राही लौट जा इस राह से
बाग में जो फूल खिले थे।
अब वह फूल नहीं हैं।
मिलने की आस थी जिनकी
अब वही मीत नहीं हैं।
राही लौट जा इस राह से
जहा कभी केसर खेलती थी।
अब अंगार खिले रहते हैं।
हर दिन मधुमास जहां था।
अब वह बीहड़ लगता है।
राही लौट जा इस राह से
आम के उस बाग में
अब कोयल की कूक नहीं है।
राही लौट जा इस राह से
जिन केशो के बादल से
बरसात हुआ करती थी।
उन राहों में चलने से
अब देह जला करती है।
राही लौट जा इस राह से
जिससे तेरी पहचान हुआ करती थी।
वह बगिया अब सूनी सूनी रहती है।
राही लौट जा इस राह से.....
काव्य रचना: कोमल चंद कुशवाहा
(शोधार्थी हिंदी)
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा
मोबाइल 7610103589
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3 टिप्पणियां:
Awesome h sir...kavita...
Nice sir
Nice
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