रविवार, अक्तूबर 11, 2020

जीवन और अन्तःकरण: इंजीनियर प्रदीप



जीवन और अन्तःकरण

जीवन एक जैविक घटना है, एक बायोलॉजिकल प्रोसेस है, अगर सिर्फ जीवन का मिलना ही जीना है तो मनुष्य और जानवर में कोई फर्क नहीं है क्योंकि जीवन तो उसे भी मिलता है, पर अन्तःकरण निर्मित होता है उसे बनाया जाता है अन्तःकरण उस पटल की तरह है जिस पर लिखना संभव है; जिस पर पहले से कुछ लिखा हुआ नहीं है। जीवन की शुरुआत में  अन्तःकरण शून्य होता है। लालच, घृणा, प्रेम, नफरत, काम  और क्रोध  भी अन्तःकरण नहीं हैं क्योंकि यह भाव है, एक परिणाम है, आवेग है अन्तःकरण की सतह पर बनती बिगड़ती हुई प्रतिक्रिया है ।

फिर अन्तःकरण क्या है? अन्तःकरण एक समझ है हर उस वस्तु को लेकर जो हमारे से होकर गुजरती है और जिसे देखकर हम उसका छाया चित्र कैद कर लेते हैं । यह सतत होने वाली प्रक्रिया है। हर समझ की नई परत हर बार हमारे मानस पर जमती चली जाती है और हमारा अन्तःकरण बनता चला जाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का अन्तःकरण अलग निर्मित हुआ है क्योंकि वस्तुओं को परखने का उसका परसेप्शन अलग था। उसे देखने का उसका नजरिया अलग था, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति एक समान दिखने पर भी भिन्न अन्तःकरण की वजह से भिन्न होते हैं । इसलिए अलग- अलग भू-भाग, और कई बार तो एक ही भू-भाग के अलग- अलग समूह, समाज में रहने वाले व्यक्तियों के आचरण, स्वभाव और नज़रिए में फर्क होता है। हमारा अंतःकरण कई स्तर पर भिन्न है और कई स्तर पर समान।

शुरुवात में बच्चे अंधेरे से नहीं डरते फिर जब वो रात में नहीं सोते हैं तो हम ही काल्पनिक डर उनके मन में भरते हैं। भले ही हमने  उन्हें नियंत्रित करने के दृष्टिगत यह सब किया हो पर यह सब उनके अन्तःकरण को निर्मित करता है और अंधेरा डर का पर्याय बन जाता है जबकि अंधेरा जिज्ञासा का विषय है । चूंकि उनका अन्तःकरण नए ब्लैक बोर्ड की तरह एकदम साफ सुथरा होता है उस समय का उकेरा हुआ वो डर जीवन पर्यन्त नहीं मिटता । अंधेरा डर का पर्याय है यह बालक के अन्तःकरण में अमरता के साथ लिखने में अभिभावक, कोई रिश्तेदार जैसे कि नाना-नानी,मौसा-मौसी या दादा-दादी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जबकि अंधेरा का अर्थ  प्रकाश का न होना है। जब सूर्य पृथ्वी के एक हिस्से में चमक रहा होता है तो पृथ्वी के दूसरे हिस्से में अंधेरा होता है।  चूंकि बच्चे में विवेक नहीं होता तो उसे जियोग्राफी समझाना और विवेक के आधार पर उसे सोने के लिए तैयार करना आसान नहीं होता तो हम उसे डर का खुराक देते हैं। पर हम इस तरह उसका अन्तःकरण भी निर्मित कर रहे होते हैं। ईश्वर का डर भी एक ऐसा ही डर है जो हमारे अन्तःकरण में निर्मित किया जाता है। राजनीति, धर्म और व्यवसाय इसके लाभार्थी भी हैं और पोषक भी ।

