शिक्षा का अधिकार अधिनियम को 10
वर्ष पूर्ण हो गए । एक शिक्षक होने के नाते कह सकता
हूँ कि -निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के अंतर्गत देश के 6 से 14
वर्ष तक के अभी बच्चों के लिए
निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की सुविधा प्रदान की गई। लेकिन लगता है नीति निर्माताओं का लक्ष्य सिर्फ छात्रों
के नामांकन तक ही सीमित था, ठहराव के लिए ,निःशुल्क गणवेश, मध्यान्ह भोजन एवं पाठ्यपुस्तकों की व्यस्वथा कारगर साबित नही हुए। कागजों पर छात्रों
के नामांकन तो 6 से 14 वर्ष की आयु तक निरंतर होते रहे लेकिन, बहुत बड़ी संख्या में कक्षाओं में अनुपस्थिति चिंता का विषय रही । इसे हम
विद्यालयों में वास्तविक ठहराव नही कह सकते । कोई भी शिक्षक इस विषय पर खुल कर बात नही कर सकता
क्योंकि इस कमी केलिए शासन के नीति निर्माता शिक्षक को ही
जिम्मेदार ठहरा देंगे । असल मे इस सबके
लिए क्षेत्र के भौतिक ,आर्थिक एवं सांस्कृतिक कारक जिम्मेदार
हैं। इन पर कार्य करना आवश्यक
है। निजी विद्यालयों की 25
% सीट वंचित वर्गों के लिये आरक्षित की गई -सतही तौर पर यह कदम हमें
क्रांतिकारी नजर आता है परन्तु इस कारण कस्बों व उनके आस पास के शासकीय विद्यालय छात्र विहीन हो गए ।
इस तथ्य का समर्थन सरकारी आंकड़ें स्वयं
करते है ,सरकारी विद्यालयों में छात्र उसी अनुपात में कम
हुए जिस अनुपात में निजी शालाओ में छात्र
संख्या को बढ़ाया गया।
हम प्रायःसमाचार
पत्रों में यह रिपोर्ट देखते है कि किसी बड़े विद्यालय से इन छात्रों को गणवेश विभिन्न प्रकार के शुल्कों की कमी
या सामाजिक - आर्थिक असमानताओं के कारण शाला से
निकाल दिया गया इस प्रकार यह कार्य छात्रों में हीन भावना को बढाने वाला
साबित हुए।
सतत एवं व्यापक
मूल्यांकन - यह कार्य छात्र के समग्र एवं निरंतर मूल्यांकन के लिए अत्यंत आवश्यक है परंतु जिन छात्रों ने
अध्ययन नहीं किया या नियमित विद्यालय
में उपस्थित नहीं हुए उन्हें भी सिर्फ एक टेस्ट के
माध्यम से कक्षोन्नत करना होता है, इन
वर्षों में कुछ छात्र ही रुचि के साथ अध्ययन करने में अग्रसर थे बाकी अन्य उदासीन थे और अभिभावक तो छात्रों से भी
दस कदम आगे निकले। बिल्कुल उदासीन और
बेपरवाह। यदि शिक्षक छात्र के घर गृह संपर्क पर गए तो उन्होंने शिक्षक की जरूरत समझी स्वयं की नहीं । अधिनियम में पालक की
भी जिम्मेदारी तय की गई थी, लेकिन इसपर कोई अमल नही हुआ। अब कक्षा 5 वीं और 8वीं
बोर्ड कर दी गई यह सिर्फ शिक्षक के सर पर दोष मढ़ने की पूरी तैयारी है, जबकि विभिन्न कक्षाओं में अब भी अनुत्तीर्ण नही किया
जाना है, यह विरोधाभास है।
विशेष आवश्यकता वाले
बच्चों का नामांकन - अधिनियम द्वारा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य विद्यालयों में दर्ज करने के नियम हैं परन्तु न तो शिक्षक
इसके लिए प्रशिक्षित हैं न ही विद्यालयों में उनके अध्यापन की।
शिक्षकों की कमी -
अधिनियम शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए कहता है, न्यूनतम पैमाना
प्राथमिक विद्यालय में 2 शिक्षकों और माध्यमिक विद्यालय में 3 शिक्षकों का है लेकिन जो न्यूनतम
पैमाना तय किया गया है, राज्य सरकारें उनकी भी पूर्ति नही कर पाई हैं। निजी विद्यालयों में न्यूनतम
प्रशिक्षण योग्यता की पूर्ति करने के लिये केंद्र द्वारा
अब जाकर दूरस्थ पाठ्यक्रम
तैयार किया गया । वर्तमान में प्राथमिक शालाओं मे 5 शिक्षक और माध्यमिक
शालाओं मे विषयवार 6 शिक्षकों की पूर्ति
असंभव लगतीं है।
