कॉकरोच, मेरा भोला शत्रु: सुरेन्द्र कुमार
अपने अलसाए मन को समझाते-बुझाते, खुद को धकियाते स्नानघर तक ले गया। स्नानघर की कुन्डी खोलकर ज्यों भीतर प्रवेश किया तो ऐसा लगा जैसे मुझे बहला-फुसलाकर किसी कसाई के हवाले कर दिया गया हो। वहां एक विशालकाय दैत्य पहले से कब्जा जमाए बैठा था। हां, विशालकाय! कम से कम मेरे मन में तो उसने ऐसी ही तस्वीर बना ली थी। किसी भयंकर जानवर की तरह। मैंने अपना एक पग आगे किया था, दूसरा धरता तो उसके सिर पर पड़ता। यह बात अलग है कि जैसे भगवान ने अपने एक पग से सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड को नाप लिया था वैसे ही वह भी मेरे एक पग से नप जाता किन्तु उसके भय ने मेरे मस्तिष्क रूपी ब्रहमाण्ड में अपना त्रिभुवन सा आकार बना लिया था, इसीलिए वह बच गया। कभी-कभी मनुष्य चीजों की लम्बाई-चैड़ाई वैज्ञानिक मापक साधनों के बजाय आसन्न खतरे के हिसाब से करता है। मेरी भी यही गति थी। मेरे एक पैर के आगे अपनी मूंछों पर ताव देता काॅकरोच बैठा था, वो भी मेरी ही तरफ मुंह किए हुए।
यदि मैं मर्दजाति के रूप में पैदा न लिया होता तो यकीन मानिए मेरी चीख पूरे मोहल्ले में सुनाई पड़ती। परन्तु संसार के सारे मर्दों की लाज बचाने की खातिर मैं चुप रहा। मैं प्राणघातक खतरे के बावजूद चुप रहा। यदि मैं अपने पैर वापस खींचकर कमरे से बाहर चला आता तो यह कायरता की निशानी होती इसलिए कुछ देर विचार करते हुए वहीं स्थित रहा। मगर वह भी टस से मस नहीं हुआ। मुझे पक्का विश्वास हो गया, यह भी मेरी ही जाति का है। सीधा प्रहार करने की मेरी हिम्मत नहीं थी पर रण छोड़कर आना भी भीरुता की निशानी थी। मैंने अपने दूसरे उठे हुए पग की दिशा को पैंतालिस डिग्री बाईं ओर मोडकऱ अपना पग जमीन पर रखा और झट दूसरे पग को भी। बाहरी भीरुता दिखावे की होती है जिससे बचा जा सकता है किन्तु आंतरिक भीरुता का संबंध तो जीवनमरण से होता है। इसका जोखिम कौन लेगा? अब हम दोनों रणक्षेत्र में थे। देखना यह था कि जैसे मैंने अपनी अनैच्छिक प्रतिक्रिया के फलस्परूप अपने पग रोक लिए थे क्या इस दैत्याकार जीव में भी ऐसी कोई कुदरती प्रतिभा है जिससे यह आसन्न खतरे को पहचान सके। अथवा इसके पास भी मानव जैसी विवेकहीन बहादुरी है जिसमें वह अपने प्राण तो दे सकता है किन्तु अपने पग भीतर नहीं कर सकता। जैसे इन दिनों देखने को मिल रहा है। हमारे ऐसे बहुत से विवेकहीन बहादुर हैं जो कोरोना से नहीं डरते। उन्हें समझाने वाला व्यक्ति अव्वल मूर्ख नजर आता है। कुछ समझाने वाले तो डरपोक तक की संज्ञा से विभूषित हो रहे हैं परन्तु व्यापक मानव कल्याण के लिए इस संज्ञा को जब्त किये हुए हैं। दुनिया में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि पूरी दुनिया के पहिए एक साथ रोक दिए गए हों। विश्व इतिहास में एक से बढ़कर एक महापुरुष हुए जिन्होंने दुनिया को बड़े से बड़े खतरे से विश्व को उबारा; बड़ी सी बड़ी समस्या का समाधान दिया, युग परिवर्तक कहलाये; किन्तु उनके दिवंगत होने पर भी इतना बड़ा शोक संदेश कभी जारी नहीं हुआ जिसमें पूरी दुनिया इतनी लम्बी अवधि के लिए रोक दी गई हो। अमूमन ऐसा तीन दिन से लेकर महीने भर के लिए हुआ होगा। किन्तु इस खतरे को देखते हुए देशों ने दो से तीन महीने तक का लाॅकडाउन घोषित किया और अभी भी निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि पूरी तरह दुनिया कब दौड़ना शुरू करेगी किन्तु नहीं! कुछ विवेकहीन बहादूर लोग हैं जो बेमतलब ही घर से निकलते हैं। कुछ तो सिर्फ मुआयना करने के लिए निकल पड़ते हैं कि देखें देश दुनिया में अब क्या चल रहा है। ऐसा नहीं है कि इन विवेकहीन बहादुरों का बीच-बीच में स्वागत सत्कार नहीं हो जाता किन्तु तब तक ये अपनी बहादुरी की गाथा गााकर दूसरी टीम को उकसा चुके होते हैं। ऐसे विवेकहीन बहादुरों के सामने तो मैं कुछ भी नहीं। मेरा युद्ध तो एक विशालकाय भयानक काॅकरोच से होने जा रहा था जो अभी भी मेरे वार की प्रतीक्षा में था शायद। मुझे सचमुच उससे बहुत अधिक भय लग रहा था। भय इस बात का भी लग रहा था कि ऐसे जानवर न जाने कौनसा संक्रामक रोग उपहार में दे जाएं। देने