बात सन 1975
के पहले या यों
कह लें कि चकबंदी से पहले की है,जब हमारे खेत
अलग - अलग हुआ करते थे।यह घटना/कहानी है ग्राम मैनुद्दीनपुर,जलालपुर,जनपद अम्बेडकरनगर की,जहां हमारा नार गड़ा है,वहीं हमारे घर के सामने और सार(पशुशाला)के
ठीक पीछे हमारे काका श्री राम जतन वर्मा,जिनकी स्मृतियां ही अब शेष हैं,का खेत था,
जिसमें धान और
गेहूं की फसल लगाते थे।बहुत ही साफगोई और बिना लाग - लपेट के अपनी बात कहने में
माहिर या हम कहें की मन की बात दिल में और दिल की बात मन में न रखने वाले बेहद
खुशदिल इंसान थे।उस समय खेती बैल से होती थी। 8 –9 बैलों के साथ ही गाय और भैंस कुल मिलाकर 15 से 20
या उससे भी अधिक
जानवर हमारे यहां हुआ करते थे,जो बांस के
खूंटे में पगहे(सन या सुतली से बनी रस्सी)से बंधे रहते थे।उस समय लोहे वाली जंजीर
अपने यहां बाजार में नहीं थी।पानी से भीगते -भीगते खूंटा और पगहा दोनो कमजोर हो
जाते थे।कुछ जानवर भी हम लोगों(इंसानों)जैसे ही दुष्ट हुआ करते थे और पगहा या
खूंटा जरा सा कमजोर हुआ कि,
उसे तोड़कर,उखाड़कर राम जतन काका के खेत में चरने चले
जाते थे। कुत्तों के भौंकने से यह अनुमान लगाया जाता था कि कोई जानवर छूटा हुआ है
या कोई अजनबी आ गया है।प्रायः अच्छू बाबू(श्री अच्छेलाल राजभर),राम उजागिर यादव या कोई भी जो जग जाए वह उसे
पकड़कर बांध देता था।सुबह या जब भी रामजतन काका खेतवाई करने आते थे तो चरी हुई फसल
को देखकर मां,
बहिन की इतनी
गाली देते थे कि आज कोई सोच नहीं सकता,और आज देने पर तो लाठी चलना दूर भयंकर मारपीट हो जायेगी।जबकि जिसको गाली से
नवाजते थे हम सभी उनके अपने ही थे।जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि वे मन में
कुछ नहीं रखते थे।शाम को प्रायः हमारे घर आ जाते थे(सुबह गरियाते थे उसी दिन शाम
को ही)और देर तक बैठते थे,
चाय पानी होता
था,लगता है कुछ हुआ ही नहीं है।कितनी समझदारी
थी।लेकिन यदि कोई गाय,
भैंस चराने
सिवान में गया है और किसी गोवंश ने किसी के खेत में मुंह डाल दिया तो चरवाहे को
गाली और कई बार थप्पड़ भी सहन करना पड़ता था,इसीलिए पुरनियों ने कहा था कि "खेत खाय बकरी, मार खाय जुलाहा", अब जब 70 वर्ष बाद देश में बहुत कुछ नया हो रहा है(माननीय लोगों का कहना है) और विकास
के लिए जरूरी भी है,अब यह कहावत अपना अर्थ खो चुकी है,क्योंकि जानवर खुलेआम फसल चर रहे हैं ’जैसे किसान की छाती पर, मूंग दल रहे हों ’।
अब परिवर्तन की लहर आ गई है,लेकिन अफसोस कि
काका अब रहे नहीं,रामराज्य को देखने के लिए।जबसे प्रदेश में
कल्याणकारी सरकार आई है,पशुओं के कल्याण के लिए उनके हित में बहुत
बड़ा फैसला किया कि अब जानवर स्वतंत्र रूप से फसलों को चरें या रौंदे कोई कुछ नहीं
बोलेगा,सरकार ने बहुत से खेत वाले,फसल लगाने वाले किसानों को प्रति परिवार
रोजाना 16.50
रुपए देकर उनका
