खाना खाते समय कभी - कभी टी वी देखने का मौका मिल जाता है, वरन न्यूज और साउथ की फिल्में अजय बाबू(श्री अजय सिंह, प्रवक्ता, राजनीति शास्त्र, सनातन धर्म इंटर कॉलेज वाराणसी) के यहां ही देख पाता हूं,क्योंकि घर पर माताजी(मेरी सासु मां) कलर्स पर सीरियल देखा करती हैं।आजकल सोनी चैनल पर सायं 7.30बजे से आ रहे धारावाहिक अहिल्या बाई होल्कर संयोग से ऐसे ही देख रहा था ।उस समय बाल विवाह का प्रचलन था।विवाहोपरान्त अहिल्या बाई होल्कर की विदाई हो रही थी।दूसरा दृश्य ससुराल पहुंचने पर डोली से अहिल्या बाई होल्कर का ससुराल पक्ष स्वागत करते हुए उन्हें उतार रहा था।दोनों ही दृश्य अलग-अलग थे।एक ओर जहां विदाई का गम और रुदन।वहीं दूसरी तरफ खुशियां ही खुशियाँ,नई नवेली दुल्हन के आने की।विदाई के समय पूरा गाँव,रिश्तेदार यहाँ तक की सभी लोग रुदन करने लगते हैं,या आंखों का कोना नम हो जाता है।अभिज्ञान शाकुन्तलम में महाकवि कालिदास ने कण्व ऋषि के आश्रम से विदा हो रही शकुन्तला के बिछुड़ने के ग़म में लताओं तक के दुःखी होने का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है।लड़की विदा होते समय अपने पीहर के संबंधियों से बिछुडने के ग़म में माई रे माई,पापा हो पापा कह कर जोर - जोर से रोना,बाबा,दादी,भैया - भाभी, चाचा - चाची, बुआ, मौसी, सखी, सहेली सभी से लिपट - लिपट कर रोना - धोना अब बीते जमाने की बात हो गई है।फिर भी किसी तरह से परम्परा का निर्वहन हो रहा है।मेरी एक भतीजी (विभा)की शादी में मेरा एक भतीजा वैभव जो आज विदेश (पेरू)में अपना शोध कार्य पूरा करने में लगा हुआ है,सभी को रोते देखकर आंसू न निकलने पर आंख में थूक लगाकर जबरदस्ती के आंसू बहाया।वह नहीं समझ सका कि खुशी के माहौल में अचानक आंसुओं की बौछार क्यों?लड़की की विदाई के समय पूरा माहौल बड़ा ही हृदय विदारक हो जाया करता था।अपनी भांजी अनीता की शादी में मेरा भी बुरा हाल था,वही बेटियों की शादी में भी। आवागमन के साधन और बहुत ज्यादा आना - जाना प्रतिबंधित होना इसका एक बड़ा कारण था।अब बहुएं भी बेटियों कि भांति कहीं आने - जाने हेतु स्वतंत्र है।अब यह सब कुछ बदल रहा है ।कोर्ट मैरेज,लव मैरेज करने वाले क्या जाने विदाई क्या होती है? उस समय लड़का मियाना में जाता था और लड़की की विदाई भी डोली/मियाना में ही होती थी ।डोली/मियाना में दो कहार आगे दो कहार पीछे होते थे।हम भी मियाना में सोहबाला बनकर बैठकर भैया की शादी में गए थे और भाभी भी विदा होकर डोली में ही आयीं थीं।एक बार मै बनारसी बाबा (स्व बनारसी,मंझनपुर)के साथ भाभी को विदा कराने असौवापर गया था,विदाई के समय उनको रोते - भेंटते देखकर मैं भी रोने लगा था, सभी महिलाएं हंस रही थी, हम नासमझ की भांति उनका रोने और हंसने से अनभिज्ञ मालीपुर वाले दिलचैन दादा के इक्के पर भाभी को लिवाकर घर आ गए,यहां की खुशी देखने लायक थी, सभी बहुत प्रसन्न थे।एक घर की बेटी विदा होकर, दूसरे घर की बहू बनकर आयी थी।एक ही महिला की दो भूमिका पहली बार थोड़ी सी समझ में आयी।पहले घर पर दुल्हन आ जाती थी तब गाय के गोबर से दरवाजे पर लीप-पोतकर पिसान का चौका(अल्पना)पूरा जाता था।वैसे आज भी यह होता है,लेकिन पक्की फर्श पर,गोबर की सुगंध गायब है, नेग - चार सब प्रोफेशनल हो गए हैं।दुल्हन को डोली में से परिवार की कोई बड़ी औरत ही उतारती थी,प्रायः यह कार्य बुआ करती थी, और नेग में,जेवर, गाय, भैंस या अन्य सामान लेती थी।इसके पूर्व एक लोटा धार दी जाती थी।कल तक बेटी के रूप में हिरनी की तरह उछलती कूदती, मचलती गुड़िया, आज ससुराल आते ही सकुचाती, शर्माती, लजाती, सिर पर पल्लू संभालती,नीचे जमीन पर निहारती गंभीर मुद्रा बनाए बहू बन जाती है।बेटियाँ घर की बहुत बडी धरोहर होती हैं ।सबका ख्याल रखती हैं ।