सोमवार, अप्रैल 13, 2020

ग्रामीण अंचलों में वर्षा जल एवं पर्यावरण संरक्षण के प्रयास तथा सुझाव:डी.ए.प्रकाश खाण्डे


प्रस्तावना- 
भारत गांवों का देश है, जहां की अधिक जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि है जो वर्षा पर आधारित होती है। कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं के ज्यादा प्रयोग के कारण मृदा एवं जल प्रदूषण के साथ पर्यावरण भी प्रभावित हो रहा है। जिसे सम्यक रूप से कृषि प्रदूषण कह सकते है। ग्रामीण क्षेत्रों में जल संकट के निवारण के लिए वर्षा जल का संग्रहण करना जरूरी हो गया है।
प्राचीन काल से ही मानव प्राकृतिक वनस्पतियों, नदी एवं वनों के सानिध्य में अपना ज्ञान, सांस्कृतिकता को पल्लवित किया है। पर्यावरण के प्रति मानव की कृतज्ञता, संवेदनशीलता सम्मान तथा आत्मीयता , सुरक्षा आदि में अभिव्यक्त होता है। मानव प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षक है, जैसे- नदियों की पूजा, वृक्षों की पूजा आदि। अतः पौधों को काटना, जल स्त्रोंतों को प्रदूषित करना निषेध माना गया है।
प्रकृति ने मानव को अनेक उपहार जैसे- चट्टान, खनिज, मिट्टी, नदियां, पौधे, वायु, जीव-जन्तु, जल उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रदान किये है। पर्यावरणीय संकट का प्रारम्भ यद्यपि औद्योगिक एवं परिवहन क्रांति से ही हो गया था किन्तु विकास की दौड़ के उस युग में यह सोचनें का समय सम्भवतः मानव को नही था कि अनियमित एवं अनियंत्रित पर्यावरण प्रदूषण बढ़ जायेगा। पर्यावरणीय संकट के प्रति आज विश्व के सभी देश विकसित एवं विकासशील देश सचेत हो रहे है।
वर्तमान समय में पर्यावरणीय संकटों को दूर अथवा कम करने हेतु संचार साधनों का प्रयोग एवं संगोष्ठी-कार्यशालाओं का आयोजन कारगर सिद्ध हो रही है। धरातल, जल, वायु, वनस्पति, जीव-जन्तु एवं खनिज आदि इन संसाधनों को सावधानी के साथ उपयोग करें। वर्तमान में पर्यावरण असंतुलन विश्व की सबसे जटिल समस्या है। प्रदूषण की समस्या के निराकरण के लिए आम जनता को पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाने की आवश्यकता है।
वर्षा जल का संरक्षण- 
मानव व पर्यावरण एक दूसरे पर आश्रित है। पर्यावरण मानव जाति को पोषित करता है एवं मानव से प्रभावित भी होता है। मनुष्य के समान अन्य जीव भी भोजन, जल, वायु व आवास हेतु पर्यावरण पर निर्भर है। जल, पृथ्वी के समस्त जीवों का आधार है। धरातल पर जल, नदियों, तालाबों, हिमनदों, झरनों, नलकूपों आदि से प्राप्त होता है। इन स्त्रोंतों को स्थाई करने के लिए ‘‘वर्षा जल’’ का संरक्षण करना आवश्यक हैं।
वर्षा जल का कुछ भाग वाष्प बनकर वायुमण्डल में उड़ जाता है, कुछ भाग भूमि के अन्दर रिस जाता है तथा अधिकांश भाग धरातल पर बहता हुआ नदी-नालों में पहुंच जाता है। भूमि में एकत्र होकर बहने वाला जल भूमिगत जल कहलाता है। वर्षा जल संग्रहण का आशय है कि वर्षा जल का उसी स्थान पर प्रयोग किया जाये जहाँ पर भूमि पर गिरता है। जल का पं्रथम स्त्रोत वर्षा ही है। अतः वर्षा जल का संरक्षण से आशय है कि बारिस के पानी को रोकना, सहेजना, जमा करना, इकट्ठा करना और धरातल में प्रवेश कराना।
