सोमवार, सितंबर 30, 2019

दो कविताएँ:रमेश प्रसाद

दो कविताएँ
रमेश प्रसाद पटेल  
1. सरस्वती वंदना

हे माँ सरस्वती, हमें शक्ति दे।
हे वीणावादिनी, हमें रोशनी दे।

अज्ञान हमारे हृदय से दूर हो।
ज्ञान-गंगा छलकता कलश हो।
माँ निर्मल विचारों की दृष्टि दे
हे वीणावादिनी, हमें रोशनी दे।

मातापिता की सेवा में ध्यान हो,
भारत माता के गीतों का गान हो,
सत पथ में अड़ जाने की मति दे,
हे वीणावादिनी, हमें रोशनी दे।

दीन-दुखियों की सेवा में रत हों,
दूसरों की भलाई में निरत हों,
सदाचार, उपकार, संयम का वर दे,
हे वीणावादिनी, हमें रोशनी दे।

शब्द मुख से सदा उच्चरित हो,
सुन सब जन, सदा प्रमुदित हों,
विद्या का ऐसा, वर माँ हमें दे,
हे वीणावादिनी, हमें रोशनी दे।

2. बनावटी श्रृंगार

श्रृंगार बना तुम पथ से, कभी विचलित न होना, 
यह है बनावटी, तुम अपना  पथ भुला न देना

हथियार बनते वहाँ युद्ध करने की होती लालसा, 
सही पथ अपनाने से टल जाता भयानक हादसा

श्रृंगार वीर तुम अपने पथ से भ्रमित न होना,
यह है बनावटी, तुम अपना  पथ भुला न देना

बाजार में व्याप्त श्रंगार के साधन जो नकली, 
सजग रहना सदा, तन में घात करते असली

इन बनावटी प्रसाधनों से तुम सावधान रहना,
यह है बनावटी, तुम अपना  पथ भुला न देना
  
काम,क्रोध, मोह, लालच जिसके हृदय में होते, 
संयम, सदाचार, उपकार इनसे कोसों दूर होते

आत्मविश्वास सुदृढ़ तुम बनाये रखना, 
यह है बनावटी तुम अपना पथ भुला न देना

संयम, सदाचार, उपकार मानव का श्रेष्ठ श्रृंगार है, 
ध्रुव, प्रहलाद, अनुसुइयाँ की गाथाएं जीवन आधार हैं

तजकर कृत्रिम श्रृंगार सतपथ पर चलना, 
यह है बनावटी, तुम अपना पथ भुला न देना
  
श्रृंगार बना तुम पथ से, कभी विचलित न होना 
यह है बनावटी, तुम अपना  पथ भुला न देना
रचना: रमेश प्रसाद पटेल, माध्यमिक शिक्षक 
पी.एच-डी (शोध-अध्ययनरत)
पुरैना, ब्योहारी जिला शहडोल (मध्यप्रदेश)
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें, देखें नियमावली ]

रविवार, सितंबर 29, 2019

नवरात्र:सतीश कुमार की कविता


नवरात्र
सतीश कुमार सोनी


रंगीन, रंगीन यह नवरात्र की बेला,
जिस पर ना होगा कोई अकेला।
सब मस्ती में रम जाएंगे,
और जमकर नाचेंगे अब शैला।।

होगी भक्ति बड़ी निराली,
जैसे हो नवरात्र दिवाली।
झूम झूम कर गाएंगे अब,
मैया के रंग रंगजाएंगे सब।
जैसे नाची मैया काली,
आने वाली है खुशहाली।।

सब मिलकर नवरात्र मनाएंगे,
हर जगह खुशी रंग फैलाएंगे।
माता रानी को  हर्षाएंगे,
और इन दीपों की होड़ में,
एक दीप अमन सुख शांति का भी जलाएंगे।।

रचनाकार: सतीश कुमार सोनी
जैतहरी जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश

[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें, देखें नियमावली ]

बड़का बाँध

बड़का बाँध:
श्यामू फफक-फफक रो रहा है। उसे  सारा संसार असार मालूम पड़ता है। छाती में असह्य शूल उठता  है। एक हाथ माथे पर है और दूसरा छाती को सम्हाले है। वह सोचता है उघरे बदन पर आज गाज ही क्यों नहीं गिर गया, कम से कम यह शूल तो नहीं सहना पड़ता। यह धरती फट जाती तो वह इसमें समा जाता। वह  जब दहाड़ मारकर रोता है तो  आँँसुओं की धार बह निकलती  है फिर वह खुद ही आँँसुओं की धार को पोछ लेता है। जिधर नजर दौड़ाता है वही काट खाने को दौड़ रहा है। अभी-अभी चिता को मुखाग्नि देकर सब कुछ खोने के बाद भी उसे  लग रहा है कि कुछ ऐसा हो जाएगा जिससे उसका बेेटा उसके सामने खड़ा हो जाएगा। उसके कान सड़क की ओर तक रहे हैं कि हमेशा की तरह उसके बेटे के आने की पदचाप उसे सुनाई दे देगी। लेकिन विधाता तो अपना खेल खेल चुका था। जो कुछ सहना है अब उसे ही सहना है। बराबर का बेटा  इस दुनिया में नहीं रहा।

उधर बूढ़ी माॅं का रो-रोकर  बुरा हाल  है। क्या यही दिन देखने के लिए वह जीवित रही। इस जीवन में न जाने कितनी बार वह  बीमार पड़ी। भगवान ने तभी उसको क्यों नहीं पूछ लिया। अब तो शरीर में इतनी जी भी नहीं रही कि वह दहाड़ मारकर रो सके। जिधर नजर दौड़ाती उसे अपना बेटा खड़ा दिखाई देता, परन्तु वह नहीं होता। उसकी आँखें हर कोने की तरफ देखती  जिधर कभी उसका बेेटा था। उस चारपाई को देखती जिसमें वह  हर रोज बैठकर  जूते का फीता बांधता और चलते वक्त कहता, ‘‘अम्माॅं जाता हूँ ।’’ उसके पीछे-पीछे अम्माॅं भी चली जाती और जहाॅं तक वह दिखाई देता देखती रहती और  यह कहना नहीं भूलती, ‘‘बेटा, गाड़ी ठीक से चलाना।’’  हर रोज की तरह उसने उस रोज भी दुआ की थी कि बेटा सही वक्त पर घर लौट आए। परन्तु आज वह नहीं लौटा" 

