हाय! मजदूर की भारी दुर्दशा,
धरती न अम्बर में घर बसा ।
तन, वस्त्र पसीने से भींगे
जब होती भारी गर्मी,
काम नहीं छोड़ते, चाहे ठंडी में हो जाती सर्दी ।
आंधी आए, पानी बरसे चाहे टूट
पड़े बिजली,
कामों में लगे रहते जैसे
थोड़े जल में मछली ।
हाय! मजदूर की भारी दुर्दशा,
धरती न अम्बर में घर बसा ।
जब गिरे ईंट, पत्थर वह घायल
हो जाता,
मालिक मजदूर की कभी न दवा
करवाता ।
कामों में लगा मजदूर जब कभी
मर जाता,
दफनाने को न देता, पैसा नाली
में फेंक जाता ।
हाय! मजदूर की भारी दुर्दशा,
धरती न अम्बर में घर बसा ।
मालिक बुलाने जाता बीमारी
में मजदूर न आता,
डरवाते, धमकाते उन्हें जबरन
ले जाता ।
दुःख दर्द को सहते कामों
में लग जाता,
धन्य मजदूर अपनी पीड़ा को
उनसे छिपाता ।
हाय! मजदूर की भारी दुर्दशा,
धरती न अम्बर में घर बसा ।
गगन चुम्बियों सा महलों को
तैयार किया,
कल-कारखानों को भी तुमने ही
उद्धार किया ।
हीरे-जवाहरात को तुमने
खोदकर निकाला,
समुद्र में घुसकर तुमने
मोतियाँ निकाला ।
हाय! मजदूर की भारी दुर्दशा,
धरती न अम्बर में घर बसा ।
इतना काम करने पर भी वह निर्धन
ही बना रहा,
तन मानव का पाकर मजदूर ही
कहता रहा ।
तन न्योछावर करके वह अमीर न
बन सका,
सब कष्ट सहन करने में भी अमर न हो सका ।
हाय! मजदूर की भारी दुर्दशा,
धरती न अम्बर में घर बसा ।
रचना: रमेश प्रसाद पटेल, माध्यमिक शिक्षक
पुरैना, ब्योहारी जिला शहडोल (मध्यप्रदेश)
पुरैना, ब्योहारी जिला शहडोल (मध्यप्रदेश)
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