शनिवार, अगस्त 17, 2019

लिखना क्यों जरूरी है?


      लिखने वालों को प्रायः इस दुविधा का सामना करना पड़ता है कि लिखना क्यों जरूरी है? लिखना, व्यक्ति की एक रुचि है, यह कोई पेशा है या मनोरंजन का साधन? या फिर कुछ और?  सच्चिदानंद अज्ञेय ने भी लिखा है-“मैं क्यों लिखता हूँ?” जिन लिखने वालों को यह प्रश्न बार-बार परेशान करता हो, उन्हें उनके इस निबंध को जरूर पढना चाहिए.
      लिखना रुचि का विषय है परन्तु सिर्फ रुचि के दम पर लिखा नहीं जा सकता. रुचि लिखने में मददगार हो सकती है. यह लिखने के रास्ते में आने वाले उबाऊपन को एक हद तक कम कर सकती है. उसे सरस बनाये रख सकती है. पर क्या कोई सिर्फ अपनी रुचि को पूरा करने के लिए लम्बे समय तक लिख सकता है? 
      यदि कोई लम्बे समय तक लिखता है तब क्या लिखना किसी का पेशा हो सकता है? यदि ऐसा होता तो जिस तरह सडक किनारे और चीजें बिकतीं हैं, लिखने वाले भी अपने लिखने का बोर्ड लगाकर लिख रहे होते. यह एक सीमा तक मन को प्रमुदित करता है. इसलिए कह सकते हैं कि लिखना मनोरंजन है. परन्तु हर लिखने में मनोरंजन नहीं होता. कुछ लिखा हुआ ऐसा भी होता है जो मन को शांत करने के बजाय उसे और अधिक उद्वेलित कर देता है. मन को अशांत कर देता है. मन को क्षोभ और पीड़ा से भर देता है. ऐसे में लिखना कोरा मनोरंजन भी नहीं हो सकता.
      प्रत्येक जीव जब जन्मता है, स्वयं को अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है. अंडे से निकलते ही चूजा चीं-चीं करने लगता है. मनुष्य भी जब नवजात शिशु के रूप में जन्मता है, एक विलक्षण रुदन से स्वयं के होने का एहसास कराता है. यदि वह ऐसा करने में असमर्थ होता है तो उसके परिजनों को उसके स्वास्थय की चिंता होने लगती है. अतः स्वयं को अभिव्यक्त करना मनुष्य का ही नहीं अपितु जीवमात्र का स्वभाव है. फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्टेयर ने इसीलिये कहा था, “तुम जो कह रहे हो मैं उससे सहमत नहीं हूं, लेकिन मैं मरते दम तक अपनी बात रखने के तुम्हारे अधिकार की रक्षा करूंगा.”
        भारतीय संविधान की उद्देशिका में भी विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का उल्लेख है. विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मूर्त रूप देने के लिए भारतीय संविधान में अनु. 19(1)(क) में वाक-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का प्रावधान किया गया है. भारतीय संविधान निर्माण सभा के मनीषियों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को समझा और इसे संवैधानिक प्रावधानों में शामिल किया. वह इसलिए कि अभिव्यक्ति व्यक्ति का स्वभाव है. किसी को अभिव्यक्त होने से रोकना उसे कारागार में डालने से भी अधिक सख्त दंड देने के समान है.
        लिखना स्वयं को अभिव्यक्त करना है. मानव-मन अपने भौगोलिक परिवेश के चारों और जो भी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक इत्यादि क्रियाओं  को देखता है उसके सम्बन्ध में उसके मन में कुछ सहज सवाल उठते हैं, जिन्हें वह अभिव्यक्त करना चाहता है.