श्याम किशोर को लोग श्यामू कहा करते थे। श्यामू एक गरीब किसान था। कहने को वह खेती करता परन्तु केवल खेती के भरोसे सालभर का गुजारा नहीं चलता। तीन-चार बेटियों का ब्याह वह खेती के भरोसे नहीं कर लिया। वह गाड़ी चलाना नहीं सीखा होता तो निरा मजदूरी करनी पड़ती। खेती के टाइम पर खेती करा देता, बचे हुए समय में मालिक की गाड़ी चला लेता जिससे हुई आमदनी से घर खर्चा चल जाता। बेटियों का ब्याह बहुत अच्छे घर में तो नहीं कर सका परन्तु किसी लोक-लाज का सामना नहीं करना पड़ा, यही उसके लिए सबसे बड़ी बात थी। संतान के रूप में यह बेटा आखिरी था। वह यह  क्या जानता था कि जिस मोटरगाड़ी के काम ने उसके  जीवन को सहारा दिया उसी  मोटरगाड़ी का  काम उसके बेटे की जीवनलीला समाप्त कर देगा।

चारों तरफ सिर्फ विलखने की ही आवाज  है। उसकी तीनों लड़कियाँ भी आई हुई हैं। तीनों दहाड़ मारकर रो रही हैं। आज के बाद वह किसकी कलाई पर राखी बाँधेंगी। किसको भाई कहकर बुलाएंगी। सभी की आत्मा चीख-चीखकर बस यही कह रही हैं  कि उनमें  से कोई क्यों नहीं मर गया। किसी के पैरों में जान नहीं है। पग भर भी चलने की हिम्मत नहीं  है।रो-रोकर सब अधमरी हो चुकी हैं। घर के पिछवाड़े बाप दहाड़ मारकर रो रहा है। घर की परछी में ये चारों दहाड़ मारकर रो रही हैं। 
...और इधर बिरादरी के लोग जमा हैं। घर के सामने चुरुल का एक वृक्ष है। उसी की छांव में सब बैठे हैं। दुर्घटना कैसे हुई? इसी का पोस्टमार्टम चल रहा है। कोई बूढ़े को कोस रहा है। कोई समय को। क्या जरूरत थी, लड़के को ड्राइवरी लाइन में भेजने की। अपना गया इस लाइन में तो गया, बेटे को तो नहीं भेजता। कुछ गरीबी को कोसते। क्या करता बेचारा। उसे जो सरल लगा, उसने वही किया। इसमें उसका क्या दोष? इतनी गाड़ियां चलती हैं। इतने लोग ड्राइवरी करते हैं। सबके साथ तो दुर्घटना नहीं हो जाती। उसका समय ही खराब था।
इतने में बातचीत को चीरते हुए एक वृद्ध ने  सवाल किया-
''आश-बुलौवा हुआ कि नहीं?'' 
परंतु किसी ने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर के लिए वृद्ध भी चुप रहा। आज दुःख की बात थी, इसलिए वह जोर नहीं दे सकता था। 
" कौन कहे, वह तो दहाड़ मारकर रो रहा है।"
एक अधेड़ ने वृद्ध के सवाल पर एक और सवाल किया।
"कोई कहे भी तो कैसे? पता भी तो हो कि भीतर इन्तजाम ठीक है कि नहीं।" दूसरे अधेड़ ने वृद्ध की तरफ देखकर कहा। वृद्ध चुप ही रहा। अनुभव इसी को कहते हैं। वृद्ध उस बूढ़े के साथ घटित हृदय विदारक घटना के दुःख की मात्रा जानता था। वह बात शुरू करे तो कैसे करे,इसी उधेड़बुन में वह चुप था।...लेकिन चुप रहने से काम बनने वाला नहीं था। श्यामू के  बड़े दामाद का  बुलावा हुआ।
"बेटा, जो होना था, सो तो हो गया। अब गया, वापस नहीं लौटेगा।...देर ज्यादा हो रही है। बिरादरी के लोगों का आश-बुलौवा हो जाता तो महिलाएं खाना-पीना बनाने में लग जातीं।" 
वृद्ध ने  समझाइश दी।
बड़े दामाद की आंखों से अश्रुधार बह निकली। कुछ जवाब न दिया। ...अश्रुधार पोछने लगा तो रुंधा गला अचानक फट गया. दहाड़ मारकर रोने लगा," मैं कैसे कहूँ, मेरा तो सब कुछ लुट गया। इस घर में आने का मेरा सहारा उठ गया।
कुछ देर तक सिर्फ बड़े दामाद के विलखने की आवाज सुनाई दी।

"जाओ बेटा, ससुर जी को कहो. बिरादरी में आश-बुलौवा कह दें. उसका इस संसार में इतना दिन ही लिखा था लेकिन कम से कम उसका परलोक तो न बिगड़े."  वृद्ध ने जोर देकर कहा.
"हाँ, भाई। इस संसार में जिसके साथ जो कुछ होता है उसी को सहन करना पड़ता है, परन्तु जो लोकाचार है वह तो करना ही पड़ता है। ज्यादा देर न करें। आश-बुलौवा कह दें।"
उस वृद्ध से कम उम्र के आदमी ने समर्थन किया।

बड़े दामाद जी को भीतर की हालत मालूम थी लेकिन पहल उसे ही  करनी होगी. बड़े दामाद ने जिम्मेदारी पूरी की. वह ससुर साहब के सामने जाकर सिर झुकाकर  खड़ा हो गया।

जिम्मेदारी इंसान को समझदार बना देती है। वह श्यामू के पास जाकर वृद्ध का सन्देश कहने की हिम्मत जुटा रहा था। श्यामू के पास पहुंचा तो श्यामू और दहाड़ मारकर रोने लगा।  बड़े दामाद ने सांत्वना देते हुए धीरे से कहा-“ पिताजी, वो बिरादरी को खाने के लिए आश-बुलौवा कह देते तो ठीक था महिलाएं खाना बनाने में लग जाती। काफी देर हो चुकी है

