इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट, सोशल मीडिया और यहां तक कि हमारे आसपास का परिवेश विमर्श के बहुत सारे विषय हमारे समक्ष छोड़ जाता है। यदि हम जैसा उन्हें देखते हैं, समझे बिना वैसा ही स्वीकार कर लें तो तात्कालिक उलझन कम होती है; मानसिक श्रम कम होता है। किन्तु तब हमें किसी विशेष दिशा में हांके जा सकने की आशंका अधिक रहती है। यदि हम इन विमर्शों को समझने की कोशिश करें तो संभव है हमारी मानसिक उलझन बढ़ जाए। किंतु यह हमारी भावी मुश्किलों को कम कर देता है। 1
किसी विषय को उसके विशुद्ध रूप में जानना हमें निर्णय लेने और उस पर सही राय बनाने में मददगार होता है। वहीं एक विषय को दूसरे विषय के रूप में जानना और उसे मानना कई तरह की गलत धारणाओं को जन्म देता है। जिसका अनुपालन हमें व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं की ओर धकेलता है। धर्म, संस्कृति, परम्परा, और रीतियों की यही स्थिति है। इनके बारे में सही जानकारी न होने के कारण हम इनके कुप्रभावों के शिकार हो रहे हैं।2
हमारी सामाजिक गतिविधियों में शामिल बहुत सी परम्पराओं को हम धर्म समझते हैं। मसलन, यदि उन परम्पराओं का पालन न करें तो हमें ऐसा भय होता है जैसे हमने अधर्म कर दिया। परम्पराओं के विकास का कोई लिखित प्रमाण नहीं होने के कारण उनकी अतीत की आवश्यकता का सही-सही विवरण हमारे पास नहीं होता। उनके अनुपालन की अवज्ञा से उपजी आशंकाओं की एक लंबी सूची अवश्य होती है।3
हमारे मन-मस्तिष्क में जिसका सर्वाधिक प्रभाव है वह है धर्म। धर्म, जिसे व्यक्ति के आत्मा के निकट माना जाता है। और जिसके पालन अथवा अवज्ञा का संबंध कई धर्मों में पूर्व और परवर्ती जन्मों से भी है। धर्म के संबंध में किसी को बोलने की आजादी नहीं है। ऐसा लगभग हर पंथ, हर साम्प्रदायिक विश्वास में है। वह जैसा है, उसे वैसा ही मानना धर्मानुयायियों की बाध्यता है। कई धर्मावलंबी तो धर्म की व्याख्या तक सुनने-कहने के लिए राजी नहीं हैं। वे समझते हैं कि धर्म एक ऐसी जटिल धारणा है जिसकी व्याख्या की क्षमता और अधिकार केवल धर्म गुरुओं को ही है। 4
संभवतः मानव की जीवन रक्षा और मानवजीवन में अनुशासन स्थापित करने के रूप में धर्म की उत्पत्ति हुई होगी। जब विज्ञान आदिम अवस्था में था, और जब मानव सभ्यता क्रमिक रूप से आगे बढ़ रही थी, उस समय व्यक्ति-व्यक्ति,व्यक्ति-समाज तथा व्यक्ति-प्रकृति के मध्य सम्बन्धों को रेखांकित करने के लिए इसकी अवधारणा की गई होगी। इन्हीं सम्बन्धों को चिरस्थायी रूप में "धर्म" के रूप में जाना जाने लगा। कह सकते हैं कि धर्म, मानव के जीवन जीने की एक मार्गदर्शिका थी। अलग-अलग समूहों में यह मार्गदर्शिका अलग-अलग लोगों द्वारा स्थापित की गई। प्रकृति से जुड़े रहस्यों के उद्घाटन का कार्य भी इनके द्वारा किया गया होगा। जिन प्रश्नों के उत्तर व्यक्ति सामान्य समझ से नहीं पा सका, उसकी अपेक्षा थी कि धर्म उसका उत्तर देगा। इससे धर्म की मानव जीवन में उपादेयता बढ़ गई।5
अब जबकि ग्लोबल दूरी न के बराबर रह गयी है, मानव के विभिन्न समूहों द्वारा स्थापित निर्देशिकाएं आमने-सामने हैं। इन निर्देशिकाओं ने जीवन के विविध आयामों को न केवल छुआ है, बल्कि पूरी तरह नियंत्रित भी किया है। ऐसी स्थिति में हरेक धर्म, स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने में तुला है। चूंकि यह व्यक्ति के भावना के सबसे करीब होता है इसलिए इसका इस्तेमाल राजनीतिक सत्ता स्थापित करने में भी हो रहा है। ऐसी राजनीतिक सत्ता स्थापना की लालसा न केवल किसी राज्य या देश के भीतर है अपितु वैश्विक सत्ता प्राप्त करने की भी होड़ है। और इस होड़ का शिकार यदि हम-आप हो जाएं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। यह धार्मिक कुप्रभाव का एक पक्ष है।समाज के सम्मुख स्वयं को सही और दूसरे को गलत साबित करने की होड़ में प्रत्येक पक्ष आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करता है जिसमें कूटरचित संदेशों का प्रेषण भी शामिल है। 6