       कहना, पानी का बहना है. किसी के कहने को रोकना, पानी के बहाव को रोकने जैसा है. यदि हम बहते पानी को रोकने की कोशिश करेंगे तो वह दबाव पैदा करेगा जो आगे चलकर विनाश का कारण बनेगा. ठीक वैसे ही सहज सवालों को अभिव्यक्त करने से रोके जाने पर प्रश्न मनुष्य के मन में विद्रोह पैदा करता है. जिसका परिणाम असन्तुलित विचारशैली और कुंठा है. किसी को अभिव्यक्त होने से रोकने पर व्यक्ति मनोरोगी तक हो सकता है. एक तरह से अभिव्यक्ति, व्यक्ति की संचित ऊर्जा का सही तरीके से निर्गमन है. यदि ऐसा नहीं होगा तो वह ऊर्जा भटककर गलत तरीके से निर्गत होगी जिसके परिणाम स्वरुप व्यक्ति असामाजिक गतिविधियों में संलिप्त हो सकता है.
      जब कोई लिखता है, भले ही वह किसी और के बारे में लिख रहा हो, वह स्वयं को लिखे बिना नहीं रह पाता. ऐसा होता ही नहीं है, जबकि होना चाहिए कि व्यक्ति के व्यक्तित्व की छाप उसके लिखने पर न पड़े. लिखना, भले ही किसी और विषय पर हो, परंतु व्यक्ति उसके साथ-साथ खुद के बारे में भी लिखता है. अतः लिखना वास्तव में स्वयं के व्यक्तित्व का प्रतिबम्ब तैयार करना है. कोई व्यक्ति खुद गलत प्रतिबिम्ब नहीं  बनाना चाहेगा, इसलिए वह  औरों से कहीं अधिक सावधान रहता है. और इसीलिये कहना चाहिए कि लिखना  अन्ततः व्यक्ति में सुधारवादी सोच पैदा करता है.
       यदि आप नहीं लिखते हों, किसी घटना के बारे में आपका दृष्टिकोण कुछ होगा, किन्तु यदि आप लिखते हों, उसी घटना के बारे में आपका दृष्टिकोण दूसरा होगा. आप उन समस्त सांसारिक चीजों से वैसे ही रूबरू होते हैं जब आप कुछ नहीं लिखते हैं और तब भी आप उन समस्त सांसारिक चीजों से वैसे ही रूबरू होते हैं,जब आप लिखते हैं, परन्तु दोनों ही स्थितियों में सांसारिक चीजों के सम्बन्ध में आपके विचार भिन्न होते हैं. यदि लिखने वाला स्वयं को न लिखने वाला मानकर अपने नजरिये की पड़ताल करे तो उसे महसूस होगा कि वह अपने से, जैसा अभी है, वह सर्वथा भिन्न होता, यदि वह लिख नहीं रहा होता. लेखन व्यक्ति में एक आम व्यक्ति से भिन्न दृष्टिकोण पैदा करता है जो समुदाय का सही मार्गदर्शन करने में बहुत काम आता है.
      लिखना, तब तक नहीं हो सकता जब तक व्यक्ति का मन जिग-जैग गति से गतिमान हो. मनोभावों को कलम के सहारे कागज में उतारने तक मन को एक लम्बा रास्ता तय करना होता है. जिसमें  उसे शनैः शनैः जिग-जैग गति से सरल रेखा में लाना होता है. विचारों को आने देना, फिर उसका विश्लेषण करते हुए उसे एक निश्चित क्रम में पिरोना बहुत संयम का काम होता है. किसी चंचल बालक को साधने में यह उपाय काफी कारगर हो सकता है. उसे उसके मौलिक विचारों को कागज़ में उतारने को कह दिया जाये. इस प्रकार लिखना, व्यक्ति में संयम और अनुशासन लाता है.
       लिखना, अध्यात्म में प्रवेश करना भी है. जिसका मन हमेशा उद्विग्न और अशांत रहता हो, उसे स्वयं के द्वारा निश्चित किये हुए विषय पर हर रोज कुछ न कुछ लिखना चाहिए. जब वह लिखने बैठेगा, प्रारम्भ में भले ही कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़े, किन्तु कुछ समय बाद वह अपने लिखने पर इतना एकाग्र  हो जायेगा कि स्वयं को सांसारिक चिंताओं से मुक्त पायेगा. उसका मन पूरी तरह शांत हो चुका होगा. ठीक वैसे ही जैसे कोई ध्यानस्थ समस्त चिंताओं से मुक्त होता है.
