आधुनिकता में विलुप्त होती बैलगाड़ी,पहले थी गांव की सवारी
भारत गांवों का देश कहा जाता है।बापू हमेशा कहते थे कि देश का विकास गांवों के विकास से ही होगा।काफी पहले जब सड़के नहीं थीं और न ही आवागमन के इतने साधन थे ,तब अनेक कार्यों में बैलगाड़ी का ही उपयोग किया जाता था।पहले काठ के पहिए होते थे उस पर लोहे की हाल चढ़ी होती थी, बाद में विकास के क्रम में बैलगाड़ी का नया संस्करण डनलप आ गया, अब पहिए ट्रक वाले रबर वाले हो गए।बैल तीन होते थे दो एक साथ जुए में नधे होते थे एक आगे बिडियहा होता था, जो केवल कभी कभी जोर लगाता था, जब गाड़ी चढ़ाई पर होती थी या पहिया सड़क(मिट्टी की खोर हुआ करती थी)पर फंसती थी,लेकिन यह बड़ा दुलारा और मजबूत होता था प्रायः हम लोगों के यहां उतरहा होते थे।अनाज ढोने, व्यापार,ईंट भट्टे, बाजार तक इस बैलगाड़ी से माल,अनाज, ईंट, गन्ना या अन्य सामग्री के ढुलाई में उपयोग किया जाता था।इसके अलावा ऊंट पर भी अनाज बाजार में बिकने जाता था,खच्चर का उपयोग भी करते थे।कहीं-कहीं तो अकेले बैल के पीठ पर ही व्यापारी अपना समान लादकर तिजारत किया करते थे।बैलगाड़ी पर बैठकर लोग बारात में भी जाते थे।उसी पर तंबू,शामियाना जाता था, मुझे भी एक दो बार राम लखन उर्फ पांडें काका के साथ बैलगाड़ी पर बारात जाने व भट्टे पर सेवाराम बाबू(डा सेवाराम चौधरी, अ प्रा, वरिष्ठ जेल अधीक्षक)के साथ भौरी खाने जाने का अवसर मिला है,उस आनंद की कल्पना से अभी भी हम लोग रोमांचित हो उठते हैं।बारात तो दर्जा आठ में पढ़ते हुए ताहापुर,मालीपुर,अंबेडकरनगर हम लोग अच्छू बाबू (श्री अच्छे लाल राजभर) के साथ ट्रेन देखने की आशा से गए थे और अच्छू बाबू निराश भी नहीं किए,दिखाए भी।जिसके घर बारात जाती थी वे बैलों के लिए दाना पानी, चुनी भूसा का प्रबंध करते थे।पहले बारात तीन दिनों की होती थी इसी बैलगाड़ी पर थोड़ा राशन,लकड़ी, उपरी,दाना,गुड़,बाल्टी लोटा,रस्सी सहित बर्तन रख दिया जाता था ।बाराती शादी के दिन दोपहर तक गाँव के पास किसी पोखरे या बगीचे में,जहां कुंआ होता था, डेरा डाल देते थे।दोपहर का भोजन वहीं बनता था ।सायं सब लोग नहा-धोकर तैयार होने के बाद उस गाँव जहाँ बारात जानी रहती थी,पहले ही पहुंच जाते थे ताकि समय से तम्बू कनात खड़ा हो सके। गोधूलि बेला में ही द्वारपूजा लग जाया करती थी।
उस समय इसका बहुत ही ज्यादा प्रयोग किया जाता था।बैलगाड़ी का उपयोग खेतों में कंपोस्ट खाद गिराने से लेकर फसल ढोने तक किया जाता था,फिर अनाज को घर या बाजार तक पहुंचाने के लिए भी।बैलगाड़ी हांकने वाले को गाड़ीवान की पदवी से नवाजा जाता था,और गाड़ी में जुतने/नधने वाले बैलों को गड़ियहा कहा जाता है। देश की स्वतंत्रता के समय 1947 में विभाजन के समय लोग बहुत बड़ी संख्या में इधर से उधर बैलगाड़ी में ही अपना-अपना वतन छोड़ कर गये थे अपने पूरे परिवार व गृहस्थी के साथ।
हमारे जनपद अम्बेडकरनगर के पश्चिमी छोर पर शहजादपुर में बैलों की खरीद व बिक्री होती थी, उस स्थान को बरदहिया ही कहा जाता था,अब वहां अच्छी बाजार व कॉलोनी बन गई है लेकिन हम जैसे लोग अभी बोलचाल में वरदहिया ही कहते हैं।जनपद की दूसरी बड़ी बाजार बैलों की थी लंगड़ी पृथ्वी पुर(लंगड़ तीर,घाघरा नदी के किनारे)हंसवर बाजार के निकट। जनपद के पूरबी किनारे गोविन्द साहब का मेला मार्गशीष शुक्ल पक्ष की दशमी " गोविंद दशमी"को मेला लगता है।इस मेले में दूर दूर से लोग हाथी घोड़ा, लकड़ी का सामान, लोहे के औजार आदि सभी की खरीद फरोख्त करने आते थे।बड़े बड़े लोगों का शिविर भी लगता था।