“दामादजी,अपनी  सासू से पूछ लो भीतर की हालत वही जानती होगी’’

दामाद ने भीतर का जायजा लिया। सब्जियाँ घर में बीते सप्ताह से ही नहीं थीं इस साल खेत में दाल की उपज भी नहीं हुयी थी। बीच-बीच में बेटा  खरीदकर ले आता था जिससे काम चलता थाआटा भी न के बराबर था। भोजन सामग्री के नाम पर था तो मात्र चावल वह भी आज को तो हो जाए लेकिन अगले दिन के कर्म के लिए नहीं होगा। बिना आटे के तो आज काम चल जाएगा परन्तु दाल और सब्जी तो चाहिए ही फिर तेरहवीं  तक चार आदमी बने ही रहेंगे उतने दिनों का इंतजाम करना  पड़ेगा एक दिन के अंतर में हाड़-फूल ले जाने का भी इंतजाम करना पड़ेगा पैसों का जायजा लिया तो पता लगा बीते महीने तक का पगार सेठ दे चुका है बाकी है तो केवल इस महीने का। लेकिन घर में जमा पूँजी कुछ नहीं है घर में जमा पूंजी के नाम पर उसी के जेब से निकले 100-100 के दो नोट थे 

दामाद ने अपना जेब टटोलकर देखा 50-50 के दो नोट थे इतने से कुछ नहीं होने वाला। 

श्यामू को कुछ बताता उसके पहले ही श्यामू, दामाद के चेहरे से अपने घर की हालत भाँप गयाबराबर का बेटा मरा है उसके इस दुःख की तुलना  संसार के किसी दुःख से नहीं की जा सकतीपरन्तु रिवाजों को किसी दुख से कोई लेना-देना नहीं है उसे तो  निभाना ही पड़ेगा। मृत पुत्र के दहाड़ मारकर रोते बाप का विलखना सिसकियों में बदल गया

बेटे ने जबसे गृहस्थी सम्हाली थी, तबसे श्यामू घर-गृहस्थी की एक बात नहीं जानता वही बेटा  जो ले आता उससे घर चलता था। फिर आज तो पहला दिन है। तेरहवीं तक का इंतजाम करना होगा घर में खाने के नाम पर चावल के सिवा कुछ नहीं था फिर चावलभर  से क्या होता है दोना-पत्तल भी चाहिए ब्राह्मण भोज और महापात्र भोज के लिए भी सामग्री चाहिए कम से कम एक साल की खानगी तो महापात्र को देनी होगी तमाम खर्चों का लेखा-जोखा 50 हजार से कम नहीं बैठता था। 50 हजार तो फिर भी बड़ी रकम थी 5 हजार भी होता तो भी इस बूढ़े के लिए इस जन्म में कमाकर इतनी बड़ी धनराशि जुटा पाना संभव नहीं था फिर अभी एक साल पहले हुए  बेटी  की शादी का कितनों ही दुकानों में रकम जमा करना बाकी है बेटे ने जिम्मेदारी ले ली थी इसीलिये सेठ-साहूकार कुछ नहीं बोलते थे वह जानते थे सूद जमा जरने की पूंजी बूढ़े के पास है...लेकिन उसके इस पूंजी के डूबने के चार दिन बाद ही सेठ-साहूकार घर गेरने लगेंगे वह किस-किसको जवाब देगा 

बिरादरी की जो महिलाएं घाट से सीधे उसके घर आ गयीं थीं, वह अब अपने घरों की ओर  जाने के लिए फुसफुसाने लगीं आखिर बेचारी क्या करतीं, उन्हें अभी तक आश-बुलौवा भी नहीं हुआ था कि सीधे-सीधे उसके किचन में घुस जाएँ और काम में लग जाएँ श्यामू  यह सब देख और सुन रहा थातभी एक वृद्ध ने आवाज दी
“श्यामू! यह  महिलाएं अपने घर जा रही हैं अपने-अपने घर में चूल्हा चौका करने लगीं तो तुम्हारे घर में चूल्हा नहीं जलेगा आश-बुलौवा कर दो तो काम में लग जाएँ

समय कितना निष्ठुर होता है, आज किस हिम्मत से उसके मुंह में कौर जायेगा, फिर भी बिरादरी के लिए उसे वह सब करना पड़ेगा जो लोग आज  तक करते चले आयें हैं
श्यामू ने वृद्ध को संबोधित किया-
“काकू! रमा प्रसाद के सहयोग के बिना कर्म न होगा
“क्या? आज का भी न होगा?”
“चावल तो हो जाए, पर दाल-सब्जी की व्यवस्था न होगी फिर आगे भी तो पैसे ही लगने है
“तो वह क्या उधार देगा?”
“वह उधार क्यों देगा? बड़का बांध बेचूंगा!” 
श्यामू के मन में उपाय कौंधा  श्यामू के पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था
बड़का बाँध श्यामू की पैतृक जमीन है एक मात्र ऐसी जमीन जिस पर धान की खेती होती है जिसके भरोसे सालभर खाने को चावल हो जाता है। रमा प्रसाद की नजर हमेशा से उस खेत पर थी । वह काफी दिनों से इस प्रयास में था कि वह खेत उसे मिल जाए बडका बाँध, केवल कहने को बड़का बाँध नहीं है, उसमें  बडप्पन भी है थोड़ी भी बारिश जो जाए तो उसमें धान की इतनी फसल तो हो ही जाती कि चावल के लिए परिवार को मोहताज न होना पड़ता

रमा प्रसाद  की तो जैसे बांछे खिल गयी रमा प्रसाद कोई गैर न था, परन्तु जमीन बनाने के मामले में वह एक नंबर का धूर्त और कपटी था श्यामू की गरज भांपकर बोला- “इस समय मेरा भी वक़्त अच्छा  नहीं चल रहा काकू चाहें तो किसी और से सौदा कर ले। जब बेटी की शादी की थी तभी दे दिए होते तो ले भी लेता और तब शायद आज ऐसा दिन भी न देखना  पड़ता। कर्ज उतारने में ही बेटे को अपने प्राण गंवाने पड़े।"

श्यामू  के हृदय में जो शूल उठा, उसे उसने आज के पहले कभी महसूस नहीं किया था रमाप्रसाद पहले भी बड़का बाँध का मोल-भाव कर चुका था पर काकी (श्यामू की पत्नी) ने भांजी मार दी थी। बड़का बाँध बेचने न दिया। वह कहती भगवान की दया से बराबर  का लड़का है कर्जा तो फिर भी एक न एक दिन छूट जायेगा परन्तु जमीन बनाये न बनेगी उसी ने बड़का बाँध बेचने न दिया था पर आज वह क्या कहेगी? आज जो कर्जा चढ़ेगा उसे कौन चुकता करेगा, और मरने के दिन आए बूढ़े-बुढ़ियों पर किस मुंह से कोई भरोसा करेगा?

