रविवार, मार्च 15, 2020

मेरी माॅं का आॅंचल हो:सुरेन्द्र कुमार पटेल

मन में उठ रही तरंगें,
कुछ पल ऐसा खो जाऊं
मेरी माॅं का आँचल  हो,
और उसमें मैं सो जाऊॅं।1।

कानन हो आँगन में,
फिर गीत लड़कपन के गाऊं,
जब भी डाॅंटें मां मुझको
पेड़ों के पीछे छुप जाऊं।2।

बेस्वाद रोटियाॅं खाते-खाते,
बासी रोटी को ललचाऊं!
फिर पहन पुराने कपड़ों को
सिर धर गठरी चक्की जाऊं।3।

डांट गूंजती घर में उसकी,
फिर भी उसके बिन रह न पाऊं,
वह अधिकार मांगने का मां से
और किसी से मांग न पाऊं।4।

जब भी होती परेशान मां तो
सुख-चैन न मन में पाऊं।
देखा है जो दारुण-दुख उसका
आज भला मैं कैसे बिसराऊं।5।

वह संकट उसका और धैर्य भी
ऐसा धीरज उसमें ही पाऊं।
वह याचना मेरी और दुआएं उसकी
मैं पढ़ूॅं और न अव्वल आऊं?6।

वह त्याग की प्रतिमूर्ति बनी पर
कठिन परीक्षा को कैसे बिसराऊं।
अपने तो अपने होते हैं,
उनके बारे में किस मुंह से बतलाऊं।7।

मैंने की कोशिश पर न जीत सका,
वैमनस्य का बना अखाड़ा कैसे कह जाऊं।
चित्त में चैन नहीं है पर जिन्दा हूँ
तेरे जीते जी कैसे मर जाऊं।8।

तूने कल्प किया मैंने आकार दिया
रहे सभी सुखी पीछे मैं भी मुस्काऊं।
जिस घर को छोड़ा था कुछ दिन पहले
वह अब रहा नहीं फिर कैसे घर जाऊॅं।9।

तुम गुणवंती हो, ममता की मूरत
बस हाथ जोड़ शरण में आऊं।
सच कहते हैं मां-सा कोई योग्य नहीं
असली छाया तेरे चरणों में पाऊं।10।
-सुरेन्द्र कुमार पटेल, 27/10/2019

1 टिप्पणी:

Ram Sahodar Patel ने कहा…

मर्मस्पर्शी कविता। धन्यवाद ।

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