उजालों से डर लगता है
पहचान न ले कोई
पहचान बताने में डर लगता है।
क्या बतलाऊँ अपने बारे में
मैं कौन हूँ और क्या हूँ
हद दर्जे का डर हो तो कह दूँ
रचनाएँ छपवाने में डर लगता है।
कहीं तुम प्यार न करने लग जाओ
मेरी इन छोटी-छोटी रचनाओं से
रचनाएँ तो हैं मन की गांठें
बाहर करने में डर लगता है।
सुनता है क्या कोई दर्द किसी का
बूढ़ी माँ का, बूढ़े पिता का
मैं भी किसी का बेटा हूँ
बेटा कहलाने में डर लगता है।
बटे हुए हैं घर के आंगन
खड़ी हुई हैं ऊंची दीवारें
आज कहूँ किससे कि ये घर मेरा
अपने घर को अपना कहने में डर लगता है।
छोटों-छोटों के भी दर्द बड़े
नफरत पलते जैसे पलता विषधर
बिस्तर-बिस्तर सर्प बिछे हैं
सोने में भी डर लगता है।
दिखता अपनापन लेकिन रूखे रिश्ते
रिश्तों में है बाजारों का असर
जब से बढ़ी है मंहगाई
बाजारों से निकलने में डर लगता है।
व्यवहार हुए हैं अखबारी
व्यवहारों का भी होता विज्ञापन
इनकी होती बिक्री, लगती इनकी बोली
व्यवहार निभाने में डर लगता है।
जो हैं सरकारी, क्यों नहीं असरकारी
सरकारी संस्थान, इमारतें सरकारी
इतने हुए हैं हम बदनाम
कि अधिकारी सरकारी कहलाने में डर लगता है।
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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3 टिप्पणियां:
वर्तमान समाज का दर्पण .. ...I
अच्छे विचार
जिनके अच्छे विचार होते है वो महान होते है
बहुत-बहुत धन्यवाद।
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