इसका विकृतस्वरूप दूसरे रूप में तब आता है जब "धर्म" को आधार बनाकर समाज में घातक परम्पराओं, कुरीतियों तंत्र-मंत्र, जादू-टोना आदि पर विश्वास किया जाता है। प्रत्येक तांत्रिक किसी देवी/देवता/अल्लाह/यीशु आदि को स्वयं का आराध्य बताता है जो किसी न किसी धर्म से संबंधित होता है। उसके कहने पर यदि हम एक फूल किसी नाम से जाने जानी वाली देवी या देवता के डयोढ़ी पर चढ़ा आते हैं तो हम यह इजाजत दे देते हैं कि अगली बार उसके कहने पर हम किसी जीव की बलि भी दे दें। या कोई बड़ा चढ़ावा चढ़ाने के लिए विवश कर दिए जाएं।7
आज सोशल मीडिया के जमाने में सब कुछ सीधे-सीधे बेडरूम में पहुंच रहा है। जिसे परिवार का हर सदस्य देख और सुन रहा है। दस-बीस हजार का मोबाइल हैंड सेट देना तो आसान है किंतु मोबाइल में आ रहे पाखंडपूर्ण ऑडियो, वीडियो और पाठ्यवस्तु से अपने परिवार को बचाने का कोई उपाय है या नहीं; इस बारे में सोचना नितांत आवश्यक है। ऐसी स्थिति में केवल व्यक्ति का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और चीजों के प्रति सही समझ ही हमारे परिवारों की रक्षा कर सकता है। हमारे मष्तिष्क में चीजें धूल की परत की तरह शनैः शनैः जमा होती हैं। इसलिए मस्तिष्क में वैज्ञानिक चिंतन का फ़िल्टर लगाना बहुत अनिवार्य हो गया है। हमारी धारणा किन चीजों के आधार पर बन रही हैं उन आधारों की जांच सजग और सतर्क रहकर करने की आवश्यकता है। यह हो सकता है जब हम अपने मस्तिष्क से भी सवाल करना प्रारम्भ कर दें। जब हम अपने निकटस्थ और परम विश्वासपात्र व्यक्ति का भी अंधानुगामी होने के बजाय उसके विचारों को तथ्य के आधार पर जांचना प्रारम्भ कर दें।8
कथा एक ऐसी विधा है जो हमारे विश्वासतंत्र पर सीधा प्रहार करती है। किसी बात का विश्वास दिलाने के लिए यदि हम किसी घटना को कहानी के रूप में प्रस्तुत करें तो वह बात बहुत अधिक विश्वसनीय हो जाती है। आपने देखा होगा किसी नए देवी या देवता की लोकस्थापना किसी घटना का प्रचार करके ही किया जाता है। पहले पर्चा छपवाकर ऐसा किया जाता था, अब उसका स्थान व्हाट्सअप ग्रुपों ने ले लिया है। यह विषयवस्तु बहुत अधिक विस्तृत है। विषयवस्तु को इतने में ही समेटना विषयवस्तु को बहुत सीमित कर देना होगा। किन्तु संक्षेप में आशय यह है कि तंत्र, मंत्र, जादू, टोना, चमत्कार या किसी व्यक्ति विशेष का महिमामंडन करने के लिए कहानी कहना उन अंधविश्वासों को स्थायी बना देना है। अतः अपने परिवार और समाज के सामने इस प्रकार की कथाएं कहने से बचना बहुत आवश्यक है।9
यही नहीं एक निश्चित उद्देश्य के लिए जाति और वर्ग विशेष को भी उकसाने के लिए कुछ लोग दिन-रात कंप्यूटर पर मेहनत करते रहते हैं। एक छद्म घटना को कंप्यूटर में संशोधित करके उसे वास्तविक रूप में दिखाने के लिए लोग वेतन पर काम कर रहे हैं। अतः हर वो ऑडियो, वीडियो, छाया चित्र या पाठ्यवस्तु जो आपकी नजरों से होकर गुजर रहा है, जरूरी नहीं कि वह वास्तविक हो।...लेकिन इसका आशय यह भी नहीं है कि सब कुछ कूटरचित ही है। अतः आपको विशेष मानसिक श्रम करके सही और गलत का पता लगाना पड़ेगा, तभी आप आपके चारों ओर बिखरे विमर्श का सही विश्लेषण कर पाएंगे।...कई बार इसके बावजूद धोखा खा सकते हैं। परंतु इसकी संख्या शनैः शनैः कम होने लगेगी।
हमें हमेशा अपने मष्तिष्क का पैराशूट खुला रखना चाहिए किन्तु उसका नियंत्रण किसी और के हाथ मे न होकर हमारे हाथ में ही होना बहुत जरूरी है।10
आलेख: सुरेन्द्र कुमार पटेल
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