बघेली कविता -अशोक त्रिपाठी माधव

 *बघेली घनाक्षरी*

*बिसय- बाप के पीरा*


मूड़े गिरस्ती धये,कइअक उपास कये।

     रात दिन एक कइ आपन जिउ पेरत है।

ठंडी के ठारी बरसात के फुहारी अउ।

     गरमी के घाम सहि मेहनत उकेरत है।

लड़िकन का पालि-पोसि लायक बनाबय का।

     बिपति के पहारउ मा मूड़ का कचेरत है।

उहै बाप बूढ़ भये लड़िकन से सताबा जात।

     जीवन बिताबय का सहारा आजु हेरत है।।


लड़िकन के पालय निता साँचा मा ढालय निता।

     मेहनत के भट्ठी मा झोंकय जबानी का।।

अपने का बिसरि जाय बचा-कुचा बासी खाय।

     पूर करै लड़िकन के माँग आसमानी का।

सगला कबार कइ लड़िकन के तार करै।

     थाम्हि लेय सगली अकेलेन किसानी का।

बूढ़ भये खटिया मा खाँसत बिताबय दिन।

     परे-परे तरसि रहा एक लोटिया पानी का।।


जउन बाप जीबन भर इंजन अस चलत रहा।

     ओही का लड़िका आज का किहे बताबत हाँ।

अँगुरी पकड़ि के जे चलै का सिखाइस ते।

     ओहिन का पूत आज रस्ता देखाबत हाँ।

महतारी बाप परें खटिया मा बेरामी से।

     सिमला मा पूतराम पिकनिक मनाबत हाँ।

जिअत मा कबौ नहिं खबाइन जे माड़-भात।

     मरे के बाद मालपुआ उइँ खबाबत हाँ।।


अशोक त्रिपाठी "माधव"

   शहडोल मध्यप्रदेश

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