मुंह बंद कर दिया है(एक किसान के परिवार में प्रायः 5 या 7 लोग होते हैं,रोज की यह सम्मान राशि काफी है,प्रति व्यक्ति रोज कितना हुआ आप स्वयं
निकालिए),शेष लोग मनरेगा में काम करें,जहां पर भी लगभग मुफ्त ही मजदूरी मिलती है, कम काम,अधिक दाम,खेती करके कौन निकाले अपने प्राण।सबसे मजेदार
तो यह लगता है कि पहले जो कुत्ते छूटे हुए जानवरों को देखकर भौंकते थे अब छुट्टा
जानवरों को देखकर भी नहीं भौंकते,यह पता करना
मुश्किल हो गया है कि कुत्ते जानवरों के साथ हो गए हैं? या सरकार के सहयोग में आ गए हैं ?किसान भी क्या करे किसे गाली दे जब लोग अकेले
ही हैं,केवल झोला या अचला ही साथ है। यहीं इसका अंत
नहीं होता कुछ ऐसे भी किसान हैं, जिन्हें सम्मान निधि नही मिलती,उसे लेने में उन्हें अपना सम्मान खोता हुआ दिखाई देता है या लेखपाल व
सेक्रेटरी अथवा सरकारी मशीनरी के शिकार हैं,वहां मांग और आपूर्ति में अंतर होने के कारण वे वंचित रह जाते हैं,इस सुविधा का लाभ नहीं उठा पाते हैं।ऐसे
किसान दिन भर खेत में हाड़तोड़ मेहनत करते हैं और रात में जागकर छुट्टा जानवरों को
हांककर किसी पड़ोसी खेत में करके अपनी फसल बचाने का यत्न करते हैं।
अभी तक वृद्धाश्रम व्यक्तियों के लिए बने थे,कुछ लोग परिवार द्वारा इतने उपेक्षित किए गए कि जिस परिवार को बढ़ाने में पूरी
जवानी लगा दी,उसी परिवार में अब केवल मार्गदर्शक की भूमिका
में हैं,जो सलाह तो दे सकते हैं,लेकिन अनुपालन की कोई गारंटी नहीं है।अब ऐसे
आश्रय स्थल गोवंश के लिए या बेरोजगार सांडों के लिए भी बन गए हैं,लेकिन वहां वे सुखी कम हैं क्योंकि सरकारी
नियंत्रण में हैं,व्यक्तिगत आजादी छिन गई है,ऐसा उनकी कद-काठी देखकर लगता है।हमने माता को
भी अलग कर दिया,कंटीले तार या चहारदीवारी में कैद, बेटा स्वतंत्र होकर चाहे जहां मुंह मारे,’आगे नाथ न पीछे पगहा,खाय मोटाय भयेन गदहा’।
बहुत से ऐसे गौ
रक्षक हैं,जिन्हें हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं,लेकिन जिन्होंने शायद ही कभी गोवंश का
पालन-पोषण,सानी - पानी,गोमूत्र- गोबर स्वयं किया हो।वह हम किसानों की या गोपालकों की पीड़ा नहीं
महसूस कर सकते हैं।खैर उससे हमारा कोई मतलब नहीं है।मूल बात यह है कि जानवरों
द्वारा किसान द्वारा उगाई गई, कच्ची या तैयार हुई फसलों को चराने या रौंदवाने,बरबाद करवाने का जो चमत्कारी कार्य इस समय हो रहा है,जिससे किसान परेशान, हलकान तो है लेकिन प्रतिवर्ष 6000 की किसान सम्मान निधि पाकर चुप है या वेवश है?यह वक्त पर छोड़ते हैं।कहा भी गया है कि हर
सय वक्त का गुलाम।
जोहार धरती मां,जोहार प्रकृति,जोहार किसान
डा ओ पी चौधरी
समन्वयक, अवध परिषद, उत्तर प्रदेश ,सम्प्रति,एसोसिएट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी मो 9415694678 Email: opcbns@gmail.com
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