मनुष्य जाति में जन्म लेने का यह लाभ है कि मनुष्य भौतिक, दैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक तमाम तरह की सुखानिभूति कर सकता है। अन्य जीव दैहिक सुखानुभूति तो प्राप्त कर सकते हैं परन्तु अन्य सुखों का अनुभव वे नहीं कर सकेंगे। किन्तु क्या मनुष्य जाति में जन्म लेने मात्र से कोई मनुष्य तमाम प्रकार के सुखों को प्राप्त कर सकेगा? उत्तर अत्यन्त सरल है। मनुष्य जाति में जन्म लेने मात्र से मनुष्य सभी सुखों का भागी नहीं होता बल्कि सभी प्रकार के सुखों का भागी बनने के लिए उसे अपने भीतर उस तरह की क्षमता और पात्रता अर्जित करनी होती है। यह पात्रता मनुष्य में शनैः शनैः आती है।
मनुष्य जिन सुखों एवं आनंदों की अनुभूति करता है उनमें एक तरह की क्रमिकता है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में सत्संग और प्रवचन को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। ये सत्संग या प्रवचन मनुष्य को उस सुखानुभूति का पूर्व प्रशिक्षण है जिसे विशद आध्यात्मिक साधना द्वारा प्राप्त किया जाता है। चूंकि उस समय शिक्षा का सार्वभौम अधिकार नहीं था अतः जिनके पास शिक्षा का अधिकार था, वे सत्संग व प्रवचन के माध्यम से लोगों को साहित्य का रसास्वादन कराया करते थे।
ओशो अपने अनुयायियों को आनंद के एक स्तर से दूसरे स्तर में ले जाने का प्रयास करता है। वह प्रथमतः आनंद के एक स्तर को अनूभूत करने की क्षमता पैदा करने की कोशिश करता है ताकि उसके अनुयायी दूसरे स्तर के आनन्द की अनुभूति कर सकें। किन्तु ओशो के इस विचार को समझने के लिए थोड़े गहरे उतरने की जरूरत है।
सुखों की अनुभति के लिए हमें एक विशेष मानसिक प्रकिया से गुजरने की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया में हम अपने मस्तिष्क को प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। प्राचीन समय में ऋषि-मुनियों के द्वारा गुफाओं एवं कंदराओं में योग-साधना इसी का एक रूप था। यदि हम अपने मस्तिष्क को प्रशिक्षित न कराएं और सुखानुभूति के दूसरे स्वरूपों का प्रशिक्षण प्रदान न करें तो मनुष्य पहले से उपलब्ध सुख के स्वरूप को ही अधिक महत्व देता है। यही कारण है कुछ लोग धन को अधिक महत्व देते हैं। उन्हें लगता है कि बहुत अधिक धनसंचय ही सुखों का कारण है। वे इस पर इतना अधिक समय खर्च करते हैं कि उनका सारा जीवन धनसंचय करने में खत्म हो जाता है किन्तु वे सुख के अन्य उत्तम स्तरों पर कभी नहीं पहुंच पाते। कुछ अधिक निम्नश्रेणी के व्यक्ति दैहिक सुख से ही आगे नहीं निकल पाते। कुछ भौतिक विलास को ही आनंद और सुख का परमधाम मानते हैं। वस्तुतः एक उत्तम मनुष्य अपने जीवन में इन सारे सुखों एवं आनंदों की अनुभूति एक क्रमिकता से करते हुए आगे बढ़ता है। जिसने आनंद के सभी स्वरूपों का विवेकपूर्ण उपभोग किया है वह उन सुखों एवं आनंदों की अनुभति में वापस नहीं लौटता क्योंकि उसे यह बात ठीक तरह से मालूम है कि आनंदानुभति का जो दूसरा स्तर है वह इससे कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
किसी के पास कितनी ही अथाह धन-सम्पदा क्यों न हो वह उनकी अनुभूति ही कर सकता है। न तो वे धन-सम्पदा उसमें समाहित हो सकती हैं और न वह व्यक्ति उन धन-सम्पदाओं में समाहित हो सकता है। उन धन-सम्पदाओं से विकसित कुछ सुविधाओं का वह लाभ अवश्य उठाता है वे सुविधाएं भी मनुष्य को तभी सुखानुभूति कराती हैं जब उन सुविधाओं को मस्तिष्क स्वीकृति प्रदान करता है। अतः सुख एक प्रकार का मानसिक प्रशिक्षण है जिसे मनुष्य सीख सकता है।
