बघेली पर्यावरण गीत
हेरे मिलै नहिं पीपर बहेरा
मनई के जीबन मा होइगा अँधेरा
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा
न आमा बगैचा न तेंदू न महुआ
नहीं अब खरहरी न हर्रा न कहुआ।
न चिरई चनूँगुन के खोंथइला बसेरा।
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा।
न सालैं न गुँइजा न छुइला न सगमन।
जामुन खम्हार नहीं न बीही न सहिजन।
करौंदा बरारी अउ न बइरि मिलै हेरा।
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा।
सीसम न नीलगिर सेमर न खैरा।
कैथा न इमली बेल सेहेरुआ सजैरा।
न चंदन चचेंड़ा न चिरुल चार चेरा।
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा।
सताबर पसारन न गुरिज अस्सगंधा।
पेंड़ काट मनई बनाय लिहिस धंधा।
बेंचि-बेंचि पेंड़न का बनाये है डेरा।
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा।
एहिन के कारण आजु बगरा प्रदूषन।
हेरत फिरैं सब आजु शुद्ध आक्सीजन।
मरा रोइ-रोइ चाहे मूड़ का कचेरा।
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा।
अबहूँ भरे भरे मा चेता बिरछा लगाबा।
नाहक मा देखा खुद के नास ना कराबा।
पइहा न हेरे कहौं जंगल-पतेरा।
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा।
प्रकृति के कहर का माधव समझा न रोग हो।
मनई के तन पा के रचा न कुजोग हो।
अबहूँ भरे मा जागा करा न अबेरा।
हेरे मिलै नहिं अब पीपर बहेरा।
अशोक त्रिपाठी "माधव"
शहडोल मध्यप्रदेश
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1 टिप्पणी:
अद्भुत शब्दों का संगम।
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