समर
अभी शेष है
समर अभी शेष
है, शेष हैं अवशेष सांसें।
चलो फिर चले थे जहां से.....
समर अभी शेष है.................
पहले भी निकलते नहीं, निकाला था रोटियों ने।
मोह घर का छूटता नहीं, छुड़ाया था बेटियों ने॥
जंग लोहे से लड़ते रहे, हौसला देती रहीं रोटियां।
सो गए जो कहीं देर तक,
जगा देती रहीं बेटियां॥
आने-जाने की चाहत रही,
भला आ जाते कहाँ से।
सफर दूर बहुत दूर का, उतने दूरसे आते कहाँ से॥
चलो फिर चले थे जहां से.....
समर अभी शेष है.................
आया संकट तभी देश में,
थे जो,वहाँ से चले गये।
देश से, विदेश से गये, हम मजदूर ही छले
गये॥
रोटियों के जंग में जब, मृत्यु सामने खड़ा हो गया।
ले गई जहाँ रोटियाँ,
देगा कौन?प्रश्न बड़ा हो गया॥
भूख लाई मौत की आहटें, वहाँ रहकर रहते कहाँ से।
अपने देश में, न विदेश में, यान से आते कहाँ
से॥
चलो फिर चले थे जहां से.....
समर अभी शेष है.................
निश्चय,अब चल-चलें, चले जहां से वहाँ तक
चलें।
चूमकर गाँव की माटी, करेंगे प्राण न्योछावर
भले॥
घातक हुआ उनके लिए,
निःश्वास जो हो गए।
टेढ़ीमेढ़ी पगडंडियों में, चल-चलकर
हताश हो गए॥
छाई सुर्खियां मौत की, हैं खबरें यहां से;वहां से।
यान ला रहे अब लाशें, ढूँढकर न जाने कहाँ से॥
चलो फिर चले थे जहां से.....
समर अभी शेष है.................
तयकर मीलों का रास्ता,
जीवित घर आ गए।
खड़ा है सवाल सामने,
कहाँ से कहाँ आ गये॥
चिंताग्नि किन्तु घर में, रहने देगी न पड़े-पड़े।
सम्हाल अवशेष सांसें, पाँव फिर निकल पड़े॥
चल पड़ा फिर पथ वही, आया जहाँ-जहां से।
रोटियों के जंग में,छलेगा छला जहां-जहां से॥
चलो फिर चले थे जहां से.....
समर अभी शेष है , शेष हैं अवशेष सांसें।
ठोकरों ने मुस्कुराया, चलो, चले थे जहां से॥
चलो फिर चले थे जहां से..............।
© सुरेन्द्र कुमार पटेल,
ब्यौहारी, जिला-शहडोल (मध्यप्रदेश)
8982161035
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6 टिप्पणियां:
आपने इस कविता में गरीबों के दर्द को बयां किया है कविता पढ़ते समय करुण रस से आंखों में आसूं आ जाते हैं।
यह कैसा राज।
ना सुनता कोई आवाज।
वास्तव में इस दुनिया में सभी मानव परस्पर सहयोग के कारण ही उन्नति कर रहे हैं. सभी अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ अर्जन करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं. व्यक्ति के अर्जन से उसके पास कुछ न कुछ होता है. कोई इसी अर्जन के दम पर विशाल भू भाग का स्वामी हो जाता है, किसी के पास दूकान, मकान या फैक्ट्रीयां खडी हो जाती हैं. कोई राजसत्ता का सुख भोग रहा होता है. कोई नौकरी से अच्छा वेतन कमा रहा होता है. ये सभी अपने अर्जन का मूल्य समझते हैं और मुफ्त में कभी कुछ देना नहीं चाहते क्योंकि वे मानते हैं कि इसे उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमता से प्राप्त किया है.
एक मजदूर की योग्यता और क्षमता को कभी उसकी योग्यता और क्षमता नहीं माना गया. कोई भी व्यक्ति लम्बी भूख, प्यास, थकान, अनिद्रा, उदासी, लाचार और बेवशी का जीवन जीते-जीते मजदूर बनता है. ग्रीष्म, शीत और वर्षा के थपेड़ों से अपनी आंतरिक शक्ति को मजबूत करता है और अपनी मांसपेशियों में बल पैदा करता है. एक पहलवान की क़द्र होती, एक शारीरिक रूप से सुडौल व्यक्ति की क़द्र होती है कि उसने बड़े तप से अपने शरीर को पकाया है. किन्तु एक मजदूर के इस तप को इस संसार ने कभी उसकी योग्यता और क्षमता नहीं माना. परिणाम स्वरूप उसे केवल उतना मेहनताना दिया जाता है जिसे खाकर वह फिर अगले दिन काम पर हाजिर हो सके. इसी कारण उसका पूरा जीवन चक्र केवल अगले दिन के काम पर टिका रहता है. यही उसकी लाचारी और बेवशी का कारण है. क्या हम कभी उसके जीवन भर के इस परिश्रम को मूल्य दे सकेंगे?
बहुत अच्छा कविता है सर
धन्यवाद
बहुत सुंदर कविता पढ़कर हृदय द्रवित हो गया। वास्तव में अपने रचना के माध्यम से जीवन की वास्तविकताओं
को आपने बयां किया है। आपको नमन।
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