मानवता: नव चेतना - नव वर्गीकरण
पिछला एक वर्ष , परिवार के साथ बड़े ही आनंद से बीता है। जब साथ में मां भी रहे, घर में डेढ़ दो साल का अबोध बच्चा हो, तो आनंद की कल्पना करना आसान है। मायानगरी में कई महीने बीतने के बाद ऐसा संयोग बना (बेटी के स्कूल में और मेरी ऑफिस में छुट्टी एक साथ) कि इस बार की होली, रीवा में मनाई जाए। सभी लोग साथ में रीवा आ गए। मां कुछ समय बड़े भैया के पास बिताने की इच्छा से गांव चली गईं , मैडम बच्चो के साथ मायके। मै अपनी सीमित छुट्टियां पूरी करके, अपनी बेरोजगारी दूर करने 15 मार्च को मुंबई वापस पहुंच गया। एक हफ्ते बाद लॉक डॉउन की शुरुआत हो गई। आदेश मिला - स्टेचू । तब से 70 दिन हो गए हैं- मरीजों की संख्या गिनते गिनते। अनुभवी लोग कहते हैं, *समय की धारा जब अनुकूल न हो तो अपनी योजना बनाएं , लेकिन रुककर नहीं, धारा में बहते बहते* ।
खूब समय मिला, खुद से संवाद का, स्वयं से साक्षत्कार का एवम् मानवता की सेवा में सहयोगी बनने का , पिछले 60-65 दिनो मे शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो, जिसमे सेवा में सहयोग करने का अवसर न मिला हो। संभवतः इसीलिए एक नई बात समझ में आई। नव चेतना से जन्मे , नव वर्गी वर्गीकरण के विचार आप सब को समर्पित है 🙏
बुद्धिजीवियों ने विश्व का वर्गीकरण कई रूपों में किया है, उनमें से प्रमुख वर्गीकरण हैं : देशों के आधार पर (राजनीतिक सत्ता- लगभग 200 देश), धर्मो के आधार पर (धार्मिक सत्ता- लगभग 10), आर्थिक आधार पर ( उच्च , मध्यम & निम्न - एवम् मध्यम वर्ग में भी उच्च मध्यम & निम्न मध्यम वर्ग इत्यादि) । फिर हर धर्म में कई संप्रदाय / जातियां / वर्ग मौजूद हैं ।
दुनिया के वर्गीकरण का एक और तरीका भी है: *किसी भी क्षण दुनिया को दो भागो में बांट सकते हैं* -
1. साधन संपन्न समूह ( *साधन समूह* ) एवम् 2. जरूरत मंद ( *जरूरत समूह* )
इन दोनों भागों में समाहित इंसानों की संख्या, एवम् इंसान , हर पल परिवर्तन शील हैं। अर्थात जो व्यक्ति सुबह साधन समूह में है, हो सकता है, दोपहर होते होते जरूरत मंद बन जाए, खुद को जरूरत समूह में पाए। कभी कभी ये संक्रमण और भी कम समय में हो जाता है। आइये एक उदाहरण से बात समझने का प्रयास करते हैं: रमेश भाई रोज सुबह अपनी बाइक लेकर मित्तल साहब की कार साफ करने जाते हैं। 1 मार्च को भी कार साफ की, 500 रुपए का नोट (महीने की पगार) लिया और निकल लिए अगली कार की ओर। एक घंटे बाद, मित्तल साहब और उनका ड्राइवर एयरपोर्ट के लिए रवाना हुए, लेकिन किस्मत खराब थी, कार बीच रास्ते में बिगड़ गई, समय बहुत कम बचा है, फ्लाइट छूटने की नौबत आ गई। कुछ को हाथ दिया पर कोई रुका नहीं। मित्तल साहब खुद को कोशने लगे कि थोड़ा और पहले निकलते तो मार्जिन रहता, काश! ये गाड़ी बेचकर नई ले ली होती.... कई संचारी भाव आते - जाते रहे, ऐसा लगने लगा कि आज फ्लाइट जरूर छूट जाएगी, उनकी दशा बिल्कुल जरूरतमंद वाली हो गई।