शादी-विवाह ख़ुशी का काम है उसमें जितना खर्चा करना हो, करो न करना हो तो मना करा दोलोग चार बात कहेंगे पर लांछन न लगायेंगे परन्तु, मरनी के क्रियाकर्म में वैसी बात नहीं होती। दूसरे न भी कहें तो परलोक के डर से  सब करना पड़ता है  श्यामू मन ही मन सोच रहा था कि  रमा प्रसाद ने एक ताना और जड़ दिया,
“काकू, काकी से पहले ही पूछ लेना मोलभाव के बाद मुकरना ठीक नहीं रहता
“रमा प्रसाद! काकी अब किसके भरोसे मना करेगी ?मोलभाव कर लो मुझे तो पिछला मोलभाव मंजूर है
“काकू, मैं आज उस कीमत पर लेने से रहा मेरे सिर भी कर्जा कम नहीं है उसके आधे दाम पर बात बनती हो तो बताओ। मेरी गरज नहीं पड़ी है बाँध लेने की
श्यामू दांत पीसकर रह गया। उसे यह बाँध हिस्से में ऐसे ही नहीं मिला  था निरा बगार मिला थापरन्तु एक-एक जून का अपने बाल-बच्चों का पेट काटकर उसने जो बचत की थी, उसी से मेड डलवाया था तब जाकर कहीं वह बड़का बाँध बना था। वह उस बाँध से उतना ही प्रेम करता था जितना अपने बेटे से। उसका बेटा उसके बुढ़ापे का सहारा था तो यह बड़का बाँध भी उसका कमाऊ बेटा ही था। इसी के चलते उसके परिवार को कभी भूखे पेट नहीं सोना पड़ा। आज उसके एक नहीं दो-दो बेटे उसके हाथ से निकल गए पर वह क्या कर सकता था ज्यादा मोल-भाव का वक़्त नहीं था। बेटा जीवित होता तो उसे आज यह दिन न देखना पड़ता। 

चार जनों के बीच बात हो गयी परन्तु रमा प्रसाद कहा सुनी को  नहीं मानता उसने पिछले मोलभाव का हवाला दिया कौन कब पलट जाए, आजकल भरोसा नहीं। श्यामू के नाम का स्टाम्प पेपर आया घर-बिरादरी के चार लोग जमा हुए, कुछ श्यामू के तरफ से गवाह हुए कुछ रामप्रसाद की तरफ से स्टाम्प पेपर में श्यामू के अंगूठे के निशान ले लिए गये

दामाद बाबू के   भी संकट दूर हो गये । दामाद बाबू बाजार से सामान लाने चले गये बिरादरी के ही एक वृद्ध को आश-बुलौवा की जिम्मेदारी सौंप दी गयी। बिरादरी की अपने  घर गई महिलाएं नए कपड़ों में फिर उसी आँगन में भोज तैयार करने पहुँच गयीं रमा प्रसाद की पत्नी कुछ अधिक ही सजी-धजी रही उसके घर में जैसे उत्सव छा गया हो एक साल पहले वही बाँध लेते तो आज से दोगुनी कीमत में मिलता  आज आधी कीमत में मिल गया ऊपर से औरतों के बीच इस बात का एहसान जताने का मौका भी मिल गया कि उसके आदमी ने आज ऐन वक़्त पर बड़का बाँध खरीद न लिया होता तो श्यामू के  बेटे का कर्म नहीं होता श्यामू के सिर कलंक रह जाता 

भोज में किसी किस्म की कोई कमी न रही जहाँ चार सौ पत्तलों की जरूरत थी, वहां पांच सौ पत्तल लाए गये एकाध सब्जी से भी काम चल जाता परन्तु दो-तीन सब्जी और दाल बनवाई गईभोज में सभी आए।  न आते तो मृतक का परलोक बिगड़ जाता मृतक का कर्म है सो खाने जायेंगे, ख़ुशी का होता तो चाहे न जाते तेरहवीं तक घर में लोगों का ताँता लगा रहा खूब दान-पुन्य किये गये बाम्हनों को भी खूब खिलाया गया महापात्र को साल भरका राशन दिया गया और वो सब बर्तन दिए गये जिसका उपयोग जीते जी श्यामू का  बेटा करता

समाज के लोग आते उसके दुःख में शामिल होते वह हाथ जोडकर अभिवादन करता। सभी को पता था कि उसका एक बेटा मरा है। उसने एक ही चिता को मुखाग्नि दी है। परन्तु  जिन हाथों से उसने अपने बेटे की चिता को मुखाग्नि दी थी उसी हाथ में बड़का बाँध को बेचने के लिए स्टाम्प में लगाये गये अंगूठे के स्याही के निशान भी थे। वह निशान चीख-चीखकर  कह रहे थे कि  यह कर्म उसके एक नहीं दो-दो बेटों का है! परन्तु शायद ही किसी ने उनकी यह बात सुनी हो!
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल 
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें, देखें नियमावली ]

शनिवार, सितंबर 28, 2019

जीत का संघर्ष जीवन है:इंजी.प्रदीप पटेल

जीत का संघर्ष जीवन है

इंजी. प्रदीप पटेल 
अंधेरा है, अंधेरा है चिल्लाना जीवन नहीं है,
खुद बाती बनकर जलना जीवन है।

दूसरों को आदर्श बताना जीवन नहीं है,
जिन्हें हम दूसरों को बताते हैं उन आदर्शों को स्वयं जीना जीवन है ।

हार जीवन नही है,जीत जीवन नहीं है
जीत का संघर्ष जीवन है।

उंगली उठाकर मार्ग बताना जीवन नहीं है,
स्वयं मार्ग पर चलना और नए मार्ग बनाना जीवन है।