वर्षा जल संरक्षण की आवश्यकता - 
वर्षा का समय, अवधि तथा मात्रा विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होता है। जनसंख्या विस्फोट, शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण पृथ्वी में जल संकट गहरा गया है। मानव ही नही बल्कि सम्पूर्ण जीव-जन्तुओं के लिए भारी संकट हो सकता है। तापमान बढ़ने के कारण वाष्पोत्सर्जन द्वारा मृदा से लगातार जल क्षति होती रहती है। सभी जल स्त्रोत सूख जाते है। सूखे की स्थिति में फसल पशुओं के चारा एवं पीने की पानी की समस्या उत्पन्न हो जाती है। गर्मी के दिनों में लम्बी दूरी तय करके पीने के लिए पानी लाते है। इन समस्याओं के समाधान हेतु हमें जन-जागरूकता लाकर वर्षा जल का सरंक्षण एवं संग्रहण करना अति आवश्यक है। वनों की तरह ही जल एक अनमोल प्राकृतिक संसाधन है।
जल का प्रमुख स्त्रोत वर्षा है। हमें अपने दैनिक कार्यो में, घरों में और कल-कारखानें में जहां भी पानी का उपयोग होता हो, पानी की बर्बादी और दुरूपयोग को सावधानी पूर्वक रोकना चाहिए। चूने का पत्थर एक ऐसी चट्टान है जो वर्षा के जल में शीघ्रता से घुल जाती है क्योंकि उसमें कार्बन डाॅईआक्साइड मिली हुई होती है। वर्षा धाराओं के रूप में बहने लगता है।
मानव के उपयोगी क्रियाकलापों के लिए वर्षा जल का संरक्षण नितांत आवश्यक है। बडे-बडे भवनों के निर्माण, सड़क, जल-विद्युत कारखानों के बढ़ती खपत को देखते हुये हमें वर्षा जल का संरक्षण करना जरूरी है।
वर्षा जल संरक्षण के प्रयास-
वर्षा जल को एकत्र करना और उसका भण्डारण करके बाद में उपयोग करना, जल उपलब्धता में वृद्धि करने का एक उपाय है। इस उपाय द्वारा वर्षा का जल एकत्र करने को वर्षा जल संग्रहण कहते है। वर्षा जल संग्रहण का मूलमंत्र यह है कि ‘‘जहां पर पानी गिरे वहीं एकत्र करें।’’
वर्षा जल संरक्षण के लिए तकनीकों का उल्लेख किया गया है -
1. छत के ऊपर वर्षा जल संग्रहण - इस प्रणाली में भवनों की छत पर एकत्रित वर्षा के जल को भण्डार टैंक में पाइपों द्वारा पहुंचाकर किया जा सकता है। जहां से यह मिट्टी में रिसाव द्वारा भौम जल की पुनः पूर्ति करेगा।
2. पौधा रोपण:- वर्षा जल का संरक्षण हम अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर कर सकते है। वृक्ष वर्षा के जल को जडों के सहारे भूमि के अन्दर पहुँचाते है जिससे भूमिगत जल की मात्रा में वृद्धि  होती है। किसान अपने खेतों एवं खाली भूमी पर पौधे जरूर लगाये।
3. बांधों का निर्माण - बांधों का निर्माण कर पानी का संग्रहण एवं संरक्षण करने के साथ-साथ बाढ़ को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
4. सोखता गढ्ढ़ा बनाकर:- वर्षा ऋतु में घरों, इमारतों की छतों के जल को सोखता गढ्ढ़े के माध्यम से संरक्षण कर सकते है। इससे गर्मी के दिनों में जल संकट से बचा जा सकता है।
5. कुओं का निर्माण करके:- ग्रामीण क्षेंत्रों में यह प्रभावी तकनीकी है। इस प्रक्रिया से ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षभर जल संकट से निपटा जा सकता है। वर्षा के जल को ग्रामीणजन कुंए बनाकर इकट्ठा करते है। जल संरक्षण की यह परम्परा ग्रामीण जनों को विरासत में मिली है।
