मेरे साथियो, एक बार रास्ते में कोई पैर जमाए खड़ा था। जिसे हमारे लोगों ने पूछा, "भाई तुम कौन हो? तुम रास्ता छोड़ो, हमें आगे जाना है।" प्रत्युत्तर में वह बोला-"नहीं भाई, नहीं। तुम आगे नहीं जा सकते।" हमने कहा-"तुम हमें रोंकने वाले आखिर में हो कौन ?"
उसने कहा-"मैं भूल हूँ।"
दोस्तो, किसी ने हमें हराया या दास्तां दिया। यह बिल्कुल गलत है। यह कल भी भूल थी और आज भी हमारी भूल है। जिसे हम सुधारना ही नहीं चाहते। बस उपदेश देना चाहते हैं। जरा स्वयं से स्वयं को ईमान से झांको। मिल जाएगा हमें आगे जाने से रोकने वाला, जो हमारे अन्दर ही है।
हम किसी और को नहीं स्वयं को भूल गये। और जब हम स्वयं को ही भूल गये तो गैरों की चाकरी तो करनी पड़ेगी। जो आज सामने है। जब मानव एक बार मानसिक दास्तां से घिर जाता है तो उससे निकलने में सदियों लग जाते हैं। कुर्बानियां देनी पड़ती है। उस भूल को हराने के लिए जिसने हमें मानसिक दास्तां दिया, के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। बस अपने भूल को समझने की जरूरत है।जिसके कारण हमारी सामाजिक दशा बिखर सी गई है। हम टूट चुके हैं अपने ही भाई को तोड़ने में। सारा समय बीत रहा है भाई को हराने में। अपराध की गुत्थियों में सिमट हम औरों को आवाज देते हैं सुधरो ।माया के लोभी हम न माया पाए न राम ।
यहां लेख में राम शब्द आ गया जो यहां भी मेरे प्रति आपको बिचलित करने से पीछे नहीं छोड़ेगा। और यह भी भूल है ।समझना है राम, बुद्ध, भीम, साईं, कृष्ण, विष्णु को। जिनके नाम से हम खेमें में बटने लगते हैं। हम वहां क्यों नहीं जाते जहां हमारा होने वाला है। क्या किसी ने हमें कहा कि तुम नासमझ बने रहो। सभी ने स्वयं से लेकर परिवार, समाज के सभी औचित्य क्रियाओं की ओर ले जाने की भरसक कोशिश की है। हम जाना ही नहीं चाहते और दूसरे को दोष देने में तुले हुए हैं । भाई-भाई से नफ़रत करने वाले तुझे धिक्कार है। तुझे चुल्लू भर पानी में डूब मरने चाहिए। हम नहीं लेना चाहते तो हमें न राम दे सकता, न कृष्ण और न ही बुद्ध।कुछ मिलने की प्राथमिक नींव हम हैं। हम अपने आप को समझ लें और वाष्र्तेय धारा में जाने की कोशिश करें निश्चित रूप से हमें हमारा मिल जाएगा ।किसी को गाली देने से हमारे मनोविचार में सरसता नहीं आती है और जब तक मन में, विचारों में सरसता नहीं तो कोई भी हमारे साथ नहीं होगा।
बहुत देर हो चुकी है। सरस परिणाम नामुमकिन तो नहीं कठिन अवश्य है ।जिसके लिए हमें किसी को सुधारने की आवश्यकता नहीं, स्वयं में सुधरने की आवश्यकता है। पर यह हो नहीं सकता क्योंकि अपनी त्रुटि हम देख ही नहीं सकते । पेड़ के पात-पात में छेंद हो चुका है। और दूसरों को सुधारने वाले पात तो बिल्कुल फटे और कुछ चिथड़े हैं। ये अपने धन-बल से अपने आपको छिद्रहीन बताकर उपदेश दे समाज को घर का न घाट का किए दे रहे हैं ।अपनी महानता को शीर्ष पर बनाए रखने के लिए वही अपनी पुरानी नीति साम, दाम, दंड भेद और अंग्रेजों की फूट डालो शासन करो की नीति।
दोस्तो, स्वयं को देखो, परखो, सुधरो और आगे बढ़ो। हम आपके साथ हैं।
आलेख: राजेन्द्र प्रसाद पटेल "रंजन"
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