अनावश्यक शोर में दबती आवाजें
क्या हम वास्तव में एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिसमें शब्द अपनी महत्ता खोते जा रहे हैं लेकिन उन शब्दों की अभिव्यक्ति का तरीका अपनी महत्ता स्थापित करता जा रहा है। क्या शांतिपूर्वक कही जा रही बात हमारे कानों पर असर नहीं करती? क्या हमारी दृष्टि औरों के आकर्षण का मोहताज हो गयी है? क्या अखबार केवल सनसनीखेज खबरों के लिए पढें जाने चाहिए? क्या अखबारों में वह सब छपना जो अब भी समस्याएं हैं किन्तु वह हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गई हैं, कोई खबर नहीं है? क्या लोगों का यूं ही पढ़ना अब आवश्यक नहीं रह गया है?
विगत कुछ दिनों पूर्व हमने महात्मा गांधी का 150वाँ जन्मदिन मनाया। महात्मा गांधी ने जिस सत्य को अपने संघर्ष का अस्त्र बनाया उसे उन्होंने कभी जोरशोर से कहने का दुराग्रह नहीं पाला । सत्य तो सत्य है, उसे आप धीमी आवाज में कहें या जोर से कहें, वह असत्य नहीं होता। कहने में आवाज की तीव्रता सिर्फ उतनी हो कि जिससे हम यह कहना चाहते हैं बात उसको सुनाई पड़ जाए। पर क्या सच में इतने से कोई सुन पाता है? सुनने वाले का यह उत्तरदायित्व है कि वह सुनने के बाद इस बात की इत्तिला करे कि उसने बात सुन ली है।
अब कहने और सुनने वाले एक-दूसरे की परवाह नहीं करते। सुनने वाला इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं करता कि उसका शोर मचाना सुनने वाले को बहरा कर सकता है और सुनने वाला यह उत्तरदायित्व नहीं समझता कि कहने वाले को इसकी इत्तिला दे कि उसने बात सुन ली है। बात केवल टीवी और अखबारों की नहीं है। बात हमारे दैनिक व्यवहार की भी है। शुरुआत कहाँ से हुई? लोग चिल्लाकर ही अपनी बात क्यों कह रहे हैं? जिस बात में बहुत कम ऊर्जा की आवश्यकता थी, उसे इतनी अधिक ऊर्जा देने की जरूरत क्यों है? जरा सोचिए।
यह समस्या कहाँ - कहाँ है, यह विचारने से अच्छा है कि यह विचारा जाए कि यह समस्या कहाँ नहीं है, टीवी में होते शोर को देखकर मैंने टीवी देखना बन्द कर दिया। वहाँ शब्दों की महत्ता नहीं थी, शब्दों को किस आक्रामकता के साथ बोला गया है, इसकी महत्ता थी। लेकिन अखबारों के साथ क्या किया जाए? दैनिक जीवन की समस्याएं जो दीर्घकाल से है, जिसमें गरीबी है, अशिक्षा है उसे वह स्थान कभी मिल ही नहीं रहा है। सनसनीखेज खबरों को हेडिंग बनाते अखबारों के लिए आम लोगों की आम समस्याएं इतनी आम हो गयी हैं कि उसको छापना उनका कर्तव्य नहीं रह गया है। इसके लिए मैंने तरीका अख्तियार किया है कि सनसनीखेज खबरों की मोटी हेडिंग वाली खबरों की सिर्फ हेडिंग ही पढ़ता हूँ।
आप व्हाटसअप में आई चीजों पर गौर नहीं करते जब तक कि उसमें गाढ़े काले कलर में बीच-बीच में अक्षरों को उभारा नहीं गया हो। सोशलमीडिया में आक्रामकता के साथ दिए गए भाषण खूब सुर्खियां बटोरते हैं। उन्हें बहुत अधिक मात्रा में सोशलमीडिया प्लेटफाॅर्म पर साझा किया जाता है।