6. खीढ़ीदार खेतों में ऊंचे मेढ़ बनाकर:- ग्रामीण जन एवं कृषकों के लिए यह सफल होगा। खेतों में ऊंचे मेढ़ बनाने से वर्षा का जल ज्यादा समय तक एवं अधिक संग्रहित होगा जिससे कुछ अंश पृथ्वी के अन्दर रिस कर चला जाता है।
7. बंजर भूमि में क्यारियां बनाकर:- ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर भूमि बंजर पडी रहती है, उन भूमियों में 10ग10 फिट की चैडी गढ्ढा निर्माण करके वर्षा जल का संरक्षण कर सकते है। इससे पशुओं के लिए एवं कृषि कार्य जल की प्रतिपूर्ति भी हो जायेगी।
8. तालाब बनाकर:- तालाबों का निर्माण कर पानी का संग्रहण एवं संरक्षण नियंत्रित तथा जीवनोपयोगी कार्यों में उपयोग किया जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण हेतु सुझाव:- 
पर्यावरण का आशय हमारे चारों ओर उस वातावरण एवं जीवंश से है जिससे हम घिरे हुए है व प्रभावित होते है जैसे - वायु, जल, पेड़-पौधे, पृथ्वी, आकाश, ध्वनि आदि। पर्यावरण के चार तत्व है - स्थल, जल, वायु और जीव। इसमें प्रथम तीन परस्पर भौतिक पर्यावरण का निर्माण करते है।
1. खेतों के मेढ़ों, खाली भूमि में अधिक से अधिक पौधे लगाये जाये। वनों का संरक्षण एवं संवर्धन किया जाये।
2. कल-कारखानों की चिमनी ऊंची हो एवं आस-पास पर्याप्त पौधे लगाये जाये।
3. नदी-नालों, जलाशयों में गंदे पानी को न मिलाया जाये, कीटनाशक दवाओं के डिब्बों को पानी में न फेंका जाये।
4. कृषि उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक का ज्यादा प्रयोग न करें। जैविक खेती को प्रोत्साहन दे और स्वयं अपनाएं।
निष्कर्ष:-
मानव एवं पर्यावरण एक दूसरे पर आश्रित है। पर्यावरण मानव जाति को पोषित करता है एवं मानव से प्रभावित भी होता है। मानव अपनी भौतिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, आर्थिक उन्नति के लिए पर्यावरण के घटकों पर आश्रित है। पर्यावरण प्रभाव का निर्धारण एक धारणा है जो विकास प्रक्रिया और पर्यावरण की सुरक्षा मिल-जुलकर क्रियान्वित करने में विश्वास करती है। पर्यावरण के प्रति जन-जागरूकता में वृद्धि हेतु पर्यावरण दिवस, जल दिवस, जन संख्या दिवस का आयोजन सामाजिक सहभागिता के आधार पर किया जाना उचित होगा। पौधारोपण अधिक से अधिक करें, वनों का विकास एवं संरक्षण के लिए जनजागरूकता लाये। जलसंकटक के समाधान हेतु वर्षा जल का संरक्षण विभिन्न तकनीकियों से किया जाना चाहिए।
जिससे ग्रामीण अंचलों में पर्यावरण संतुलित रहे। वर्षा के जल का कुछ भाग भूमि द्वारा सोख लिया जाता है। इसका 60 प्रतिशत भाग ही मिट्टी की ऊपरी सतह तक पहुंचता है। कृषि व वनस्पति उत्पादन में वर्षा जल का महत्वपूर्ण योगदान होता है। कुंओं, तालाब, ट्यूबवेल के द्वारा धरातल पर लाया जाता है तथा मानवीय उपयोग के अतिरिक्त सिंचाई, उद्योग, सड़क, भवन निर्माण आदि के लिए उपयोेग किया जाता है। 
अतः मानवीय व्यवहार को जीवन्त रखकर जल-वन, मृदा, वायु एवं वन्य जीव का संरक्षण के लिए वर्षा जल का संरक्षण एवं संग्रहण करना परम आवश्यक है।
आलेख:डी.ए.प्रकाश खाण्डे (माध्यमिक शिक्षक )
शासकीय कन्या शिक्षा परिसर पुष्पराजगढ़, जिला -अनूपपुर मध्यप्रदेश
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