कौन खाया-पीया,किसे क्या चाहिए। गाय को खाना (कौरा)गया की नहीं। बाबा-दादी को पानी रख दिया कि नहीं।सभी की जाँच-पड़ताल कर लेने के बाद ही बेटियां खुद खाना खाती हैं।फिर सबको ओढना-बिछौना देकर ही सोती हैं ।जब भी मां- बाप बीमार होते हैं तो एक सूचना पर दौड़ती चली आती हैं।मेरी मां भी घर जाने पर पहले दीदी(जो काशी में हमारे मकान के पास ही अपने घर में रहती हैं) को ही पूछती थी,फिर पोते - पोतियों व अन्य को ।इस प्रसंग के लिखने के पूर्व एक प्रसंग और याद आ गया - मेरी बड़ी बेटी डा विभा प्रयागराज में ब्याही हुई है, नातिन (उसकी जेठानी की लड़की) रिंकी(डा विजेता)की शादी में हम लोग गए थे, सुबह विदाई के वक्त सब चर्चा में मशगूल थे कि यहां की रौनक जा रही है, अब कौन हम लोगों से चहककर मिलेगा, चाय - पानी देगा,प्रीतम नगर पहुंचने पर उसका उल्लास और खुशी देखते ही बनती थी।अब विदाई के दूसरे दृश्य का वर्णन कर रहा हूँ ,जो प्रत्येक वर्ष स्नातक व परास्नातक अंतिम वर्ष की छात्राओं का विदाई समारोह आयोजित किया जाता है,ऐसा करुण रस से परिपूर्ण दृश्य हो जाता है, कि मानों अब दुबारा किसी की किसी से मुलाकात नहीं होगी,वैसे भी बेटियां ज्यादा भावुक व संवेदनशील होती हैं।विदाई के समय अपना वक्तव्य देते हुए कभी कभी मेरा भी कंठ अवरुद्ध हो जाता था।ऐसी ही विदाई अवकाश ग्रहण करने वाले लोगों को भी होती है, लाख गिला - शिकवा हो सब अश्रुधारा में बह जाते हैं,किंतु कुछ लोग संवेदनहीनता भी प्रदर्शित कर जाते हैं।हमारे महाविद्यालय की कार्यालय अधीक्षक डॉ प्रमोदिनी वेताल की विदाई का आयोजन हमने किया था कितने स्टाफ तो बुक्का फाड़कर रो रहे थे, हर शख्स भावुक था।हमारी प्राचार्या डा कुमकुम मालवीय मैडम अपने कक्ष में बैठी थी, मैं उस समय शिक्षक संघ का अध्यक्ष भी था,शिक्षक संघ की महामंत्री और महाविद्यालय के अधिष्ठाता प्रशासन एवम् अन्य वरिष्ठ शिक्षकों और कर्मचारियों के साथ डा वेताल को लिवाकर उनसे मिलने गया तो वे अपने कक्ष में बाहर से ताला लगवाकर अंदर एक अन्य प्राध्यापक के साथ जोर जोर से हंसने में मशगूल थीं, और हम लोगों से दूर अपने उस कार्यालय अधीक्षक से अंतिम दिन भी नहीं मिली जिन्होंने उनके साथ लंबे समय तक काम किया था।ऐसा मैने अपने इतने दिन के जीवन में कभी नहीं देखा था।लेकिन यह "रेयर ऑफ द रेयरेस्ट" ही होता होगा।अन्यथा सभी लोग गिला शिकवा भूलकर एक दूसरे से लिपट कर मिलते हैं।
अब आपको अंतिम विदाई की ओर ले चलते हैं,जब व्यक्ति इस धरती पर अवतरित होता है तब खुशियां ही खुशियाँ मनायी जाती है।वहीं जब वह गोलोक वासी होता है,तब एक अंतिम विदाई उसकी होती है ।उस समय भी पूरा माहौल गमगीन हो जाता है ।जब उसके दिवंगत शरीर को अंतिम संस्कार हेतु ले जाने लगते हैं तब भी पूरे गाँव - जवार,रिश्तेदार, सगे- संबंधी व अन्य लोग जुट जाते हैं , करुण क्रंदन से पूरा माहौल गमगीन हो जाता है।कई लोगो के जाने से उनके जानवर तक इतने दुःखी हो जाते हैं कि कई दिन तक उनके वियोग में खाना-पीना भी छोड़ देते हैं।इस अंतिम विदाई या महायात्रा में पूरे चार लोग कंधा देते हैं,बारी – बारी से।शमशान तक की यात्रा बहुत ही मार्मिक और कारुणिक दृश्य व भाव उत्पन्न करती है,विशेष रूप से जब किसी की असमय मृत्यु हुई हो।वास्तव में विदाई और जुदाई दोनों ही बड़ा ही हृदय विदारक हो जाता है।संवेदनशील लोग कुछ ज्यादा ही दिनों तक इसे भूल नहीं पाते हैं और अपनों से विछुड़ने का ग़म सालों - साल सालता रहता है।
डॉ ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी
मो:9425694678
E mail: opcbns@gmail.com
1 टिप्पणी:
प्रणाम् सर आपकी रचनाएँ हमें बहुत कुछ सिखाती है...... आपके कला-चातुर्य को प्रणाम् है.
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