मानव आज पृथ्वी दिवस मना रहा इसी धरा में।
वह तो बेवश है मात्र अपनी बनाई परम्परा में।
यह धरती को एहसान में बांधने का उपक्रम है,
श्रृंगारहीन मलान्मुख दिखता नहीं वसुंधरा में।
कोई नहीं तैयार विकास रथ पीछे ले जाने को,
सभी प्रतिस्पर्धी हैं धरा का बस लहू बहाने को,
मिटती है तो मिट जाए धरा, अम्बर भी तो है
सब हैं तैयार अपना आशियाना वहीं बनाने को।
मानव जनकर इस धरती से कोई भूल हुई है।
मानो कोई स्वर्णिम तट घिस कर धूल हुई है।
मानव के विलास भोग से हती गयी है अबला,
अपने साथ मगर वह नष्ट जीव समूल हुई है।
कार्बन उत्सर्जन कम करने राष्ट्रों में जंग छिड़ी है,
तू-तू, मैं-मैं करने के क्रम में स्थिति और बिगड़ी है,
टूट रहा हर साल पुराने तापमापोंं का अभिलेख,
अब तो हिमशिखरों की भी सांसे उखड़ी है।
ऐसा लगता है जीवन का कोई मोल नहीं है।
सिक्के खनकें तो फिर कोई और बोल नहीं है।
मानव की बलिवेदी से प्रकट राजनीति हावी है,
राजनीति ही राजनीति! कोई भूगोल नहीं है।
दोष मात्र रहा नहीं अब केवल सरकारों का।
चर्चा हो धरती पर आमजनों के अत्याचारों का।
भोग-विलास के पीछे गजमत्त हुए हैं सबजन,
कोई पूछता नहीं हाल यहाँ बेवश, लाचारों का।
पारितंत्र के अनेक जीवो का हो चुका विलोप,
क्या मानव पर इसका पड़ेगा नहीं प्रकोप।
जैसे मोती चटकाए बिखरे कड़ियों का अभाव,
क्या मनुष्य सह सकेगा धरती का ऐसा कोप।
जंगलों में जन्मा, मानव जंगल का दुश्मन बना है,
आज देखो मानव का चहुँओर जंग-सा ठना है।
मूल से अलग हो कौनसा बेलवृक्ष पनपा?
आज मनुष्य वृक्ष व सहजीवों के सम्मुख तना है।
असंख्य नद्य-नहर,बाँध असंख्य, अवशिष्टों के टीले।
स्वचिता पर नृत्य करते मानव के हुए न नैन गीले।
बेरोक गति पर दे विराम ही बढ़ेंगे दुनिया के रथ,
अच्छा होगा अब मानव खुद गाड़े रुकने की मीलें।
रचना: सुरेन्द्र कुमार पटेल
वह तो बेवश है मात्र अपनी बनाई परम्परा में।
यह धरती को एहसान में बांधने का उपक्रम है,
श्रृंगारहीन मलान्मुख दिखता नहीं वसुंधरा में।
कोई नहीं तैयार विकास रथ पीछे ले जाने को,
सभी प्रतिस्पर्धी हैं धरा का बस लहू बहाने को,
मिटती है तो मिट जाए धरा, अम्बर भी तो है
सब हैं तैयार अपना आशियाना वहीं बनाने को।
मानव जनकर इस धरती से कोई भूल हुई है।
मानो कोई स्वर्णिम तट घिस कर धूल हुई है।
मानव के विलास भोग से हती गयी है अबला,
अपने साथ मगर वह नष्ट जीव समूल हुई है।
कार्बन उत्सर्जन कम करने राष्ट्रों में जंग छिड़ी है,
तू-तू, मैं-मैं करने के क्रम में स्थिति और बिगड़ी है,
टूट रहा हर साल पुराने तापमापोंं का अभिलेख,
अब तो हिमशिखरों की भी सांसे उखड़ी है।
ऐसा लगता है जीवन का कोई मोल नहीं है।
सिक्के खनकें तो फिर कोई और बोल नहीं है।
मानव की बलिवेदी से प्रकट राजनीति हावी है,
राजनीति ही राजनीति! कोई भूगोल नहीं है।
दोष मात्र रहा नहीं अब केवल सरकारों का।
चर्चा हो धरती पर आमजनों के अत्याचारों का।
भोग-विलास के पीछे गजमत्त हुए हैं सबजन,
कोई पूछता नहीं हाल यहाँ बेवश, लाचारों का।
पारितंत्र के अनेक जीवो का हो चुका विलोप,
क्या मानव पर इसका पड़ेगा नहीं प्रकोप।
जैसे मोती चटकाए बिखरे कड़ियों का अभाव,
क्या मनुष्य सह सकेगा धरती का ऐसा कोप।
जंगलों में जन्मा, मानव जंगल का दुश्मन बना है,
आज देखो मानव का चहुँओर जंग-सा ठना है।
मूल से अलग हो कौनसा बेलवृक्ष पनपा?
आज मनुष्य वृक्ष व सहजीवों के सम्मुख तना है।
असंख्य नद्य-नहर,बाँध असंख्य, अवशिष्टों के टीले।
स्वचिता पर नृत्य करते मानव के हुए न नैन गीले।
बेरोक गति पर दे विराम ही बढ़ेंगे दुनिया के रथ,
अच्छा होगा अब मानव खुद गाड़े रुकने की मीलें।
रचना: सुरेन्द्र कुमार पटेल
4 टिप्पणियां:
👍💐
शुक्रिया सर.
Nice
thanks.
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