बड़े दामाद की आंखों से अश्रुधार बह निकली। कुछ जवाब न दिया। ...अश्रुधार पोछने लगा तो रुंधा गला अचानक फट गया. दहाड़ मारकर रोने लगा," मैं कैसे कहूँ, मेरा तो सब कुछ लुट गया। इस घर में आने का मेरा सहारा उठ गया।
कुछ देर तक सिर्फ बड़े दामाद के विलखने की आवाज सुनाई दी।
"जाओ बेटा, ससुर जी को कहो. बिरादरी में आश-बुलौवा कह दें. उसका इस संसार में इतना दिन ही लिखा था लेकिन कम से कम उसका परलोक तो न बिगड़े." वृद्ध ने जोर देकर कहा.
"हाँ, भाई। इस संसार में जिसके साथ जो कुछ होता है उसी को सहन करना पड़ता है, परन्तु जो लोकाचार है वह तो करना ही पड़ता है। ज्यादा देर न करें। आश-बुलौवा कह दें।"
उस वृद्ध से कम उम्र के आदमी ने समर्थन किया।
बड़े दामाद जी को भीतर की हालत मालूम थी लेकिन पहल उसे ही करनी होगी. बड़े दामाद ने जिम्मेदारी पूरी की. वह ससुर साहब के सामने जाकर सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
जिम्मेदारी इंसान को समझदार बना देती है। वह श्यामू के पास जाकर वृद्ध का
सन्देश कहने की हिम्मत जुटा रहा था। श्यामू के पास पहुंचा तो श्यामू और दहाड़ मारकर
रोने लगा। बड़े दामाद ने सांत्वना देते हुए धीरे से कहा-“ पिताजी, वो बिरादरी को खाने के
लिए आश-बुलौवा कह देते तो ठीक था। महिलाएं खाना बनाने में लग जाती। काफी देर हो
चुकी है।”
“दामादजी,अपनी सासू से पूछ लो। भीतर की हालत वही जानती होगी।’’
दामाद ने भीतर का जायजा लिया। सब्जियाँ घर में बीते सप्ताह से ही नहीं थीं। इस
साल खेत में दाल की उपज भी नहीं हुयी थी। बीच-बीच में बेटा खरीदकर ले आता था जिससे
काम चलता था।आटा भी न के बराबर था। भोजन सामग्री के नाम पर था तो मात्र चावल। वह
भी आज को तो हो जाए लेकिन अगले दिन के कर्म के लिए नहीं होगा। बिना आटे के तो आज
काम चल जाएगा परन्तु दाल और सब्जी तो चाहिए ही। फिर तेरहवीं तक चार आदमी बने ही
रहेंगे। उतने दिनों का इंतजाम करना पड़ेगा। एक दिन के अंतर में हाड़-फूल ले जाने
का भी इंतजाम करना पड़ेगा। पैसों का जायजा लिया तो पता लगा बीते महीने तक का पगार
सेठ दे चुका है। बाकी है तो केवल इस महीने का। लेकिन घर में जमा पूँजी कुछ नहीं
है। घर में जमा पूंजी के नाम पर उसी के जेब से निकले 100-100 के दो नोट थे।
दामाद ने अपना जेब टटोलकर देखा। 50-50 के दो नोट थे। इतने से कुछ नहीं होने वाला।
श्यामू को कुछ बताता उसके पहले ही श्यामू, दामाद के चेहरे से अपने घर की हालत
भाँप गया।बराबर का बेटा मरा है। उसके इस दुःख की तुलना संसार के किसी दुःख से नहीं की जा सकती।परन्तु
रिवाजों को किसी दुख से कोई लेना-देना नहीं है उसे तो निभाना ही पड़ेगा। मृत पुत्र के दहाड़
मारकर रोते बाप का विलखना सिसकियों में बदल गया।
बेटे ने जबसे गृहस्थी सम्हाली थी, तबसे श्यामू घर-गृहस्थी की एक बात नहीं जानता। वही बेटा जो ले आता उससे घर
चलता था। फिर आज तो पहला दिन है। तेरहवीं तक का इंतजाम करना होगा। घर में खाने के
नाम पर चावल के सिवा कुछ नहीं था। फिर चावलभर से क्या होता है। दोना-पत्तल भी
चाहिए। ब्राह्मण भोज और महापात्र भोज के लिए भी सामग्री चाहिए। कम से कम एक साल की