शिक्षकों की समस्याओं का निराकरण -अधिनियम में शिक्षकों की सुविधा और समस्याओं के निराकरण की व्यवस्था तो है लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ नजर नही आता, यही नहीं शिक्षको के वेतन भत्ते तय करने का अधिकार भी राज्य सरकार के पास होने से देश भर में एकरूपता नहीं है। अधिनियम में शिक्षा की असफलता की जिम्मेदारी सिर्फ शिक्षक पर क्यों ??? इन वर्षों में शिक्षा छात्रों की पहुँच से और दूर हुई, शिक्षकों को सिर्फ आंकड़ों को सजाने में व्यस्त रखा गया है। शिक्षक को पढ़ाने का समय कम उपलब्ध हुआ, सरकारी शिक्षक चाह कर भी इस दुर्दशा को देखने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता। शिक्षक को शाला चलाने की रूपरेखा अपनी आवश्यकता अनुसार बनाने का अवसर प्राप्त हो। शिक्षक के प्रतिवेदन पर छात्रों की अनुपस्थिति के लिए जिम्मेदार लापरवाह पलकों पर कार्यवाही हो। शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्य से मुक्त हों। शाला की सफाई के लिए सुस्पष्ट नीति बने। और उसका अलग बजट हो। स्थानीय प्रशासन शिक्षकों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने उन्हें बदनाम करने की अपेक्षा शिक्षा स्तर क्यों गिरा इसकी समीक्षा करे। अधिनियम के अनुसार शिक्षा सभी को मिलना जरूरी है पर अध्यापन पर बार-बार प्रयोग बंद होने चाहिए। शिक्षकों को कटघरे में खड़ा करने के स्थान पर पालकों की भी जिम्मेदारी तय की जाए। शिक्षकों से वर्ष भर कोई गैर शैक्षणिक कार्य न कराये जायें। छात्रों को परीक्षा में अनुत्तीर्ण करने का नियम पुनः लागू हो । वास्तविकता यह है कि अधिनियम में शिक्षक अपने आप को प्रतिबंधित मानता है क्योकिं समस्त अधिकार वरिष्ठ अधिकारियों में निहित है। शिक्षकों की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित है या कहें शैक्षणिक योजना निर्माण मे शिक्षकों कि कोई भूमिका नहीं है। जिसके चलते शाला हित ,छात्र हित, शिक्षक हित प्रभावित हो रहा है । शिक्षक और शिक्षाविदों से विचार अपेक्षित है। जिसके चलते शुचिता एवं वैचारिक स्वत्रंत्रता मिल सके।
समीक्षा हो दोषारोपण
नहीं- 10 वर्षों में शिक्षा
के क्षेत्र में कई चढ़ाव-उतार आए। कई प्रकार
के प्रयास किए गए किंतु जहां तक मैं
समझता हूं शिक्षा को सरल और सहज बनाने की अपेक्षा उसे और अधिक जटिल बनाया गया। कुल मिलाकर मैं इस अधिनियम के संबंध में यह समझ पाया हूं कि जिन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर यह
कानून बनाया गया था हम उन उद्देश्यों की
प्राप्ति नहीं हो पायी है। हां इसके कुछ सकारात्मक पहलू हो सकते हैं जैसे प्रत्येक गाँव मे प्राथमिक शाला प्रत्येक 3
किलोमीटर मे माध्यमिक शाला, भवन
शौचलाय की उपलब्धता किंतु वह अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। शिक्षा के बेहतर परिणाम के लिए शासन द्वारा बनाई गई बेहतर शिक्षा नीति और अध्यापन के लिए
शिक्षक और अध्ययन के लिए छात्र के घर में अध्ययन करने और नियमित शाला भेजने के लिए अभिभावकों का सजग रहना आवश्यक होता है । शिक्षकों का प्रतिनिधि होने के नाते कह सकता हूँ कि भविष्य में प्रदेश के शिक्षक अधिनियम के अध्ययन-अध्यापन ,छात्र एवं ,शिक्षक
हित विरोधी प्रावधानों के खिलाफ और नीति
निर्माण मे शिक्षकों की भूमिका के लिए बड़ा आंदोलन भी कर सकते हैं।
(आलेख में व्यक्त
विचार लेखक के स्वयं के हैं)
आलेख: सुरेश यादव, इंदौर
3 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लेख है भाई,, पालकों की जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए।।जब शिक्षक बार बार गृह सम्पर्क करने जाते हैं तो कई बार उनके साथ अप्रिय स्थिति भी बनती है।।शिक्षा का अधिकार अधिनियम शिक्षक के हाथ बांधकर लड़ाई में उतारने जैसा महसूस हुआ है।।
बहुत अच्छा निचोड़ आइना दिखाते हुए
बहुत अच्छा लेख
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