एक बार कोई आदमी आम की टोकरी लिए घर की ओर जा रहा था। आप पके थे इसलिए उसकी खुशुबू राहगीरों को मिल रही थी। सभी आगे बढ़ते रहे। थोड़ी ही दूर पर एक आदमी उसी ओर गांव तरफ से आ रहा था। वह आम वाले आदमी के पास पहुंच आम की मंहक पा रास्ते में टांग फैला खड़ा हो गया और बोला मुझे आम दो ।आम वाले ने उस आदमी को आम खिला उसके हाथ में पानी का बोतल देख बोला -भाई मुझे बहुत प्यास लगी है जरा पिला दो । उस आदमी ने पानी देने से मना कर दिया । तब आम वाला बोला भाई तुम कौन हो ?
वह बोला-"मैं स्वार्थी हूँ।"
दोस्तो समाज मानव समूह का एक संगठन है। उस संगठन में सभी एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। एक दूसरे के सहयोग और पूर्णता से संगठन शक्तिशाली हो बड़े से बड़े कठिनाइयों का सामना करने में सक्षम होता है।सुडौल होता है जो केवड़े की तरह सुगंध और गुलाब की तरह सुंदर हो उस समाज के सभी विभूतियों में सौन्दर्य और औरों के लिए आदर्श बनता है। अमीरी गरीबी से परे सामर्थ्य सर्जन कर सभी को एक सूत्र में पिरोने का आत्मानुभूति देता है। सभी में समझ का विकास होता है और अनुशासन आत्मसंज्ञान में आता है। हर किसी में सभी के प्रति प्रेम और आस्था का दीप उज्ज्वलित हो, सामाजिकता का प्रेरणा सूत्र बन सहज ही आनंद की अनुभूति देता है ।
साथियों यहां तो बस ऊपर अंकित लघुकहानी के गंदे कुंड में वे जो समाज के अग्रणी बने हैं, डुबकी लगा रहे हैं और गरीबों के मीठे आम को झपट रहे हैं। यहां तो समाज अपराध निरापराध में नहीं अमीरी और गरीबी में बंटा हुआ है। यद्यपि यहां कोई अमीर नहीं हैं और हां यदि है भी तो वो है अपराध का अमीर। इनके तह में तो जाइये।इनमें से बहुतों ने क्या-क्या नहीं किया। समाज के बंधनों को तोड़ सामाजिक धाराओं को बिचलित कर डाला। विवाह के बाद पत्नियों को छोड़ना, बहुओं को छोड़ना, और ऐसे लोगों को साथ देना जो विदुरों का खुल्लामखुल्ला पुनर्विवाह करते हैं और विधवाओं को सहारा देने वाले को दंड देते हैं। और यहां भी मेरा मतलब जब तक है तभी तक। मेरा मतलब निकला मैं अलग हो गया। मेरी दासता जो भी स्वीकार करेगा वह भी हमारी तरह कुछ भी करता रहे उसे पूरी छूट है। नहीं तो निरापराध समाज से अलग रहना पड़ेगा। मैं इतना स्वार्थी हूँ कि मेरा पार पाना तुम जैसे परमार्थियों के वश की बात नहीं है। मैं महान हूँ।
सोंचो दोस्तो जब हम अपनों के बीच ही स्वार्थ के जाल में फंसकर अपनों को ही बेवकूफ बनाते रहेंगे तो उस जंग में हमारी हार सुनिश्चित है जिसके लिए हम ही नहीं हमारे महान विभूतियों ने बलिदान दे दिया और कुछ भी नहीं कर सके। आज हम धर्म बदल लें या जाति। पर हम जहां रह रहे हैं वहीं हमें और हमारे समाज को स्वार्थवश अंधकार में डालने वाले हम जैसे बने रहेंगे तो हमारा भी वही हाल होगा जो हमारे पूर्वजों से अभी तक हो रहा है। और हमारी औलाद घिसटती रहेगी ।
आओ हम उस स्वार्थ को जो हमारे दिल में बैठा है को मार भगायें और अपने समाज को सामर्थ्य कर दासता से मुक्त करनें में मूलभूत सहयोग दें । साथ ही नारी सम्मान और न्याय को नि:स्वार्थ भाव देने की कोशिश करें । हम किसी भी जाति और धर्म में हों, हमारे मानवीय मूल्य वही हैं। इसलिए किसी भी समाज का पुनुर्त्थान तब तक संभव नहीं है जब तक समाज का प्रत्येक सदस्य मानवीय गरिमा और मूल्यों के साथ खड़ा होने का संकल्प न कर ले।
आलेख: राजेन्द्र प्रसाद पटेल "रंजन"
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