जलालपुर से विधायक रहे एवम् उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री रहे स्मृतिशेष यशकायी बाबू राम लखन वर्मा जी का भी सबसे बड़ा कैंप लगता था।बहुत से लोग उस मेले में भी बैलगाड़ी से जाया करते थे और रात वहीं रुकते थे,कानपुर से लगायत दूर दूर से नौटंकी कंपनियां आया करती थीं,जो उस समय मनोरंजन का और अपनी संस्कृति व सामाजिक ताने– बाने के प्रस्तुतिकरण का साधन था।हमारे पड़ोस के ही जनपद सुल्तानपुर में महावीरन (विजेथुआ)में राम भक्त हनुमान जी का पुराना व बहुत प्रसिद्ध मंदिर है, वहां रोट चढ़ता है, पहले सभी बैलगाड़ी से ही ही सारा सामान आटा,घी,लकड़ी लादकर और महिलाओं को बिठाकर आते थे।इधर योगी सरकार ने गोवंश की रक्षा हेतु गोशालय बनवा दिए हैं,कुछ छुट्टे रूप से घूम रहे हैं।हम उनका सदुपयोग कर बैलगाड़ी से छोटा मोटा कार्य जो कम भारवाला व दूरी वाला हो उसे कर सकते हैं।ईंधन की खपत कम होगी और सबसे बड़ी बात यह कि पर्यावरण प्रदूषण भी कम होगा।छोटा कोल्हू लगाकर गन्ने का ताजा रस निकालकर उसे बेच सकते हैं,जिसमें आयरन के साथ ही पौष्टिकता भी होती है।इस कोरोना काल में लोग महानगरों से गांव की ओर पलायन किए हैं।ऐसी स्थिति में कुछ कर सकते हैं।
प्रदेश के पूर्वांचल में भृगु ऋषि की तपोस्थली बलिया में कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा व घाघरा नदी के दोआब में ददरी का बहुत बड़ा मेला लगता है ।यह मेला कार्तिक पूर्णिमा से दस दिन पहले से लेकर पूर्णिमा के दस दिन बाद तक रहता है ।इस मेले में गाय,बैल,भैंस,घोड़ा आदि के अलावा शादी विवाह की समस्त सामग्री बिकती है । इस मेले में पूरबी उत्तर प्रदेश व बिहार प्रदेश के लोग विशेष रूप से गाजीपुर,छपरा,आरा,बक्सर जिलों के लोग अपने-अपने साधनों से आते थे, इसमें भी पहले बैलगाड़ी का खूब उपयोग पहले हुआ करता था।पूरा कुनबा इसी बैलगाड़ी पर सवार हो मेले में आते थे।इसी मेले में कितनी सयानी बच्चियों की बात ही बात में शादी तय हो जाती थी,लोग लड़की व लड़का पसंद कर लेते थे।भृगु ऋषि के मंदिर में दर्शन भी जरूर करते थे।मुझे भी एक बार जाने का मौका मिला है,लेकिन केवल देखने का,कुछ खरीद नहीं सका।क्योंकि मुझे जो सबसे अच्छी लगी, खरीदने लायक वह पड़िया (भैंस का बच्चा)थी,उसके बलिया से अंबेडकरनगर तक लाने की समस्या।मेरे अत्यंत करीबी बड़े भाई नरसिंह बाबू कहते हैं के वह समय कितना अच्छा था।समय अच्छा बुरा नही होता।वह सम्पूर्ण ही होता है।पर उस समय, देश काल से जुड़ी हमारी सोच,मन:स्थिति हमारे पूरे अनुभव को बदल देती है।अभी तुरंत आप अपने चारों ओर के परिवेश को देखें तो सूर्य की रोशनी,चांद की चांदनी,प्राणवायु, जल,नभ,पृथ्वी,चिड़ियों की चहचहाहट, मेघ की गर्जना,हवा का झोंका, तपिश जैसी चीजों से जिंदगी घिरी है।यह एक समय है,जो है, जैसा है,पूरी तरह वैसा ही है।मानव जीवन में सम्पूर्ण समाज को अस्त व्यस्त करने वाली घटनाएं घटती रहती हैं।1920 का तावन,2020 की कोविड महामारी,तो बीच बीच में सुनामी जैसी आपदाएं हमारी स्मृतियों में दबी रहती हैं।उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी ने कहा है कि अतीत की स्मृतियां बहुत ही सुखद होती हैं,वे चाहे जैसी रही हों।ऐसे में बैलगाड़ी भी हमारी स्मृति का, अतीत का एक सुखद अहसास है,जिसकी पहिए की चूं चपड़ हमें सुनाई ही पड़ती रहेगी।जोहार प्रकृति!जोहार धरती मां!
डा ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी
मो 9415694678
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