कहाँ गये वो दिन
जब हम भी खेला करते थे ।
वो कंचा खोखो प्यारे थे
कबड्डी में भी हारे थे ।
वो दोस्त कहाँ हैं जिनके
संग
हम गली मोहल्ला भागे थे ।
घर की ना थी चिंता हमको
खेल कूद में आगे थे ।
गिर कर भी झट खड़े हो जाते
हमें न रोने देते थे ।
खुद की चीजें हमको देते
इतने अच्छे बच्चे थे ।
वो अटक-अटक के पड़ना सबका
याद बहुत आता है हम ।
चिड़ा चिड़ा के सबको हंसते
मजा बहुत आता था तब ।
मित्र थे अच्छे
प्यारे-प्यारे
उंच-नीच का भेद न था ।
कब मिले हमें स्कूल से
छुट्टी
घर में जाके खेलना था ।
मार पडी जो घर वालों से
चुपके-चुपके भगते थे ।
कोई न कर दे घर में चुगली
घर वालों से डरते थे ।
रह-रह के उन मित्रों का
अब भी याद सताता है ।
बचपन के वो दिन ना जानें
क्यों इतनी जल्दी जाता है ।
पंकज कुमार यादव, (ई.टी.
प्रथम वर्ष)
ग्राम- बैहार, पोस्ट-गौरेला,
थाना-जैतहरी, जिला- अनूपपुर
(मध्यप्रदेश)
ⓒपंकज कुमार यादव (ई.टी. प्रथम वर्ष)
ग्राम-बैहार, पोस्ट-गौरेला, थाना- जैतहरी,
जिला –अनूपपुर
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4 टिप्पणियां:
😊 bahut badhiya
Thank you
विडम्बनाओं से भरे-पड़े इस संसार की विडम्बनाएं ही हमारी सामग्री बन जाती हैं; अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाती हैं। जरूरतें केवल निर्जीव आवश्यकताएं नहीं होतीं, वे हमारे दिली रिश्तों को भी बुनती है। जीवन को सरल बनाने के लिए सुविख्यात यंत्र जरूरतें तो पूरी कर देते हैं किन्तु रिश्तों की बनावट नहीं। मोबाइल में खेल है, लेशन है, पाठ्य सामग्री भी है किंतु मिट्टी के दोस्त, बात-बात में समझाने वाले शिक्षक की कमी इंसान हमेशा महसूस करता रहेगा।
जीवन की यह विडंबना है कि जब ये सब जीवन मे होते हैं तब वे उतने महत्वपूर्ण नहीं होते कि उन्हें जी भर के जी लिया जाय। उन्हीं विडम्बनाओं से उपजी यह कविता है। सुंदर भावाभिव्यक्ति के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं। ऐसे ही नई-नई कविताएं लिखते रहें।
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