आंखें बंद कर लेने से सूरज निकलना या अस्त होना नहीं छोड़
देता, पृथ्वी अपनी धुरी पर व सूर्य
के चारों ओर चक्कर लगाना नहीं छोड़ देती। अतः अपने आंखें बंद कर लेना
किसी समस्या का निराकरण नहीं हो सकता। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
पेड़-पौधे, जीव-जंतु व इंसान के प्रवृत्ति
व गुणों को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक है-पहला है जिनेटिक कारक जो
उसके डीएनए में रहता है या गुणसूत्र में रहता है। दूसरा कारक परिवेश या
वातावरण है, जहां वह अपने जीवन की सारी
प्रक्रियाएं पूर्ण करता है । पहले कारक पर एक सीमा तक इंसान का बस नहीं है।
किंतु दूसरा कारक तो उसी ने निर्मित किया है। इस दूसरे कारक को बदलकर ,सुधारकर किसी भी जीव के
प्रवृत्ति एवं गुणों को परिवर्तित किया जा सकता है।
पंचतंत्र मे एक छोटी किंतु शिक्षाप्रद कहानी है कि एक घोसले में तोता के दो
छोटे बच्चे रहते हैं, तूफान आता है, दोनों बच्चे अलग हो जाते हैं। संयोग से एक तोता
संत के यहां पहुंचता है जबकि दूसरा तोता एक लुटेरे के घर पहुंच जाता है। दोनों
अपने- अपने परिवेश में बड़े होते हैं एक बार एक राजा
शिकार के लिए जंगल जाता है, किन्ही कारणों से वह मार्ग
भटक जाता है और अकेला हो जाता है। मार्ग की तलाश में वह
यहां से वहां भटकता हुआ काफी थक जाता है तथा जंगल में एक घने बरगद के वृक्ष के
नीचे विश्राम करने के लिए जैसे ही रुकता है। उसे एक आवाज सुनाई देती है कि दौड़ो-दौड़ो,
पकड़ो-पकड़ो। राजा भयभीत होकर इधर-उधर देखने लगता है। उसे कोई नजर नहीं आता, केवल एक तोता दिखाई देता है।
वहां से भागते-भागते आगे बढ़ता है। उसे दूर एक कुटिया दिखाई
देती है। आश्रय के लिए वहाँ जाता है, जैसे ही कुटिया के समीप पहुंचता है, उसे फिर एक आवाज सुनाई देती
है। आइए, बैठिए। विश्राम करिए। घड़े से जल ले लीजिए। कुछ फल रखे हैं, ग्रहण कर लीजिए। वह यहां-वहां
देखता है उसे फिर कोई व्यक्ति नजर नहीं आता केवल एक तोता नजर आता है। वह बडे
आश्चर्य में पड़ जाता है यह कैसे संभव है?
ये दोनों आवाज उन
तोतों की थी जो एक ही माता-पिता के संतान थे अलग-अलग परिवेश ने उन्हें ऐसा बना
दिया था। परिवेश या पर्यावरण के प्रभाव को कई प्रकार के उदाहरणों से
समझाया जा सकता है, किंतु कहानियों के माध्यम से इंसान सरलता से
समझ सकता है।
स्पष्ट है कि यदि बीमारी जडो मे हो तो इलाज भी जड़ का ही
किया जाना चाहिए फूल और पत्तियों के इलाज करने से हम उसे रोगमुक्त नहीं कर सकते। बच्चे जब जन्म लेते हैं तो डीएनए व गुणसूत्र को
छोड़कर सभी बच्चे एक समान ही होते हैं। (रंग रूप बनावट आदि को छोड़कर) बच्चे बड़े
होते हैं तो उन पर वातावरण व परिवेश का प्रभाव पड़ता है, जो उनके मन-मस्तिष्क पर बैठ
जाता है। बाद में जब वह बालक बड़ा होता है तो उसमे वही गुण परिलक्षित होते हैं। अब
यदि उसके गुण एक सभ्य समाज के अनुकूल नहीं हैं तो इलाज हमें किसका करना चाहिए?
मनोविज्ञान कहता है कि बच्चे पर सबसे अधिक प्रभाव उसके
माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी व परिवार का पड़ता
है, फिर उसे अध्ययन कराने वाले
शिक्षक का, समाज का व उसके मित्र मंडली
का। और इस प्रकार उसके मन-मस्तिष्क पर अच्छे या बुरे संस्कार बनते हैं, जो उसके अच्छे या बुरे गुणों
को प्रभावित करते हैं।
अब यदि समाज में अच्छी या बुरी घटनाएं दिखाई पड़ रही हैं और यदि हम सचमुच समाज की बुराइयों को दूर करना
चाहते हैं, तो हमें कारण को सुधारना पड़ेगा। अन्य सभी उपाय
अप्रभावी ही रहेंगे।
ऐसी कोई समस्या नहीं जिसे दूर नहीं किया जा सकता। पर उसके
लिए हौसला, हिम्मत, साहस, धैर्य के साथ-साथ सही वह उचित उपाय करना होगा।
शताब्दियों पूर्व इस धरती पर एक शिक्षक हुए थे, जिन्होंने नवभारत का निर्माण
किया था। कहने का आशय यह है कि समाज के इन समस्याओं को केवल अच्छी शिक्षा व शिक्षक
ही दूर कर सकते हैं। शिक्षक का आशय केवल विद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षकों तक ही
सीमित नहीं है, किसी भी नवजात बच्चे के
प्रथम शिक्षक उसके माता-पिता होते हैं, फिर उसे विद्या अध्ययन कराने वाले शिक्षक होते
हैं ,फिर उनके धर्मगुरु होते हैं
जिनसे वह प्रभावित होता है, और जब तक ये शिक्षक सार्थक पहल नहीं करते तब तक इन सामाजिक
बुराइयों को दूर कर पाना असंभव है। सभ्य व सुसंस्कृत समाज के लिए अच्छी शिक्षा अमृत का कार्य
करती हैं । आज आह्वान है ऐसे शिक्षकों
का जो समाज की उन सभी बुराइयों को दूर
करने में सहयोग कर सकते हैं, जो समाज के लिए, देश के लिए, अनुकूल नहीं है।
कौन
कहता है आसमान में सुराख नहीं होगा
एक
पत्थर तो जरा तबीयत से उछालो यारों।
. आलेख: एस एन पाठक
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी बात कही आपने merry christmas
बहुत अच्छी कहानी christmas
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