शुक्रवार, अक्टूबर 11, 2019

बेटियां:कुलदीप(के.डी) की कविता


(अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस 11 अक्टूबर)

बेटियां 
कुलदीप पटेल (के.डी)


बेटियां किस कदर जकड़ी हुई हैं, हैवानियत की जंजीरों में।
क्या सच में लिखा ही है ऐसा उनकी हाथों की लकीरों में।
कल तलक जो किसी फ़िल्मी पर्दे पर हमें दिखाई देता था,
आज वो खुल के देख रहे हैं हम, आज की ही तस्वीरों में।

देखो, कैसे यहाँ दिनों-दिन बेखौफ दरिंदगी पनप रही है।
दहशत में है बेटियों का बचपन, खुशियां सिमट रही हैं।
चील, गिद्ध की तरह देह नोचने वाले आज़ाद घूम रहे,
इंसाफ मांगने वालों की अखबारों में जिंदगी तड़प रही है।

उम्र का लिहाज कहाँ, मार रहे मासूमों की मासूमियत को।
आज भी जिंदा हैं वो, देख शर्म आ रही है इंसानियत को।
अब इनके वास्ते सरकार कोई तो ऐसा क़ानून बनाए ही,
जो जड़ से खत्म करे इनको और इनकी शैतानियत को।

दोषियों को फांसी देने कानून बनाओ, मत छोड़ो गद्दारों को।
बर्दाश्त की हद पार हुई, अब छोड़ो न बेटियों के हत्यारों को।
कल का भविष्य तभी बेहतर है जब आज बेटियां सुरक्षित हैं,
हम सब जागरूक बनें और बनाये, फैलने न दे अत्याचारों को।

बेटियों को दाग भरा जीवन नहीं, खुशियों का संसार चाहिए।
उड़ान भरें वो अपने सपनो में कोई ऐसा आसमान चाहिए।
कदम से कदम मिलाकर चल सकती हैं वो सबके साथ,
उन्हें मुश्किलों से लड़ना आता नही, कोई रास्ता आसान चाहिए।

जिन्हें बेटियां बोझ लगती हैं, वो खुद पर विचार करें।
जिन्हें बेटों में बारिस दिखता है, वो बहू को क्यों हकदार करें।
अगर कल, आज से बेहतर और अच्छा समाज चाहिए तो,
बेटा और बेटी में कभी भी कोई, अलग-सा न व्यवहार करें।
कल्लेह, तहसील-जयसिंहनगर,जिला शहडोल (मध्यप्रदेश)
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3 टिप्‍पणियां:

Surendra S.Patel ने कहा…
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Surendra S.Patel ने कहा…

बहुत सुंदर लाइन कुलदीप

Satish Kumar Soni ने कहा…

सराहनीय कविता है। उम्मीद है लोग इससे कुछ सीख जरूर लेंगे।

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