जो मैं ठहरा रहा
वक्त तो फिर भी गुजरा
दो मील के पत्थरों के दरमयां
जो गुजरा वक्त, तो किस्सा ये सफर हो गया
यूं तो करवा जुदा थे उनके, मेरे
सफर में जो मिले तो इतेफाक हो गया
इस तरह तुम्हारा इस जहां को देखना,
की मिलना बिछड़ना, पाना खोना, हंसना रोना
खुदा को फिक्र कहां तुम्हारे बयां किया किस्से की
लम्हा दरिया का कोई हिस्सा, जो बहता गया
क्या था क्यों था, सबब मेरे चलने का
मेरा चलना ही बस, किस्सा ये सफर हो गया
-इं. प्रदीप, UKSA
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