शुक्रवार, मई 15, 2020

अब उठो नर( कविता): मनोज कुमार


अब उठो नर (कविता)

अब  उत्तिष्ठ  इस  धरा से  नर,
निज अंतस्थ  में आदम्य  भर।
अब सुपथ  में  अनवरत  चल,
नर विश्राम न कर किंचित पल॥

जीवन में कुछ नव नूतन कर,
मुश्किल है यह  जीवन सफर।
सदा निज लक्षित मार्ग में चल,
अब होगा स्व जीवन  सफल॥

अब  विस्मृत  कर  विगत पल,
सुधि कर नव  जीवन  रसतल।
उत्साहित कर निज हृदय बल,
अब पता नहीं क्या होगा कल ?

पतझड़  ॠतु में गिरते  पात हैं,
प्रमुदित  होंगे उन्हें यह ज्ञात है।
उठ  नर  फिर  क्यों  हताश है ?
अभी तो  जीवंत  की आस है॥

जो आज साधना क्रम में  जुटे हैं,
वे भी  धरा  में   गिर कर  उठे  हैं।
अब रग -रग में निज  साहस भर,
अब  चुनौतियों से तनिक न डर॥

जगत मे कर्मयोग की भक्ति कर,
अब  लक्ष्य  अपना  निश्चित कर।
गिरना, उठना जीवन  का क्रम है,
कामयाबी का श्रेय  निज श्रम है॥

विस्मरण करो उस स्व अतीत को,
सुधि करो  अग्रगामी रणनीति को।
नर सुसुप्त अवनि में बहु काल से,
अब उठो  चिर निद्रा के  काल से॥

यह शपथ करो जीवन अग्रपथ में,
स्व चित् तन्मय हो जीवन व्रत में।
जगत में यह चारू स्वधर्म तेरा हो,
मन चंचल निमिष मात्र न मेरा हो॥

जो जीवन पथ में आगे निकल गया,
तब उसका  गंतव्य सफल हो गया।
उसका जीवन  विजय श्री  हो गया,
सर्वत्र उत्तीर्ण का जयघोष छा गया॥

अब नर स्वलक्ष्य प्राप्त तक जागो,
विलासिता के आकृष्ट में  न भागो।
सुसुप्तावस्था से उठकर बन शिष्ट,
हे! नर अब उत्तिष्ठ, उत्तिष्ठ, उत्तिष्ठ॥
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काव्य रचना:मनोज कुमार चंद्रवंशी (शिक्षक) संकुल खाटी विकासखंड पुष्पराजगढ़ जिला अनूपपुर (मध्य प्रदेश) 
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