      आज हम जिस सभ्य समाज में रह रहे हैं, वह चिंतकों के चिंतन का परिणाम है. भले ही हमारे पास किसी विषय पर चिंतन करने का समय न हो, जैसा कि अक्सर हम कहते हैं, किन्तु जिन भौतिक सुविधाओं का हम उपभोग कर रहे हैं वह किसी के चिंतन का प्रतिफल है. चाहे वह कोई वैज्ञानिक आविष्कार हो या राजनैतिक व्यवस्था सब कुछ चिन्तन का ही परिणाम है. चिंतन समाज में गति लाता है, जबकि अचिंतन समाज में जड़ता पैदा करता है. इतिहास इस बात का  साक्षी है कि जिस सभ्यता में गत्यात्मकता नहीं रही, वह स्वयम को बचा नहीं सका. लिखना, समस्त प्रकार के चिन्तनों की तिजोरी है. आप चिंतन करते हैं परन्तु वह नष्ट हो जाता है यदि आप उसे लिपिबद्ध नहीं करते. इसलिए समुदाय को अधिक गतिमान बनाए रखने के लिए चिंतन आवश्यक है और उस चिंतन को संजोने के लिए लिखना आवश्यक है.
       जब कोई लिखता है, वह सिर्फ समस्याओं की बात नहीं कर सकता वह उन समस्याओं के सम्बन्ध में बेहतर उपाय भी बताता है. इस रूप में वह लिखकर समुदाय का नेतृत्व करने की कोशिश करता है. जबकि वह कोई भीड़ इकट्ठी नहीं करता और न ही कोई सभा करता है किन्तु बहुत शांति से वह समुदाय का नेतृत्व करता है. लिखने के अभाव में हम न जाने कितने नेतृत्वकर्ताओं को खो रहे हैं. उनकी इस क्षमता से समुदाय को वंचित कर रहे हैं.
        नवीन तकनीक के आविष्कार और उनके अनुप्रयोगों के बाद लिखने का उत्तरदायित्व और अधिक बढ़ गया है. आज हमारे बच्चे  के हाथ में इन्टरनेट सेवायुक्त मोबाइल है, जिसमें वह इन्टरनेट के माध्यम से आसानी से उन सामग्रियों तक पहुँच बना सकता है जो उसके लिए वर्ज्य हैं. ऐसे में यह हमारी जिम्मेदारी है कि इन्टरनेट पर ऐसी अच्छी सामग्री  की उपलब्धता हो जिसमें न केवल वह रमे, रुके बल्कि ऐसी शिक्षा भी प्राप्त करे जिससे वह वर्ज्य सामग्रियों तक पहुँचने से स्वयम को रोक सके. यह कार्य और अधिक आसान हो सकता है यदि हम इन्टरनेट पर बच्चों को केवल पाठक की हैसियत से न पहुचायें बल्कि उनकी सहभागिता के अवसर भी सुनिश्चित करें. इन्टरनेट पर अनेकानेक ऐसी पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध हैं जहाँ उन्हें अभिव्यक्ति का अवसर प्राप्त हो सकता है. परन्तु वहाँ अवसर तभी प्राप्त होगा जब रचनाओं का स्तर सामान्य तक ठीक हो. इसके लिए यह आवश्यक है कि उसकी पूर्व तैयारी के लिए उसका कोई अपना घरेलू प्लेटफॉर्म उपलब्ध हो जो उसकी कमियों के बावजूद उसे प्रोत्साहन देने का काम करे.
         लिखना हमारी भाषाई क्षमता को भी मजबूत करता है. लिखते समय व्यक्ति व्याकरण की पड़ताल कर सकता है, क्योंकि लिखते समय वह अधिक सावधान होता है जबकि बोलते समय उसे इतनी आजादी नहीं होती. बार-बार व्याकरण सम्मत लिखने से भाषाई शुद्धता आदत का हिस्सा हो जाती और कम त्रुटियाँ होती हैं जिसका प्रभाव हमारी संवाद शैली पर पड़ता है.
        समाज में  क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए लिखना बेहद जरूरी है. और लिखने के महत्व को इस पंक्ति से समाप्त करना उचित होगा कि-
न खीचों कमानों को न तीर निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालों.

प्रस्तुति- सुरेन्द्र कुमार पटेल 

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3 टिप्‍पणियां:

Er. Pradeip ने कहा…

Very useful article Surendra ji
Er. Pradeip

सुरेन्द्र कुमार पटेल ने कहा…

बहुत-बहुत आभार प्रदीप जी। आपके विचारों की हमेशा प्रतीक्षा रहेगी।

Sarita patel ने कहा…

Sahi kaha apne insan ko kuchh na kuchh hamesha likhna hi chahiye. usse aankh, kan, muh & mind hamesha up to date rahte hai.

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