शिक्षा और साहित्य वह साधन हैं जो मनुष्य को तमाम तरह के सुखों की अनुभूति करने योग्य बनाती हैं। शिक्षा भले ही अनौपचारिक हो परन्तु शिक्षा ही मनुष्य को आनंदानुभूति कराने में सक्षम होती है। यदि किसी व्यक्ति को मनुष्य समाज की व्यवस्था, संगति-विसंगति, पर्यावरण और अन्य जैव-अजैव की समझ नहीं है तो मनुष्य बहुत सारे आनंदों से विरत ही रहता है। वहीं दूसरी ओर इन सब चीजों की समझ रखने वाला व्यक्ति वाद-संवाद और साहित्य में वह रस ढुंढ़ लेता है जिसके स्वादमात्र से ही उसका जीवन रसमय हो जाता है।
समाज में तमाम तरह की विकृतियों का कारण हमारा साहित्य से दूर होना है। जब मानव मस्तिष्क बोझिल होता है तब वह इस बोझ को उतारने का कोई न कोई सरल उपाय अवश्य ढूंढ़ता है। कोई संगीत सुनता है, कोई फिल्में देखता है। कोई संगी-साथियों के साथ सैर-सपाटा करता है। कोई अपने किसी अतिप्रियजन के साथ संवाद करता है। कुछ लोग साहित्य का अवलम्बन भी करते हैं। जिन्हें इनमें से कुछ नहीं रुचता वे बाहरी औषधि के द्वारा मनोरंजन करने का उद्यम करते हैं। यह खुशी की बात है कि इनमें से सबसे अच्छा और सस्ता साधन साहित्य ही है। वास्तव में साहित्य अध्ययन मनुष्य को एक प्रकार के आनंद के स्वरूप से परिचित तो कराता ही है वह अन्य उत्तम आनंदानुभूति के लिए मानव मस्तिष्क को प्रशिक्षित भी करता रहता है। एक साहित्यिक अध्येता और एक आध्यात्मिक साधक के मध्य बहुत कम फर्क बचता है। जिस प्रकार अध्यात्म व्यक्ति को एक अनंत यात्रा पर ले चलने का प्रयास करता है उसी प्रकार एक उत्तम साहित्य भी व्यक्ति को एक अमूर्त संसार में ले चलने का प्रयास करता है।
प्रेमी-प्रेयसी के मनोभावों को उभारने का काम कविताओं और गीतों के माध्यम से खुले मंच में किया जाता है और उसे समाज की स्वीकृति प्राप्त है, वह इसलिए कि यह आनंद का वह स्वरूप है जिसके समक्ष दैहिक सुख तुच्छ लगने लगता है और भावनात्मक लगाव चरम पर होता है। जिसमें एक व्यक्ति दूसरे की न केवल अहमियत को महसूस करता है बल्कि वह उसका आदर करता है, प्रेम को एक मूल्य प्रदान करता है। इस स्थिति में प्रेम में जोर-जबरदस्ती, क्रूरता और हिंसा का कोई स्थान नहीं होता। इसमें किसी और की प्रेयसी या पत्नी को अपना बना लेने की कोई जद्दोजहद नहीं है बल्कि उस स्थिति को स्वीकार करने और उस विरह में खुद को तपा लेने का भाव है। किन्तु इन भावों को कौन समझेगा? जिसे इन गीतों और कविताओं का रस लेना नहीं आता उसका अभीष्ट तो दैहिक सुख ही रहेगा! साहित्य के समाज से दूर होते जाने का यह दुष्परिणाम है कि आज स्त्री जाति नोचने की वस्तु बन गई है। आए दिन की घटनाएं हमें यह कहने के लिए मजबूर करती हैं। जबकि गीतों और कविताओं में प्रेम गीत पढ़ते-सुनते व्यक्ति कब गीतों और कविताओं को ही अपनी प्रेमिका बना बैठता है उसे पता नहीं लगता। फिर उसे व्यक्ति रूप में किसी प्रेयसी की आवश्यकता नहीं रह जाती।
इसी प्रकार धन के पीछे सारा जीवन होम करते लोग भी देखे गए हैं। मनुष्य का लक्ष्य जीविकोपार्जन नहीं है। जीविकोपार्जन तो साधन मात्र है। विकास के जो भी मूल मानक हैं वे सब मनुष्य जाति को सुख और आनंदानुभूति के उच्चतम स्तर में पहुंचाने के लिए ही हैं किन्तु विडम्बना ही कहा जाएगा कि मनुष्य अभीष्ट को भूलकर पथगामीमात्र हो गया है। हम अपना सारा समय जीविकोपार्जन के कई तरीकों में लगा रहे हैं। इसकी वजह क्या है? इसकी एक कटु वजह यह है कि हम अपने अभीष्ट को भूलते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप हम जीविकोपार्जन के जिस रास्ते पर हैं वहीं ठहर से गए हैं। उसी को जीवन का अभीष्ट मान लिया है।