ज्यादा जोर देकर कहना सत्य कहने का पैमाना बन गया है। जिसकी आवाज ऊॅंची सत्य केवल वही ऐसी हमारी धारणा बन गई है। जबकि आप जानते हैं लाचार, बेवश की आवाज ऊॅंची हो ही नहीं सकती। ऐसे में सबसे अधिक नुकसान उन जरूरतमंदों का होता है जो अपनी बेवशी ऊॅंची आवाज में नहीं कह सकते। इसे आप हर जगह अनुभव करते होंगे। अपराधियों ने इसे अस्त्र बना लिया है। अपराध से बचने के लिए वह पैसों के बल पर अपनी आवाज इतनी ऊॅंची कर लेते हैं कि अपराधी निर्दोष प्रतीत होता है और पीड़ित व्यक्ति अपराधी घोषित हो जाता है।
यह समस्या केवल टीवी और अखबारों की नहीं है। व्यक्ति के दैनिक व्यवहार में यह समस्या परिलक्षित हो रही है। परिवार के चार लोग जब आपस में बात करते हैं तब उसी की बात ध्यान से सुनी जाती है जो चिल्ला-चिल्लाकर अपनी बात कहता है। इसका असर आपको अपने बच्चों में भी दिखाई पड़ता होगा। शांति और शालीनता से कही गई बात न कहने के बराबर हो गया है। शान्ति से कही गई अप्रिय बात आपमें वह मानसिक उत्तेजना पैदा नहीं कर पाती जो प्रिय किन्तु जोरशोर से कही गई बात कर देती है।
राजनीति में इसका प्रयोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए किया जाता है। किसी खास राजनीतिक दल के नेता अपने कार्यकर्ताओं को दूसरों के विरु़द्ध भड़काने के लिए प्रायः ऊॅंची आवाज में भाषण देते हैं, डिबेट आयोजित कराते हैं। इसका उन्हें जबर्दस्त फायदा मिलता है। इसका फायदा उन अधकचरा दिमाग के नवयुवकों को भड़काने में मिलता है जो प्रायः समझते हैं कि वह अमुक पार्टी के राजनीतिक कार्यकर्ता हैं किन्तु उनकी हैसियत पार्टी के भीतर भाड़े के टट्टुओं से ज्यादा कुछ नहीं होती। ऐसे भड़काए गए युवक ही षड़यंत्र का शिकार होकर असामाजिक और आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं। आखिर शोर से कही गयी बात उन पर काम करती है! किन्तु आप जब अपने घरए परिवार और समुदाय में किसी समस्या के समाधान या सुझाव के लिए इकट्ठे होते हैं तब भी ऐसी ही आक्रामकता? क्यों?
जोरशोर से बात कहने की परम्परा खत्म करने के लिए हमें सुनने का गुण विकसित करना होगा। व्यक्ति छोटा हो या बड़ा किन्तु उसके द्वारा कही गयी बात का आदर करने की आदत विकसित करनी होगी। हमारे भीतर संवेदना का स्तर ऊंचा करना होगा। कम से कम अपने घर-परिवार के बीच ऐसा वातावरण तैयार किया जाना चाहिए जिसमें परिवार के सभी सदस्यों में सुनने का गुण हो। सुनकर आदरपूर्वक उसका जवाब देने की परम्परा हो। अनसुनी कर देने पर कहने वाला पहले से अधिक तीव्रता से कहने के लिए विवश होता है। जब हम किसी समस्या के समाधान पर विचार करने के लिए बैठें तब हमारे कहने की तीव्रता उतनी ही हो जितने से हमारी बात बैठे लोगों तक आसानी से पहुंच जाए। अधिक कोलाहल, मानसिक ग्लानि, अनावश्यक विवाद, आक्रोश और अपराधों के लिए दुष्प्रेरण का कारण बनता है। जबकि आदर और शान्ति पूर्वक कही गयी बात मन को सुकून, शान्ति देता है। आपस में प्रेम भाव विकसित करता है। मानसिक उतावलेपन से बचाए रखता है।
टीवी, अखबार और सोशलमीडिया पर प्रकाशित प्रसारित उतावलेपन की चीजें यदि सिर्फ कहने की तीव्रता के कारण प्रभावित कर रही हैं तो जनमानस को अभी इनके उपयोग का प्रशिक्षण लेना बाकी है।
आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आईडी akbs980@gmail.com पर भेजें,देखें नियमावली ]
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