दुनिया को बदल देना, संसार को बदल देना

औरों में बदलाव लाना जीवन नहीं है।
स्वयं में बदलाव लाना जीवन है।

अपने विचारों को लेकर,
अपने कर्म और पुरुषार्थ  पर
अकेले रह जाओ तब भी,
संघर्ष करना, खड़े रहना, डटे रहना जीवन है।

रचनाकार:इंजी. प्रदीप पटेल

[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें, देखें नियमावली ]

शुक्रवार, सितंबर 27, 2019

हर रोज एक जंग

हर रोज एक जंग
जब टूटकर मैं बिखर गया,
लोगों ने कहा तू निखर गया

लड़ रहा अपने आप से ही

सोचता हूँ मैं गलत तो नहीं

मैं नहीं था तो था क्या

अब मैं हूँ तो क्या हो गया नया

मेरे होने का आशय ढूँढता हूँ हर कहीं
मेरा होना कहीं यूं ही तो नहीं

पग-पग चलूँ

वसुंधरा  नाप लूँ

ये क्षितिज भी न दूर हो

आसमां मुझसे मजबूर हो

आसमान को चीरकर उडूँ

पाषाण को पानी कर मुडूँ

सूरज को रोशनी दूँ

शीतल हिमालय को करूँ

मौन भी बोल पड़े

संयम जब अधैर्य से लडे

मन में फूटे थे  संकल्प ऐसे

करील वन में फूटता हो जैसे

इस संसार में अकेला मैं ही तो नहीं

होते हैं अनेक जन जाता हूँ जहाँ कहीं

सीख अपनी जब वे  देने लगे,

प्रेमरस में अपने जब वे भिगोने लगे

अब पहचानूं कैसे रंग अपना

संसार यह सच है, या है सपना

जब नाम हो गया गुमनाम अपना

देने लगा उसे पहचान अपना

अब खुद को पहचानता कहाँ  हूँ

इसकी वजह से या उसकी वजह से हूँ, जहाँ हूँ

मैं था अकेला, मुझे बनना था जो था मैं

कौन  कहेगा कि मैं वो हूँ जो था मैं

खुद के साथ चलना, और चलना इनके साथ भी

रहना होता है खुद के साथ और इनके साथ भी

हर रोज एक जंग लड़ता  हूँ 

खुद से खुद को पाने की खातिर जंग करता  हूँ
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें, देखें नियमावली ] 

गुरुवार, सितंबर 26, 2019

बेटी:अंजली सिंह

बेटी
अंजली सिंह
बेटी है   जान   से  प्यारी,
मोहक, चंचल और न्यारी।

बेटी  है  एक  पवित्र जान्हवी,
जिसमें जीवन का सार समाया ।

अनाथों की भगिनी है बेटी,
दीनों     की      है     नाथ ।।

हर विपदा  सहने  के   लिए,
 बना       तुम्हारा     गात ।।

बनिता ,पुत्री ,अनुजा बनकर,
रहती         सबके     साथ।।

एक घर की  दीपक  बनकर,
दूसरे घर के तम को देती मात।

इतनी सरल ,सहज बाला ,
समय कहर से कुट पिट कर,
   बन    जाती  है   ज्वाला।

हे निर्मल ,सलिला ,इन्दुमुखी,
प्यारी बेटी करुणमूर्ति  तुम हो सबकी नाज ।।

सुख में, दु:ख में, जग में,  
   वैभव    की     पहचान,।।

कोयल की मीठी तान तुम,
 और हर अम्माँ  की जान ।।
              रचनाकार
        श्रीमती अंजली सिंह 
(राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त, 2018)
     उच्च माध्यमिक शिक्षक
  शास. उ. मा. विद्यालय भाद
जिला-अनुपपुर (मध्यप्रदेश)

[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें, देखें नियमावली ]

बुधवार, सितंबर 25, 2019

हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था:सुरेन्द्र कुमार पटेल का आलेख

गांवों का चाल-चलन शहर का अनुगामी होता है परन्तु पिछले कुछ वर्षों से गांवों के चाल-ढाल में अचानक परिवर्तन आ गया है। गांव के लोग अब सब्जियाँ शहर से खरीद कर ले जाते हैं जिसमें लौकी, भिंडी, आलू, प्याज, कद्दू, करेला आदि सब्जियाँ शामिल हैं। सब्जी के  मसाले जैसे लहसुन, धनिया, मिर्च, आदि भी लोग  बाजार से खरीदते हैं। पहले लोग  तिथि-त्योहारों में पकवान आदि बनाने के लिए कुछ खास सामग्री  ही बाजार से खरीदते थे, अब अधिकांश सामग्री बाजार से खरीदी जाती है। 

इसे दो तरीकों से देखा जा सकता है। एक तो यह माना जा सकता है कि गांव की क्रय शक्ति में वृद्धि हुई है और गांवों में भी प्रतिव्यक्ति आय बढ़ी है। दूसरा यह कि गाँव पहले की अपेक्षा शहरों पर अधिक निर्भर हो गए हैं। दोनों अंशतः सत्य हैं। यातायात एवं संचार के अभाव में पहले लोगों की आय का स्रोत केवल कृषि थी। अब यातायात की सुविधा के कारण लोग नजदीकी शहरों में  काम करके  भी आय बना लेते हैं।

लोगों की निर्भरता अब शहरों एवं बाजारों पर अधिक बढ़ गयी है और इस प्रकार गाँव की अर्थव्यवस्था देश की अर्थव्यवस्था से सीधे-सीधे जुड़ गई है। किसान के पास बेचने के लायक जो कुछ होता है, वह तुरंत बाजार में बेंच देता है और खरीदने लायक जो चीजें होती हैं वह समझता है कि जब जरूरत होगी तब वह बाजार से खरीद लेगा। इससे गाँवों की बफर स्टॉक की विशेषता ख़त्म हो  गई है। उपज का नकद दाम प्राप्त करने के लालच में किसान तुरन्त फसल बेचता है जिससे एक ओर सरकार की भंडारण की समस्या बढ़ती है  तो दूसरी ओर दलाल सक्रिय  हो जाते हैं। आए दिन अनाज गोदामों के कुप्रबंध के कारण अनाजों के नष्ट होने की खबरें समाचार पत्रों में छपती रहती हैं। इसका दुष्प्रभाव तब सामने आएगा जब देश किसी आपात स्थिति से गुजरेगा। 