बड़े होते-होते एक इंसान का अन्तःकरण परिपक्व होते चला जाता है। यह परिपक्वता आकृति या विकृति के संदर्भ में नहीं है बल्कि  रिजिडनेस और फ्लेक्सिबिलिटी के संदर्भ में है । व्यक्ति का अन्तःकरण अंततः उसका ईगो और व्यक्तित्व बनता चला जाता है, भले ही उसका अन्तःकरण अचेतन में निर्मित हुआ है। अबतक निर्मित हो चुका अन्तःकरण नए विचारों को, विविधता को रिजेक्ट करता है  ऐसे विचार जो अन्तःकरण के हिसाब से न हों, हम उसे पहली बार में स्वीकार नहीं करते चाहे कितने भी तथ्य रखें जाएं। पर ऐसा नहीं है कि अन्तःकरण निर्माण की प्रक्रिया खत्म हो चुकी है यह एक सतत प्रक्रिया है पर जैसे पहले से लिखे हुए बोर्ड में नया कुछ लिखा हुआ स्पष्ट रूप से चिन्हित नहीं होता वैसे ही नई विविध जानकारी अन्तःकरण परिवर्तन में बहुत ही स्थिलिता से काम करती है।


इसलिए नए समाज और देश का निर्माण बच्चों के अन्तःकरण निर्माण से प्रारंभ होता है । हमारे बच्चों का अन्तःकरण निर्माण राजनीतिक और सामाजिक वातावरण में स्वतः हो रहा है या फिर हमारे सतत नियंत्रण और देखरेख में  इस पर बहुत कुछ  निर्भर करता है । इसलिए अन्तःकरण  निर्माण को राजनैतिक परिपेक्ष्य में भी  समझना आवश्यक है। जब राजनीति से प्रेरित कोई समूह  बैनर, होर्डिंग, पुस्तक, ऑडियो ,वीडियो लेख , कविता और कैंपेन के माध्यम से झूंठ और प्रोपगंडा को लगातार, बार-बार परोसता है , छद्म आदर्श और काल्पनिकता के प्रति प्रेम की आड़ बनाकर पॉलिटिकल कैंपेन करता है तब भी जन और समूह खासकर बाल मन  का  अतः करण निर्मित किया जा रहा होता है। इस अन्तःकरण निर्माण के पीछे जन समूह में स्वीकारता को विकसित करने का उद्देश्य होता है। पोलिटिकल लाभ के लिए हम  पब्लिक सेंटीमेंट में बदलाव करते हैं। पब्लिक सेंटीमेंट बदलते ही हर चीज बदलने लगती है। हर व्यवस्था, समूह और न्यायिक प्रणाली पब्लिक सेंटीमेंट के हिसाब से  अलाइन  होने लगता है। टेलीविज़न पर डिबेट के विषय बदल जाते हैं, नेताओं के भाषण में नारे और मुद्दे बदल जाते हैं  न्यायाधीशों के न्यायिक तर्क बदल जाते हैं , गली-मोहल्ले के बच्चों के व्हाट्सप्प और फेसबुक के  पोस्ट बदल जाते हैं ।
यह निचले स्तर पर अबोध और स्वतः आकार लेता  हुआ समाज की तरह प्रतीत होता है  पर ऊपरी स्तर एक सुव्यवस्थित संचालित किया हुआ प्रोग्राम है  जो फेसबुक,व्हाट्सप्प के पोस्ट फॉरवर्ड करने एवं  टेलीविज़न व समाचार पत्रों पर यकीन करने वाले समूह को हांकते- हांकते उनके बुनियादी विचार तंत्र से विस्थापित कर देता है,  और इस तरह वर्तमान पीढ़ी  के  राजनीतिक एवं सामाजिक अंतःकरण  का नवीनीकरण हो जाता है। पर अंतःकरण की  इस  सतह पर खड़े व्यक्ति को यही लगता है कि वह  कोई मौलिक कार्य कर रहा है जबकि सामूहिक और भीड़ वाली इस अन्तःकरण का वह भी एक प्रतिबिम्ब मात्र है।

आलेख: 
ई. प्रदीप पटेल नागपुर, महाराष्ट्र

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