस मोड़ पर आकर खड़े हैं
कि विज्ञान से भागकर अपनी प्राण रक्षा तक नहीं कर सकते। विज्ञान प्रकृति के अनुभवों का सार है। प्रकृति के इन अनुभवों का लाभ जीवन
को सरल और सुरक्षित बनाने के लिए करें। इंसानी लालसा के
दुष्प्रभावों के कारण विज्ञान को न तो कलंकित करने की आवश्यकता है और न ही उससे मुंह चुराने की। जरूरत है तो प्रकृति के अंतर्संबंधित नियमों को
जानने की और उसके सभी पहलुओं के बारे में चिंतन करने की। प्रकृति के नियमों को जानकर अर्थात विज्ञान
से एक लाभ तो ले सकते हैं किन्तु तभी आपको उसके उपयोग से उत्पन्न दूसरी परिस्थितियों
को भी जानना और मानना पड़ेगा जो पहली परिस्थितियों से ही अंतर्संबंधित हैं।
आलेख: सुरेन्द्र कुमार पटेल
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