विश्व की अर्थव्यवस्था कई बार मंदी के दौर से गुजरी किन्तु भारत पर उसका  प्रभाव नहीं पड़ा। इसके पीछे जो महत्वपूर्ण कारक था वह गाँव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था ही थी। इसमें विशेष रूप से गाँव की महिलाओं की घरेलू अर्थव्यवस्था का काफी योगदान था। प्रत्येक परिवार में जरूरत की चीजें कम से कम एक वर्ष और कुछ घरों में एक से अधिक वर्षों के लिए संग्रह कर रखी जातीं थीं। इनमें खाद्यान्न की सामग्री चावल, ज्वार, बाजरा, जौ आदि शामिल थी। इसी प्रकार बहुत प्रकार की सब्जियां जिसमें सूखे टमाटर, बैगन, गोभी शामिल हैं सुखाकर रख ली जातीं थीं जो उस समय उपयोग की जाती थी जब वर्षा के पश्चात  खेतों में फसल लेना संभव नहीं होता था। गाँव के प्रत्येक घर में अनाज की कोठरी आजकल के सरकारी गोदामों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थीं। गाँव की यह अर्थव्यवस्था ग्रामीण परिवारों को आत्मनिर्भर बनाता था। इस व्यवस्था से गाँव  देश की मंदी के प्रभाव से अछूते रहते थे। किन्तु जिस प्रकार से डिजिटल दुनिया में कैशलेस इकॉनोमी को बढ़ावा दिया जा रहा है उसी प्रकार किसानों  के घर भी अब अनाज भंडारण मुक्त हो रहे हैं। 

केवल भंडारण मुक्त होने की समस्या नहीं है, बल्कि घरों में उपयोग आने वाली कई चीजों को उगाया ही नहीं जाता। जिस प्रकार पैक्ड खाने का प्रचलन बढ़ा है वैसे ही अब घरों को सब्जी-भाजी उगाने के झंझट से मुक्त रखा जा रहा  है।  उसके स्थान पर  हर रोज झोले में बाजार से सब्जी लटकाकर लाने का प्रचलन बढ़ रहा है। इससे आने वाले दिनों में नये प्रकार की समस्याएं  पैदा होंगी, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर रहा है। बाजार मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर कार्य करता है। जब सब्जी की मांग का दबाव बाजार पर होगा तो निःसंदेह सब्जियों का उत्पादन व्यावसायिक तौर पर किया जाएगा। किन्तु यह निश्चित है कि ऐसा उत्पादन लोगों के  स्वास्थ्य  से समझौता करके ही किया जायेगा। जबकि यदि इतनी ही सब्जियाँ अलग-अलग लोगों द्वारा  उगाई जाती  तो उत्पादन का दबाव कम होता। जिससे  मंहगाई और गुणवत्ता दोनों पर नियंत्रण रहता। 

कुपोषण देश की बहुत बड़ी समस्या है। इसे ग्रामीण परिवेश में प्रचलित पुरानी अर्थव्यवस्था से ठीक किया जा सकता है। केवल दाल, चावल से संतुलित पोषण प्राप्त नहीं होता। गाँव में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के अनाजों के मिश्रण से सत्तू बनाया जा सकता है और बच्चों और बड़ों को उसका नियमित सेवन करना चाहिए। इसी प्रकार गाँवों के समीप पाए जाने वन फल तेंदू आदि  को सुखाकर पूरक पोषण आहार बनाया जा सकता है। महुआ बहुत अधिक पौष्टिक माना जाता है। पहले इसके लड्डू बनाये जाते थे। नाश्ता के रूप में यही लडडू उपयोग किया जाता था। इसी प्रकार तिल के लड्डू घरों में आम बात थी। अब भी इसका उपयोग किया जाना चाहिए। ऐसा करना आज अतिशयोक्ति लग सकता है किन्तु इन्हीं उपायों ने अकाल जैसी भयावह स्थिति से ग्रामीणों का जीवन बचाया है।

गाँवों को भोजन और रोजगार दोनों में ही आत्मनिर्भर  होना जरूरी है। गांव आत्मनिर्भर होंगे तभी देश का विकास संभव है। गांवों में पल रही विशाल जनसंख्या को रोजगार और भोजन दोनों ही केवल सरकारी सहयोग से दे पाना सम्भव नहीं है। ऐसा वातावरण तैयार किया जाना चाहिए जिसमें रोजगार और भोजन दोनों गांव में उपलब्ध हों  रोजगार के लिए लोगों का शहरों की ओर पलायन स्वाभाविक है परंतु इसके बाद जो लोग गांव में रहते हैं, उनका  गांव की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में उपयोग किया जाना चाहिए। गावों में अच्छी सड़कें हों, बिजली और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ हों, यह सरकार की जिम्मेदारी है।  परन्तु गाँव के लोग आत्मनिर्भर कैसे रहें, इसकी चिंता सरकार  के साथ ग्रामीणों को भी करनी होगी। प्रत्येक परिवार को वर्ष भर उपयोग में आने वाली मूलभूत चीजों का संग्रहण करना अतिआवश्यक है तभी वह देश की आपात स्थिति केप्रभाव से स्वयं को मुक्त रख सकेगा।  

लोगों को चाहिए कि जब सब्जियों का अधिक उत्पादन हो तब वह इसे अच्छी तरह सुखाकर रख लें और सब्जी की अनुपलब्धता के समय इसका उपयोग करें। बाजार में उपलब्ध सोयाबीन की बड़ी इसी का उदाहरण है। इसमें कोई पुरातन पंथी होने जैसी बात नहीं है। हम आप सब सोयाबीन की बड़ी बाजार से खरीदते ही हैं। किंतु जब तक कोई सामग्री कंपनियों के द्वारा अच्छे लेबल में पैक होकर बाजार में  नहीं आती, उसका प्रयोग करने में संकोच होता है, पुरातन पंथी ही लगता है। टमाटर का रस  बाजार में मिलता है जिसका सभी उपयोग करते हैं। आप अपने घर में मक्के का लाई फोड़कर कब खाए थे, याद नहीं होगा क्योंकि इस संस्कृति से हम आप बहुत दूर निकल आए हैं। हाँ, बाजार में पॉपकॉर्न के रूप में इसे अपने बच्चों को शान के साथ खिलाना याद हो सकता है।  कैथा का चूर्ण, बेर का चूर्ण, आम का चूर्ण आदि जो ग्रामीण परिवेश के लिए न केवल पूरक खाद्यान्न सामग्री थीं बल्कि बहुत अच्छी औषधि भी थे, इनका संग्रहण गांव से लुप्त हो रहा है।