खानगी तो महापात्र को देनी होगी। तमाम खर्चों का लेखा-जोखा 50 हजार से कम नहीं
बैठता था। 50 हजार तो फिर भी बड़ी रकम थी 5 हजार भी होता तो भी इस बूढ़े के लिए इस
जन्म में कमाकर इतनी बड़ी धनराशि जुटा पाना संभव नहीं था। फिर अभी एक साल पहले हुए बेटी की शादी का कितनों ही दुकानों में रकम जमा करना बाकी है। बेटे ने
जिम्मेदारी ले ली थी इसीलिये सेठ-साहूकार कुछ नहीं बोलते थे। वह जानते थे सूद जमा
जरने की पूंजी बूढ़े के पास है...लेकिन उसके इस पूंजी के डूबने के चार दिन बाद ही
सेठ-साहूकार घर गेरने लगेंगे। वह किस-किसको जवाब देगा।
बिरादरी की जो महिलाएं घाट से सीधे उसके घर आ गयीं थीं, वह अब अपने घरों की ओर जाने के लिए फुसफुसाने लगीं। आखिर बेचारी क्या करतीं, उन्हें अभी तक आश-बुलौवा भी
नहीं हुआ था कि सीधे-सीधे उसके किचन में घुस जाएँ और काम में लग जाएँ। श्यामू यह सब देख और सुन रहा था।तभी एक
वृद्ध ने आवाज दी।
“श्यामू! यह महिलाएं अपने घर जा रही हैं। अपने-अपने घर में चूल्हा चौका करने
लगीं तो तुम्हारे घर में चूल्हा नहीं जलेगा। आश-बुलौवा कर दो तो काम में लग जाएँ।”
समय कितना निष्ठुर होता है, आज किस हिम्मत से उसके मुंह में कौर जायेगा, फिर
भी बिरादरी के लिए उसे वह सब करना पड़ेगा जो लोग आज तक करते चले आयें हैं।
श्यामू ने वृद्ध को संबोधित किया-
“काकू! रमा प्रसाद के सहयोग के बिना कर्म न होगा।”
“क्या? आज का भी न होगा?”
“चावल तो हो जाए, पर दाल-सब्जी की व्यवस्था न होगी। फिर आगे भी तो पैसे ही
लगने है।”
“तो वह क्या उधार देगा?”
“वह उधार क्यों देगा? बड़का बांध बेचूंगा!”
श्यामू के मन में उपाय कौंधा। श्यामू के पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था।
बड़का बाँध श्यामू की पैतृक जमीन है। एक मात्र ऐसी जमीन जिस पर धान की खेती
होती है जिसके भरोसे सालभर खाने को चावल हो जाता है। रमा प्रसाद की नजर हमेशा से
उस खेत पर थी । वह काफी दिनों से इस प्रयास में था कि वह खेत उसे मिल जाए। बडका
बाँध, केवल कहने को बड़का बाँध नहीं है, उसमें बडप्पन भी है। थोड़ी भी बारिश जो जाए तो उसमें
धान की इतनी फसल तो हो ही जाती कि चावल के लिए परिवार को मोहताज न होना पड़ता।
रमा प्रसाद की तो जैसे बांछे खिल गयी। रमा प्रसाद कोई गैर न था, परन्तु जमीन
बनाने के मामले में वह एक नंबर का धूर्त और कपटी था। श्यामू की गरज भांपकर बोला- “इस समय
मेरा भी वक़्त अच्छा नहीं चल रहा। काकू चाहें तो किसी और से सौदा कर ले। जब बेटी की शादी की थी तभी दे दिए होते तो ले भी लेता। और तब शायद आज ऐसा दिन भी न देखना पड़ता। कर्ज उतारने में ही बेटे को अपने प्राण गंवाने पड़े।"
श्यामू के हृदय में जो शूल उठा, उसे उसने आज के पहले कभी महसूस नहीं किया था। रमाप्रसाद पहले भी बड़का बाँध का मोल-भाव कर चुका था पर काकी (श्यामू की पत्नी) ने भांजी मार दी थी। बड़का
बाँध बेचने न दिया। वह कहती भगवान की दया से बराबर का लड़का है। कर्जा तो फिर भी एक न एक दिन छूट
जायेगा परन्तु जमीन बनाये न बनेगी। उसी ने बड़का बाँध बेचने न दिया था। पर आज वह
क्या कहेगी? आज जो कर्जा चढ़ेगा उसे कौन चुकता करेगा, और मरने के दिन आए बूढ़े-बुढ़ियों पर किस मुंह से कोई भरोसा करेगा?
