मेरा गांव-अभी शहर नहीं हुआ
घुसते हुए हर किसी ने घर की चौखट को छुआ।
मेरा गाँव, अभी भी गाँव ही है शहर नही हुआ।।
हर खुलती दुकान बताती है गाँव शहर हो रहा है।
जाने क्यूँ इसी बात से डर भी बहुत लग रहा है।।
छुड़ाए जाते हैं आम के छालों से अब भी बुखार।
नीम अब भी बन जाती है मुखारी हर दिन हर बार।।
पीपर के नीचे अब भी बिताई जाती है दोपहर।
अब भी हर मुडेर पर उगलता है कौआ जहर।।
दौरी हांकते हुए अब भी कोई थकता नही।
बड़ों की पंगत में अब भी छोटा बैठता नही ।।
खटिया पे बैठने का मजा अभी खत्म नही हुआ।
मेरा गाँव, अभी भी गाँव ही है शहर नही हुआ।।
©जागेश्वर सिंह ज़ख़्मी
रचना दिनांक:-09/03/2020
घुसते हुए हर किसी ने घर की चौखट को छुआ।
मेरा गाँव, अभी भी गाँव ही है शहर नही हुआ।।
हर खुलती दुकान बताती है गाँव शहर हो रहा है।
जाने क्यूँ इसी बात से डर भी बहुत लग रहा है।।
छुड़ाए जाते हैं आम के छालों से अब भी बुखार।
नीम अब भी बन जाती है मुखारी हर दिन हर बार।।
पीपर के नीचे अब भी बिताई जाती है दोपहर।
अब भी हर मुडेर पर उगलता है कौआ जहर।।
दौरी हांकते हुए अब भी कोई थकता नही।
बड़ों की पंगत में अब भी छोटा बैठता नही ।।
खटिया पे बैठने का मजा अभी खत्म नही हुआ।
मेरा गाँव, अभी भी गाँव ही है शहर नही हुआ।।
©जागेश्वर सिंह ज़ख़्मी
रचना दिनांक:-09/03/2020
2 टिप्पणियां:
ati sundar
सराहनीय प्रयास
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