यह बात कहना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन परिवारों की आय सीमित है, वह भी बाजार का अंधानुकरण कर रहे हैं। वह बहुत मुश्किल से कमाए हुए पैसों से सब्जी खरीद रहे हैं। कोई आम ग्रामीण यदि सब्जी के लिए बाजार पर निर्भर हो गया तब तो वह सब्जी खा ही नहीं सकता। सब्जी की कीमतें तो शेयर बाजार की तरह उछाल मारती हैं। अतः जरूरी है कि गाँव का आदमी और गाँव दोनों ही आत्मनिर्भर हों। आदमी के आत्मनिर्भर होने का तात्पर्य है कि वह स्वयं सब्जी उगाये और गाँव के आत्मनिर्भर होने का तात्पर्य है कि उस गाँव के उपयोग के लिए पर्याप्त मात्र में खाद्यान्न व सब्जी का उत्पादन उसी गाँव में  होता हो।


 भारत में 2/3 से अधिक जनसंख्या गाँवों में निवास करती  है। यदि देश में कोई  आपात स्थिति पैदा होती है  तो इस विशाल समुदाय को सरकारी मदद से खाद्यान्न उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती होगी। युद्ध, बाढ़, अकाल, सूखा, भूकंप आदि स्थितियों में भारत अपेक्षाकृत तब तक ही स्वयं को मजबूत मान सकता है जब तक कि गाँव और गाँव की अर्थव्यवस्था मजबूत है। इस प्रकार की विपत्तियों में स्वयं सरकार भी लोगों के मदद की मोहताज हो जाती है। 1962 के  चीनी आक्रमण के बाद उत्पन्न  स्थितियों का सामना करने के लिए ही लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था। यह नारा जितना तब महत्वपूर्ण था, उतना ही अब भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रोटी की पैदावार खेतों में ही हो सकती  है किसी फैक्ट्री में नहीं। गाँव और ग्रामीण के पास जो कुछ है, वही देश की असली पूंजी है। देश कितना मजबूत है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जाएगा कि गाँव और ग्रामीणों में स्वयं के साथ शहरी और शहरों को पोषण प्रदान करने की कितनी क्षमता है।
आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें, देखें नियमावली ]

मंगलवार, सितंबर 24, 2019

माॅं से होती दुनिया शुरू है:आर्यन की कविता


माॅं से होती दुनिया शुरू है

आर्यन पटेल 
माॅं दुनिया की सबसे पहली गुरू है,
माॅं से होती दुनिया शुरू है।

माॅं ने मुझको खुश रखने के लिए कई कष्ट झेले हैं,
माॅं ने मुझको साथ रखने के लिए कई खेल खेले हैं।

माॅं मारती जरूर है पर प्यार भी करती है,
माॅं स्कूल भेजती जरूर है पर घर आने का इंतजार भी करती है।

माॅं से बड़ा परोपकारी इस विश्व में नहीं है कोई
लेकिन बच्चे को डाॅंटने के बाद अकेले में माॅं बहुत रोई।

मेरी माॅं त्याग एवं बलिदान करने वाली है
मेरी माॅं हर तरफ बाॅटती खुशहाली है।

माॅं चलना सिखाती है हमको
माॅं प्यार से सहलाती है हमको।

माॅं खाना खिलाती है हमको
माॅं दुनिया के साथ चलने के काबिल बनाती है हमको।

माॅं से सुन्दर, माॅं से प्यारा इस दुनिया में न कोई आया है, न कोई आएगा,
अगर हमने माॅं की सेवा न की तो कोई सुख न मिल पाएगा।

माॅं से प्यारी, माॅं से न्यारी न कोई अब तक आयी है,
आज फिर से माॅं हमेशा की तरह खाने का निवाला खिलायी है।
रचना: आर्यन पटेल,
कक्षा-9वीं
ख्रिश्ता ज्योति मिशन हायर सेकेंडरी स्कूल 
गोदावल रोड ब्यौहारी जिला-शहडोल (मध्यप्रदेश)
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें,देखें नियमावली ]

सोमवार, सितंबर 23, 2019

एक वक्त की रोटी


एक वक्त की रोटी


जीवन के सफर में आज भौतिकवादी इंसान ने समय के साथ-साथ पूरे वायुमंडल में मीठा जहर घोल दिया  है। किसी के पास खाने का वक्त नहीं है, और किसी के पास एक वक्त का खाना नहीं है। लोग कहते हैं सब कुछ बदल गया है । लेकिन सच तो यह है कि लोग बदल गए हैं। आइए इसे इस कहानी से समझें।

एक  दिन की बात है  एक अमीर व्यक्ति  की पत्नी रमा  सब्जी लेने गई। वह  सब्जी वाले के पास पहुंचती है। टमाटर उठा कर बोली,"टमाटर क्या भाव दिए ?" 
गरीब सब्जीवाला धीरे से बोलता है, "ले लो दीदी, 20 का एक किलो है" 
रमा   बोली-"15 लगाओ और आधा किलो दे दो" 
सब्जी वाला -"नहीं दीदी, नहीं पड़ेगा"   
 रमा  -"क्यों नहीं पड़ेगा?" 
सब्जी वाला-"महंगाई ज्यादा है ,नहीं पड़ेगा।"
रमा  -"अरे! तुम्हारे घर की सब्जी है। क्यों नहीं पड़ेगा?" 
सब्जी वाला -"बच्चे भूखे रह जाएंगे दीदी !"                 
रमा  ने आधा किलो टमाटर तौलने के लिए कहा  और उसने  सब्जीवाले को  सात रुपये दे दिए। सब्जी वाला बोला- "दीदी, तीन रुपए और चाहिए।"
रमा  अपने थैले में टमाटर रखकर चलते बनी। सब्जी वाला देखता  रह गया। आगे  एक दुकान में पनीर ,शाही पनीर मसाला, और अन्य  बहुत सी  सामग्री उसने लिए व दुकानदार से बोली कितना पैसा हुआ?          दुकानदार ने बताया  "2320 रुपये।"                    
रमा  ने अपना पर्स निकाला  और उसने  दुकानदार को  2320 रुपये  दे दिये। वह  सामान लेकर घर चली गई।

