वासनाओं से सजाया तन को,
समझा सका न अपने मन को।
लुटाने चला है संचित धन को,
थाम न पाया बहते पवन को।
आसमान में करने लगा उड़ाने,
स्वर्ग की लालसा सच्चा सुख पाने।
अपनी अति इच्छा को पूर्ण कराने,
लक्ष्य बनाकर उसने मन में ठाने।
डूबा था अहंकार के बल पर,
अपमान का तनिक नहीं डर।
जैसे बाधा मुक्त हो यह सफर,
वासनाओं में है अमृत निर्झर।
धूप छांह हो या भारी वर्षा जल,
जीवन का मरण हो आज या कल।
सोना बिके या चांदी का महल,
पूर्ण करेगा वह इच्छा प्रबल।
ढूंढ़ता फिरे गांव और शहर,
सपने देख रहा था वह हर प्रहर।
सागर को भी लांघे या हो नहर,
काया में चढ़ाया असली जहर।
ठोकरें खाकर भी डटा रहा समर,
जीवन में छाया माया का असर।
वासनाओं को अपने सम्मुख कर,
अंत समय में प्राण गया निकर।
समझा सका न अपने मन को।
लुटाने चला है संचित धन को,
थाम न पाया बहते पवन को।
आसमान में करने लगा उड़ाने,
स्वर्ग की लालसा सच्चा सुख पाने।
अपनी अति इच्छा को पूर्ण कराने,
लक्ष्य बनाकर उसने मन में ठाने।
डूबा था अहंकार के बल पर,
अपमान का तनिक नहीं डर।
जैसे बाधा मुक्त हो यह सफर,
वासनाओं में है अमृत निर्झर।
धूप छांह हो या भारी वर्षा जल,
जीवन का मरण हो आज या कल।
सोना बिके या चांदी का महल,
पूर्ण करेगा वह इच्छा प्रबल।
ढूंढ़ता फिरे गांव और शहर,
सपने देख रहा था वह हर प्रहर।
सागर को भी लांघे या हो नहर,
काया में चढ़ाया असली जहर।
ठोकरें खाकर भी डटा रहा समर,
जीवन में छाया माया का असर।
वासनाओं को अपने सम्मुख कर,
अंत समय में प्राण गया निकर।
रचना: रमेश प्रसाद पटेल
4 टिप्पणियां:
Apne jeevan ki vastvikata ko ek prabhavi dhar se sambodhit kiya hai. Sach apke kalashakti ko salam hai..
आप सबका आशिर्वाद चाहुंगा सर
Very nice poem.sir
Very nice poem.sir
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