संयोग से रमेश भाई, काम पूरा करने के बाद उसी हाइवे से लौट रहे थे तो मित्तल साहब की कार देखकर रुक गए, सारी बात समझने के बाद, मित्तल साहब को बाइक से एयरपोर्ट छोड़ा। मित्तल साहब ने बड़े कृतज्ञता के भाव से रमेश भाई को धन्यवाद दिया , ड्राइवर को फोन पर समझा दिया कि कार ठीक करवा के घर में छोड़ दे। इस कहानी में दोनों पात्र एक दूसरे के पूरक हैं ।
ठीक ऐसे ही जैसे मकान एवम् उसमे रहने वाले लोग एक दूसरे के पूरक हैं, भोजन एवम् भूख एक दूसरे की पूरक हैं :ठीक वैसे ही साधन एवम् जरूरत एक दूसरे की नितांत पूरक हैं, अर्थात साधन समूह एवम जरूरत समूह भी एक दूसरे के पूरक हैं। मेरी अन्तर्मन कहता है कि सदियों पूर्व दोनों समूह , बड़े ही समभाव से रहते रहे होंगे। इनमे याचक व दाता का भाव नहीं रहा होगा।
दोस्तों,
जरूरत मंदी के कई आयाम होते हैं, सतही तौर पर मै सिर्फ भौतिक वस्तुओं के जरूरत मंद को ही असली जरूरत मंद समझता था, किन्तु लॉक डॉउन में 70 दिनो से 3 कमरों वाले घर में रहने के बाद , कुछ आयामों में खुद को जरूरत मंद महसूस कर रहा हूं, ठीक मित्तल साहब की तरह। आज पूरी दुनिया मे करोड़ों बुजुर्ग (आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के बावजूद) , जरूरत मंद की जिंदगी बिता रहे हैं, नजर दौड़ाइये, अनेक मिल जाएंगे।
मेरा मन कहता है कि दुनियां में ऐसे अनेक संवेदन शील साधन संपन्न इंसान हैं , जो जरूरत मंद की मदद के लिए आगे आना चाहते हैं , किन्तु पिछले कुछ वर्षों में एक अजीब सी बात देखने को मिली है। वो *अजीब बात है: विशेषणों का अनुचित प्रयोग ।* जब भी कोई व्यक्ति/परिवार, परिस्थिति वश, कुछ समय के लिए जरूरत मंद बन जाता है , तो उसके उपर गैर जरूरी विशेषण (धार्मिक/ जातिगत / आर्थिक) चिपका दिए जाते हैं और बात यही से बिगड़ता शुरू हो जाती है। जब कोई हत्या होती है तो सोशल मीडिया में ऐसी खबर बनती है : फलाने गांव में ... दबंगों ने ... जाति/धर्म के लोगों की हत्या की। कभी ऐसा नहीं होता कि अपने आपको हितैषी दिखाने वाले लोग : सोशल मीडिया में परिवार के मुखिया का खाता नंबर दें और ये अपील करें कि इनके परिवार की मदद कीजिए। विश्वास मानिए : अगर बिना विशेषण लगाए, किसी हत्या / लूट की जानकारी दी जाए तो जिस जाति / धर्म के 4 भटके / नासमझ इंसानों ने वह गलत काम किया होगा, उसी जाति/ धर्म/ वर्ग के 40 लोग जरूरतमंद की मदद के लिए तैयार हो जाएंगे। सोशल मीडिया का सिर्फ इस रूप में प्रयोग हो, तो एक बेहतर मानवता का निर्माण संभव है।
हमारा विजन है : *एक ऐसे संसार का निर्माण , जिसमें वर्गी करण सिर्फ और सिर्फ साधन एवम् जरूरत के आधार पर हो और दोनों समूहों में समभाव हो* ।
आप सबके साथ मिलकर, एक बेहतर 🌍मानवता के निर्माण में अपनी भूमिका निभाने को तैयार 🙏
आलेख-
जनार्दन (26 मई 2020)
सीवुड, नवी मुंबई
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