इस कहानी में हमने देखा कि रमा जो कि  एक अमीर व्यक्ति की पत्नी थी सिर्फ पांच रूपये बचाने के लिए  उसने  सब्जीवाले से मोलभाव किये किन्तु जहाँ उसने हजारों रुपये का बिल भुगतान किया, वहां उसने कोई मोलभाव नहीं किया।
निर्बल , गरीब, किसान ,मजदूर, रिक्शावाला, बेबस, लाचार आदमी, छोटा -मोटा  धंधा करने वाले व्यक्तियों  से ही मोल भाव क्यों होता है? बड़े-बड़े शॉपिंग मालों एवं बड़े दुकानों में ऐसा ही मोलभाव क्यों नहीं होता?            गंभीर विषय है, जरा सोचिए मजदूर ,किसान अपने खून पसीने  से आधा पेट खाना खाकर अपने बच्चों के लिए ठंडी, गर्मी, बरसात में मेहनत करके एक वक्त की रोटी के लिए और आप सब के  पेट भरने के लिए मेहनत करता है । अनाज उगाता है। बीज बोने से लेकर खाने लायक सामग्री तैयार करने तक की मेहनत की  कीमत सही मिलना चाहिए। सवाल 3 रूपये का नहीं है। सवाल है गरीबों के  प्रति लोगों की मानसिकता को समझना, उनके  मेहनत की  पूरी  कीमत देना , उनका सम्मान करना। हम आप सब पैसा कमा रहे हैं ,उनको उनके मेहनत की उचित कीमत दें। बदले में उनसे भोजन के लिए सामग्री लें । क्योंकि बिना पैसों  के गरीब जीवित रह सकता  है पर क्या हम आप  बिना भोजन के जीवित रह सकते हैं? नहीं । सोचिए। समझदारी से काम लीजिए।
प्रस्तुति: दीपक पटेल,सहायक अध्यापक, खड्डा, ब्यौहारी 
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें,देखें नियमावली ]            
             

रविवार, सितंबर 22, 2019

जब हम लाश हो गए


जब हम लाश हो गए
थोड़ी सी पाई जिंदगी
और उदास हो गए?
हम पैदा हुए तो कब?
जब हम लाश हो गए।

लाशों की बहुत जरूरत है
जिंदा थे तो कोई पूछता न था
अपने बेटों को भी याद आई तो कब?
जब हम लाश हो गए।

हम सोते भी रहे, हम रोते भी रहे
खबरनबीशों की आंखों में रही पट्टी
अखबारों ने भी छापे तो कब?
जब हम लाश हो गए।

वो कुत्ता भी सरकारी महकमे की तरह
इंतजार में था
आया भी सूँघने तो कब?
जब हम लाश हो गए।

लुटती रही यूपी में आबरू
बचे रहे तो बचना मुश्किल था
लोगों को फुर्सत भी मिली तो कब?
जब हम लाश हो गए।

गिड़गिड़ाती रही मैं बेटी बन
हिफाजत के लिए कानून के सामने
तुम्हारा न्याय भी आया तो कब?
जब हम लाश हो गए।

बहुत बुरे थे हम
बुझा रहा दुश्मनों का चिराग
उजाला भी हुआ उनके घर तो कब?
जब हम लाश हो गए।

मुनासिब नहीं था चुनाव जीतना
जिन्दा रहती इंसानियत अगर
वो कुर्सी पर चढ़े भी तो कब?
जब हम लाश हो गए।

मैंने पूछा ये बोलता क्यों नहीं है
गूँगा, बहरा, लचर समाज
अरे! तूने बोलना भी सीखा तो कब?
जब हम लाश हो गए।

पिता होने के दम्भ में डाँटा तुमने
साक्षी होने की यातना दी
जनक बन स्वयंवर रचे भी तो कब?
जब हम लाश हो गए।

रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें,देखें नियमावली ]

शनिवार, सितंबर 21, 2019

ऐसा भ्रम तुम नहीं पालो:सुरेन्द्र कुमार पटेल

ऐसा भ्रम तुम नहीं पालो
आया था जो वो  पल ,
वो पल  तुम सम्हालो
आएगा फिर से वो पल 
ऐसा भ्रम तुम नहीं पालो

है  अँधेरा जो मन का 
वो अँधेरा तुम हटा लो 
फिर से जल उठेगा दीया 
ऐसा भ्रम तुम नहीं पालो

तुमने मुझको बुलाया है  जैसे 
ऐसे किसी को फिर  बुला लो 
दौड़ा आएगा कोई तुम तक 
ऐसा भ्रम तुम नहीं पालो 

सुनाई थी जो मजबूरी मुझको 
जरा तुम  इसको भी सुना लो 
मरहम लगा देगा कोई 
ऐसा भ्रम तुम नहीं पालो

पूजा करो तुम चाहे जितनी 
चाहे जितना  अश्क  बहा लो 
जीवन संवारेगा कोई और 
ऐसा भ्रम तुम  नहीं पालो 

तुम माँझी बनाओ खुद को 
खुद ही राह बना डालो 
तुम्हारे रोने पर न हँसे जमाना 
ऐसा भ्रम तुम नहीं पालो
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल 
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी  रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आई डी akbs980@gmail.com पर भेजें,देखें नियमावली ]

तनावमुक्त जीवन कैसे जियें?

तनावमुक्त जीवन कैसेजियें? तनावमुक्त जीवन आज हर किसी का सपना बनकर रह गया है. आज हर कोई अपने जीवन का ऐसा विकास चाहता है जिसमें उसे कम से कम ...