बुधवार, अप्रैल 15, 2020

नारी उत्थान में डॉ भीमराव अम्बेडकर के विचार एवं संवैधानिक अधिकार


नारी वह पहलू है जिसके  बिना किसी समाज की  रचना संभव नहीं  है ; समाज में  नारी एक  सृजन है; रचनाकार है  | भारतीय समाज  में  नारी  को  सुख शान्ति ;समृद्धि व ज्ञान  का  प्रतीक माना गया  है | डॉ अम्बेडकर  जी  नारी उत्थान  की  दृष्टि  से  स्वतन्त्रता प्राप्ति के   पश्चात  सर्वाधिक प्रभावशाली  विचारक  रहे  हैं | स्वतन्त्रता  पूर्व  भारत  के  स्त्रियों की  दारुण  दशा  को  देखकर बाबा  साहब  अम्बेडकर  के मन में अत्यंत पीड़ा होती  थी  | समाज को  सशक्त एवं  समृद्ध  बनाने  के  लिए  उन्होंने  नारी  का सम्मान  करके विनम्र  व्यवहार को  यथेष्ट  स्थान दिया  है  | नारी - पुरुष   की  समानता; समान  अवसर  ; आत्मनिर्भरता  एवं  आर्थिक  स्वावलम्बन  के  अभाव में  नारी  अपने  ही  परिवार  में  शोषित होती रहती  है  और  अपने  बुनियादी  अधिकारों  से  बंचित  रहती  है।
              नारी  उत्थान  का  अर्थ  है  - एक  नारी  को अपने  जीवन  से  जुड़े  हुए  निर्णयों को  लेने  की  स्वतन्त्रता  और  अधिकार  सम्पन्न  होना । यह  निर्णय  उसके  व्यक्तिगत व  पारिवारिक  जीवन  से जुड़े हुए  है  जैसे  - शिक्षा,  रोजगार  ;विवाह; बच्चे   व  परिवार  नियोजन ; घरेलु  कार्य  आदि हो सकते हैं। शिक्षा  के  द्वारा सामाजिक  व्यवस्था  की  जड़ो  में जाकर  उसमें  निहित  गड़बड़ी  को दूर किया  जा  सकता है। शिक्षित  नारी ही  दहेज़; यौन शोषण ; घरेलु  हिंसा ; कन्या भ्रूण हत्या आदि  समस्याओ  से  मुकावला करने में  सक्षम हो  सकती  है।
          
         भारत के  प्रथम  कानून मंत्री डॉ भीम राव अम्बेडकर जी  ने  "नारी  उत्थान" के लिए  महत्वपूर्ण  पक्ष  - विवाह की आयु   बढ़ाने; विवाह  विच्छेद ; विवाह की  मान्यता ; पैतृक संपत्ति  पर  अधिकार ; भरणपोषण; स्त्री शिक्षा; राजनैतिक हिस्सेदारी  आदि  रखे थे परन्तु विधेयक जस  का तस  पारित नहीं  हो  सका। भारत  के  संविधान में  महिलाओं   को  समाज  की  महत्वपूर्ण इकाई  माना  गया  है और  इन्हे  नागरिकता ; वयस्क मताधिकार  एवं  पुरुषों के  समान अधिकार  प्रदान  किया  गया  है ।
          बाबा साहब  कहते थे कि ‘मैं किसी समाज की तरक्की इस बात से देखता हूं कि उस समाज की महिलाओं ने कितनी तरक्की की है।’ दुनिया में यदि नारी सशक्तिकरण के अथाह प्रयास किसी ने किया तो यकीनन वह नाम डॉ अंबेडकर जी  के   है। मातृत्व अवकाश जैसा अत्याधुनिक विचार ही 1950 के दशक में प्रतिनिधित्व व मताधिकार का मामला हो या फिर 1960 के दशक में संपत्ति, तलाक तथा लैंगिक समानता की गारंटी जैसे अधिकार हों। 

20वीं शताब्दी में बाबा साहब ने जिस पितृसत्ता को खुली चुनौती दी थी उसका नमूना इस बात से समझना है कि आज़ादी से पहले महिलाओं में केवल राजाओं की रानियों तथा कुछ विशिष्ट वर्ग की महिलाओं को कानूनन वोट देने के अधिकार था। आजादी के बाद जब देश में प्रथम निर्वाचन हेतु वोटर लिस्ट तैयार हो रही थी तब शुरुआती दौर में आधी आबादी कही जाने वाली महिलाओं में केवल 13 प्रतिशत महिलाओं का नाम ही जुड़ सका क्योंकि महिलाएँ पितृसत्तात्मक समाज के चलते अपने पति का नाम तक बताने में असमर्थ थी।

बाबा साहेब लिखते हैं इस कार्य को अंजाम देने में कई दौर तथा जागरूकता अभियान चलाए गए फिर भी वास्तविक परिणाम हासिल नहीं हो सका। इसके पीछे केवल शिक्षा व सोच ही कारण नहीं थे बल्कि सामाजिक, धार्मिक दबाव भी बड़ी वजह थी। इन्ही तमाम कारणों के चलते हिन्दू कोड बिल अस्तित्व में आया और जिसके विरोध तथा असफलता के चलते बाबा साहेब ने सरकार से त्याग पत्र दे दिया।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं। ब्लॉगर टीम का सहमत होना आवश्यक नहीं है)
आलेख:डी.ए.प्रकाश खाण्डे (माध्यमिक शिक्षक )
शासकीय कन्या शिक्षा परिसर पुष्पराजगढ़, जिला -अनूपपुर मध्यप्रदेश
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