के लिए आखिर इससे ज्यादा उनके पास है भी क्या। मैंने पहला वार पानी के एक छोटे से फुहार से किया। उस फुहार मात्र से काॅकरोच ने जो विशाल दैत्याकार जानवर की उपाधि मेरे मस्तिष्क में प्राप्त की थी उसकी वह उपाधि छिन गई। वह पानी के थोड़े से फुहार से ही दाएं-बाएं भागने लगा। मेरी भी मंशा उसे मारने की तो थी नही ंतो मेरा काम उसे सिर्फ रास्ता देने का था। मगर वह स्नानघर में रखे टब के निचले तह में जाकर जमकर बैठ गया। तभी मेरे दिमाग में एक और ख्याल आया। काश! यह आदमी होता। कम से कम अधमरा होने तक तो नहीं भागता। जैसे इस समय का आदमी कर रहा है। जब चीन कोरोना वायरस से जूझ रहा था तब हमारे यहाॅं का आदमी बस इसी में मजे में था कि वायरस चीन में है यहां थोड़े न है! तब हमारे यहां के लोग बहुत आनंददायक वीडियो बना रहे थे। जब यह हमारे देश में भी आ पहुंचा तब हमारे लोग राज्यों की गिनती कर रहे थे। कह रहे थे कि अभी तो हमारे राज्य में नहीं है। फिर यह तमाम राज्यों में भी पहुंच गया। परन्तु कुछ जिले अभी सुरक्षित थे। तब भी लोग आराम से आना जाना कर रहे थे। कुछ जाहिर, कुछ चोरी-छिपे आ रहे थे। भाई उनका जिला ग्रीन जोन में जो था! देखते-देखते यह वायरस जनपद, ब्लाॅक, थाना, तहसील में भी पहुंच गया। अब कुछ सहमे! विश्वास ही नहीं हो रहा कि एक छोटा सा वायरस जो चार माह पहले चीन में था, यहाॅं आ गया! अब उनका भौचक्कापन बातों में दिखाई पड़ने लगा किन्तुु उचक और ठाठ अभी भी वही! आखिर आदमी जाति के हैं। उनके पास लड़ने के लिए औजार हैं। गरीब से गरीब आदमी के पास टांगी, हंसिया, कुल्हाड़ा, फरसा तो है ही और नहीं तो कम से कम दाढ़ी बनाने का उस्तरा तो है उससे लड़ लेंगें। उनके पास आ गया तो लाठी से पीट देंगे। वे भला एक न दिखाई देने वाले वायरस से क्यों डरने लगे? परंतु मेरा शत्रु निहत्था था। वह जानता था कुदरती उपाय के सिवा उसके पास बचने का कोई और रास्ता नहीं है। इसलिए उसने डरने, भय खाने और छुपने का मार्ग अपनाया। मैं स्नानघर में उसके इस कुदरती उपाय को सोचकर अवाक रह गया। बार-बार यही दुआ करता रहा कि काश! मेरे जाति के मानवों, आदमियों के पास भी ऐसा विवेक मौजूद होता। वे जान पाते कि इस खतरे से किसी लाठी-डंडे, हंसिया, कुल्हाड़ी, भाला, बन्दूक, तलवार से नहीं लड़ा जा सकता। तो वे भी इससे बचने का उपाय सोचते। छिपने का मार्ग अपनाते। मेरा शत्रु यद्यपि छुपकर बैठ गया था मगर सोया नहीं था अपनी मूंछों को दाएं-बाएं घुमाकर बार-बार यह आभास कर रहा था कि उसका शत्रु यानी मैं कहीं उसके पीछे तो नहीं पड़ा हूं। उसकी आशंका निर्मूल भी नहीं थी। बिना टब में पानी भरे मैं नहा नहीं सकता था। इसलिए मुझे उस टब को उठाने की जरूरत तो थी ही। मगर एक कमरे में इतना वक्त साथ बिताने और उसके द्वारा मुझे बहुत सा विवेकपूर्ण उपाय सुझाने के कारण मुझे उससे प्रेम हो गया था। हो भी क्यों न! हमारी मिट्टी ही ऐसी है। इस मिट्टी में कितने आक्रांता आए और यहीं का होकर रह गए। हमने सबके साथ मिलकर रहना सीख लिया। खैर, मैंने तो मन बना लिया था कि मैं इसे जाने को नहीं कहूंगा परंतु वह ही मुझे बर्दाश्त नहीं कर सका। मुझसे डरा-सहमा था। सुरक्षा के प्राकृतिक उपाय का वरण करना उसकी मजबूरी थी। एक जगह सुरक्षित खड़ा होकर आहिस्ता-आहिस्ता जैसे ही टब उठाया मेरा शत्रु अपने प्राण खतरे में देख फड़फड़ाता हुआ कोना ढूंढ़ने लगा और पानी निकासी के टूटे हुए पाइप से बाहर निकल गया। वह काॅकरोच था, आदमी नहीं था। आपदा से बचने का उपाय जानता था। मान भी गया। शुक्र है वह इंसान नहीं था!
व्यंग्य आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
4 टिप्पणियां:
वाह मजा आ गया सच में।
ये तो आदमी की प्रबलता है सर बिना सामने आए तो वो अपने....... से भी नहीं डरता।😉
बहुत-बहुत धन्यवाद सतीश जी।
अति सुंदर लेख
दूध, दूध उबला तो मलाई, मलाई से दही, दही को मथा तो फिर मक्खन, मक्खन को उबाला तो घी। जितना मथा उतना ही उत्कृष्ट हुआ, जितनी बार तपाया उतना ही उत्तम हुआ। आप तप रहें हैं और निखर रहें हैं। अगले प्रयास के लिए अग्रिम बधाई।
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