गुरुवार, अक्टूबर 24, 2019

नाकाम कोशिशें:सुरेन्द्र कुमार पटेल की कविता

नाकाम कोशिशें
हर बार!
होता है भार!
मन में कुछ करने का!
उसमें खरा उतरने का!

जब भी मैं मुस्कराऊँ,
सवालों से दागा जाऊँ।
क्या राज है, क्या छुपा रहे हो।
आज तुम क्यों मुस्कुरा रहे हो।
मैं क्या बताऊँ!
कि मैं यूं ही मुस्कुराऊँ?
नहीं, नहीं मानते लोग।
फिर ढूढ़ना पड़ता है कोई संयोग!
और इसी तरह,
वजह, बेजह।
पड़ता है बताना,
बहुत कुछ छुपाना।
बाहर, घर पर!
मेरे प्रिय सर!

यूं ही,
कुछ भी।
करता हूँ
पर डरता हूँ।
कोशिशों पर आप,
नहीं देंगे थाप।
पूंछेंगे,
कूटेंगे।
यदि मैं गया हार!
क्या आप करेंगे स्वीकार?

हर बार!
होता है भार!
मन में कुछ करने का!
उसमें खरा उतरने का!

मेरे हाथ में मिट्टी दो,
उसमें कंकड़ दो, गिट्टी दो।
मैं मूर्ति,
सजीव और स्फूर्ति।
बनाऊँ,
मिटाऊँ।
मिट्टी में गाडूं,
बनाकर बिगाडूँ।
पहरा, 
गहरा।
बिठाने की,
मुझे मिटाने की।
साजिश,
कोशिश।
मुझे कुछ करने नहीं देगी,
मिट्टी से कुछ गढ़ने नहीं देगी।
वह भी मिट्टी,
मैं भी मिट्टी।
मिट्टी,
मिट्टी।
मिल जाने दो,
खुल जाने दो।
फिर आए जो आकार,
क्या आप करेंगे स्वीकार?

हर बार!
होता है भार!
मन में कुछ करने का!
उसमें खरा उतरने का!

खुशबू मिलेगी
पर तब,
जब 
वह खिलेगी।
पर डंठल,
और पत्तल।
इनका योगदान,
आपको है भान?
कली,
जहाँ से निकली।
थी कहीं लिखी हुई कोई शर्त,
कि कोशिश होगी नहीं व्यर्थ।
केवल तभी,
जब सभी।
कोशिशों के साथ,
बनाएंगे नया पाथ।
फिर भी,
यदि मैं हो  जाऊं लाचार।
क्या आप करेंगे स्वीकार?
हर बार!
होता है भार!
मन में कुछ करने का!
उसमें खरा उतरने का!
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