रविवार, अगस्त 02, 2020

"गीत मल्हार"-मनोज कुमार चंद्रवंशी

"गीत मल्हार"

पिया गए  परदेश  सुनसान  हृदय  आँगन।
स्निग्ध  स्मित  नीरस   बिन  प्रिय  साजन॥
              कैसे गाऊँ मैं गीत मल्हार।

निष्ठुर  काली   कोयलिया  कुहुक  रही  है।
हृदय में अंतर्द्वंद कंठ स्वांस  सूख  रही  है॥
             कैसे गाऊँ मैं  गीत मल्हार।

दर्द  भरा  है  बदन  में सदन में  हूँ  अकेली।
हिंडोला झूलते दृष्टिगोचर न कोई अलबेली॥
              कैसे गाऊँ  मैं गीत मल्हार।

आशा  की  असंख्य  रश्मियाँ  बुझ  चुकी  है।
अब  स्वांस  डोर  अधर   में   रुक  चुकी   है॥
            कैसे गाऊँ मैं  गीत मल्हार।
क्रोध अग्नि ज्वलित हिय  में  मन  है बेहाल।
नित  दिन खटक  रहा कोरोना का  जंजाल॥
            कैसे गाऊँ मैं  गीत मल्हार।

बंद पड़े  हैं  मंदिर,  मस्जिद,  चर्च,  गुरुद्वारे।
चारु  चंचल  चित्त  स्थिर   मन  के  हूँ  मारे॥
          कैसे गाऊँ मैं  गीत मल्हार।
सावन  कजरिया  की  सुन मधुर  सुर ताल।
मन विक्षिप्त  तन अग्नि  ज्वलंत विकराल॥
         कैसे गाऊँ मैं  गीत मल्हार।

असहनीय कसक  सकल बदन अकुलाए।
स्वर्णिम  स्वप्न  अधूरी  कुछ  न  मन भाये॥
          कैसे गाऊँ मैं  गीत मल्हार।
सजल नयन टकटकी  पिय पथ की ओर।
सुहागन उजड़ा मिटा  काजल  दृग  कोर॥
        कैसे गाऊँ  मैं  गीत मल्हार।

पग रंग  बिरंगी  महावर  फीकी  पड़ गई।
अब हाथों की सुवासित  मेहंदी मिट गई॥
         कैसे गाऊँ मैं  गीत मल्हार।

                  रचना✍
        स्वरचित एवं मौलिक
       मनोज कुमार चंद्रवंशी
     जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश
    रचना दिनाँक-25/07/2020
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