मेरी मंजिल:मनोज कुमार
उस समय की बात है जब मैं कॉलेज में दाखिला लिया था। मेरे सहपाठी लोग हमेशा प्यार- व्यार की बातें किया करते थे मैं चुपचाप सहमा सा रहता था। यह मेरी जिंदगी का पहला पड़ाव था। मेरे मन में संकोच और सहम का भाव मुझे हमेशा झकझोरता रहता था कि ये प्यार क्या होता है? जब मैं बार-बार अपने दिल से पूछता था कि जीवन में इसका क्या अस्तित्व है-बस एक ही उत्तर निकल कर आता था कि प्रेम जीवन का आधार है लेकिन मैं करूं तो करूं क्या? मेरे दोस्त लोग मुझ पर ताना कसा करते थे कि आपके अंदर कोई जुनून नहीं है। मुझे हरदम चिढाया करते थे और कहा करते कि प्यार के लिए जोश, जज्बा, जुनून होना चाहिए।
समय बीतता गया कुछ ही दिनों के बाद वार्षिक परीक्षाएं शुरू होने वाली थी। मार्च का महीना था उन दिनों वार्षिकोत्सव की तैयारियां चल रही थी। मेरे जीवन में एक ऐसा पल आया कि मैं अपने दोस्तों के बीच बयां नहीं कर सकता था। क्योंकि इश्क- विश्क से मैं हमेशा दूर रहता था। मेरे दोस्त लोग मजाक किया करते थे लेकिन मैं उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता था और उनकी बातों को टालता जाता था। और एक दिन दोस्तों ने कहा कि यार तुम्हारे लबों में इस समय मुस्कान देखने को मिल रहा है इसके पीछे जरूर कोई ना कोई राज छुपा हुआ है लेकिन मैं यूं ही कह कर टाल देता था। वह मुझे हमेशा चिढाया करते थे और कहते थे-यार आप तो छुपे रुस्तम हो क्योंकि उन दिनों में लोगों को प्यार के प्रति उतनी दिलचस्पी नहीं थी। विद्यार्थी अध्ययन में ज्यादा ध्यान केंद्रित किया करते थे उनमें से मैं भी एक था। किंतु आज के परिवेश में इश्क लड़ाना प्यार का इजहार करना प्रचलन में आ गया है और विद्यार्थी प्रेम के वशीभूत होकर प्यार में अपने जीवन को समर्पित कर देते हैं। मैं मानता हूं कि प्यार जीवन का अभिन्न अंग है। किंतु व्यक्ति को सीमाओं को लांघाना नहीं चाहिए क्योंकि जिस लक्ष्य से फलीभूत होकर उच्च शिक्षा ग्रहण कर जिस मुकाम तक पहुंचना चाहते हैं, वह सपना हमारा साकार नहीं हो पाएगा और हम पतन के गर्त में चले जाएंगे। उस समय मेरे दोस्त भी अपनी पढ़ाई का आधा समय प्यार की दुनिया में खो चुके थे। मेरे मन में भी अनुराग की आसक्ति थी। एक दिन की बात है जिस दिन मेरा अंतिम वर्ष का अंतिम पेपर था। मैं पेपर देकर बाहर आया और मेरी आंखें उस हसीन कीआंखों में जा मिली। आंखों-आंखों से ही बात होने लगी। मैं अपने हाथों में एक गुलाब का फूल लिया, स्पर्श कर चुंबन किया। वह मेरी तरफ टकटकी लगाकर देख रही थी। लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी वह सहम सी गई और कुछ पल सोचती रही। इसके पश्चात अपनी आंखों को टकटकी कर फिर से मेरे तरफ देखने लगी जैसे –
"राम को रूप निहारत जानकी, कंकन के नग की परछाई।
याते समय सबै सुधि भूल गई, कर टेक रही पल टारत नाहीं ॥"
यह अंतिम समय था जब मैं कॉलेज से घर आया और बिस्तर में लेट कर उस बीते हुए लम्हों में लीन हो गया और मैं अपने दिल को बहुत समझाया और धीरे-धीरे वह अनमोल पल कम होता गया । इसके बाद ग्रीष्मकालीन छुट्टियां हो गई और ना वह मिल सकी, और ना मैं। केवल यादें ही जीवित रहीं।
समय गुजरता गया और मैं मन में अटल विश्वास कर अपने गंतव्य मार्ग की ओर प्रस्थान किया। जहां मुझे आज पहुंचना था, और मैं मन में संकल्प लेकर यह निर्णय लिया कि मुझे जीवन में कुछ करना है और आज मैं उस मुकाम तक पहुंचा और कामयाबी के इस मंजिल को हासिल किया। किसी ने ठीक ही कहा है-
"लक्ष्य न ओझल होने पाए,
कदम मिलाकर चल।
कामयाबी तुम्हारी पग चूमेगी
आज नहीं तो कल॥"
लघु कहानी: मनोज कुमार चंद्रवंशी
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