शादी-विवाह ख़ुशी का काम है। उसमें जितना खर्चा करना हो, करो। न करना हो
तो मना करा दो।लोग चार बात कहेंगे पर लांछन न लगायेंगे। परन्तु, मरनी के क्रियाकर्म में
वैसी बात नहीं होती। दूसरे न भी कहें तो परलोक के डर से सब करना पड़ता है। श्यामू मन ही मन सोच रहा था कि रमा प्रसाद ने एक ताना और जड़ दिया,
“काकू, काकी से पहले ही पूछ लेना। मोलभाव के बाद मुकरना ठीक नहीं रहता।”
“रमा प्रसाद! काकी अब किसके भरोसे मना करेगी ?मोलभाव कर लो। मुझे तो पिछला मोलभाव मंजूर है।”
“काकू, मैं आज उस कीमत पर लेने से रहा। मेरे सिर भी कर्जा कम नहीं है उसके आधे
दाम पर बात बनती हो तो बताओ। मेरी गरज नहीं पड़ी है बाँध लेने की।”
श्यामू दांत पीसकर रह गया। उसे यह बाँध हिस्से में ऐसे ही नहीं मिला था। निरा बगार मिला था।परन्तु एक-एक जून का अपने बाल-बच्चों का पेट काटकर उसने जो बचत
की थी, उसी से मेड डलवाया था तब जाकर कहीं वह बड़का बाँध बना था। वह उस बाँध से उतना ही प्रेम करता था जितना अपने बेटे से। उसका बेटा उसके बुढ़ापे का सहारा था तो यह बड़का बाँध भी उसका कमाऊ बेटा ही था। इसी के चलते उसके परिवार को कभी भूखे पेट नहीं सोना पड़ा। आज उसके एक नहीं दो-दो
बेटे उसके हाथ से निकल गए। पर वह क्या कर सकता था। ज्यादा मोल-भाव का वक़्त नहीं
था। बेटा जीवित होता तो उसे आज यह दिन न देखना पड़ता।
चार जनों के बीच बात हो
गयी परन्तु रमा प्रसाद कहा सुनी को नहीं मानता। उसने पिछले मोलभाव का हवाला दिया। कौन कब पलट जाए, आजकल
भरोसा नहीं। श्यामू के नाम का स्टाम्प पेपर आया। घर-बिरादरी के चार लोग जमा हुए,
कुछ श्यामू के तरफ से गवाह हुए कुछ रामप्रसाद की तरफ से। स्टाम्प पेपर में श्यामू
के अंगूठे के निशान ले लिए गये।
दामाद बाबू के भी संकट दूर हो गये । दामाद बाबू बाजार से सामान लाने चले गये। बिरादरी के ही एक वृद्ध को आश-बुलौवा की जिम्मेदारी सौंप दी गयी। बिरादरी की अपने घर गई महिलाएं नए
कपड़ों में फिर उसी आँगन में भोज तैयार करने पहुँच गयीं। रमा प्रसाद की पत्नी कुछ
अधिक ही सजी-धजी रही। उसके घर में जैसे उत्सव छा गया हो। एक साल पहले वही बाँध
लेते तो आज से दोगुनी कीमत में मिलता आज आधी कीमत में मिल गया। ऊपर से औरतों के बीच
इस बात का एहसान जताने का मौका भी मिल गया कि उसके आदमी ने आज ऐन वक़्त पर बड़का
बाँध खरीद न लिया होता तो श्यामू के बेटे का कर्म नहीं होता। श्यामू के सिर कलंक रह जाता।
भोज में किसी किस्म की कोई कमी न रही। जहाँ चार सौ
पत्तलों की जरूरत थी, वहां पांच सौ पत्तल लाए गये। एकाध सब्जी से भी काम चल जाता
परन्तु दो-तीन सब्जी और दाल बनवाई गई।भोज में सभी आए। न आते तो मृतक का परलोक बिगड़ जाता। मृतक का कर्म है सो खाने जायेंगे, ख़ुशी का होता तो चाहे
न जाते। तेरहवीं तक घर में लोगों का ताँता लगा रहा। खूब दान-पुन्य किये गये। बाम्हनों को भी खूब खिलाया गया। महापात्र को साल भरका राशन दिया गया और वो सब
बर्तन दिए गये जिसका उपयोग जीते जी श्यामू का बेटा करता।
समाज के लोग आते। उसके दुःख में शामिल होते। वह हाथ जोडकर अभिवादन करता। सभी को पता था कि उसका एक बेटा मरा है। उसने एक ही चिता को मुखाग्नि दी है। परन्तु जिन हाथों से उसने अपने बेटे की चिता को मुखाग्नि दी थी उसी हाथ में बड़का बाँध को बेचने के लिए स्टाम्प में
लगाये गये अंगूठे के स्याही के निशान भी थे। वह निशान चीख-चीखकर कह रहे थे कि यह कर्म उसके
एक नहीं दो-दो बेटों का है! परन्तु शायद ही किसी ने उनकी यह बात सुनी हो!
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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