हर कोई किसी न किसी प्रकार के सुख की तलाश में है। और यह भी कि हर व्यक्ति स्वयं यह नहीं जानता कि वह किस प्रकार के सुख की तलाश में है। व्यक्ति एक ऐसे प्यासे पथिक के समान है जिसे यह ही नहीं पता कि उसे किस चीज की प्यास है। ऐसी स्थिति में उसके वातावरण में उपलब्ध उस किसी भी चीज से अपनी प्यास बुझाने की कोशिश करता है जो उसे सुख दिला सकते हैं। साहित्य के रसास्वादन में किसी तरह का कोई खतरा नहीं है। यह व्यक्ति का न तो बहुत अधिक खर्च कराता है, न किसी तरह की शारीरिक क्षति पहुंचाता और न ही समाज द्वारा स्वीकार्य नैतिक जिम्मेदारियों से विमुख होने का कुमार्ग दिखाता है। साहित्य व्यक्ति का अधोपतन भी नहीं करता। फिर न जाने क्यों लोग इससे मुंह बिचकाते फिरते हैं। साहित्य का अध्ययन और लेखन व्यक्ति को परावलम्बन से स्वाबलम्बन की ओर ले जाने वाला साधन है। वह गैरों और औरों की तलाश में पूर्णविराम लगाकर स्वयं को खोजने का साधन है।
साहित्य के अभाव में व्यक्ति उन रास्तों पर चल सकता है जो एक नैतिक समाज में सर्वस्वीकार्य नहीं हैं। साहित्य अध्ययन मनुष्य को उन समस्त सुखाुनभूति कराने में सक्षम है जिसे मनुष्य को अनुभत करने की पात्रता है। अतः समय-समय पर साहित्य अध्ययन व स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त रहना मनुष्य की दिनचर्या का अंग होना चाहिए।
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2 टिप्पणियां:
साहित्य अध्यन, अध्यापन, स्वाध्य भी रुचि के विषय हैं। इस तरह की रुचि को बच्चों में विकसित करना यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है पर सत्य यह है कि सभी व्यक्तियों में स्वाध्याय के प्रति एकसमान जिज्ञासा अथवा प्रेम नहीं होता ज्यादातर लोगों को पढ़ना पसंद नहीं होता । यदि 100 लोगों से यह सवाल पूछा जाय की अपने अपने पाठ्य पुस्तक के आलावा कितने अतिरिक्त पुस्तकें स्वेक्षा से पढ़ी हैं तो आंकड़े बेहद निराशाजनक मिलेंगे। यही कारण है कि हमारे आसपास खासकर भारत में एक तरह का भीडतंत्र दिखाई पड़ेगा जिनका इतिहास, साहित्य, भूगोल, राजनीति का ज्ञान सोशल मीडिया का प्रोपगंडा और भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। इसलिए ऐसे समाज में जहां व्यक्तिगत अध्ययन लगभग शून्य के बराबर हो उस समाज को आसानी से उन्मादी, भावुक बनाकर भेड़ों की तरह हांका जा सकता है। राजनैतिक कौशल के चालक व्यक्ति इन्हीं भीड़ को तैयार और सामने कर जनता की आवाज की तरह प्रस्तुत करती है। जबकि स्वाध्याई और पढ़ने लिखने वाला व्यक्ति इस बात का चिंतन करता है कि उसे कहां पर खड़े होना है और कहां पर खुद को अलग करना है। इसलिए किसी समाज और भोगौलिक इकाई के राजनैतिक और सामाजिक संरचना पर उस समाज में स्वाध्याई जनमानस की संख्या का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
जहां तक सुख की बात है तो सुख अथवा आनंद एक अनुभूति है । वैज्ञानिक मानते हैं कि शरीर में एक विशेष प्रकार कि रासायनिक प्रक्रिया हमें सुख का अहसास कराती है और कोई भी कार्य इस प्रक्रिया को स्टिमुलेट कर सकते हैं और यह व्यक्ति दर व्यक्ति बदलता है। शायद यही कारण होगा की हर व्यक्ति को अलग अलग कार्यों मै आनंद आता है। जो भी कार्य उस रासायनिक प्रक्रिया को स्टीमुलेट कर सके व्यक्ति को उसमे सुख की अनुभूति होती है और सुख की अनुभूति उसे फिर और ज्यादा उसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती है। जैसे एक मदपान करने वाले व्यक्ति को सुख की अनुभूति होती है सुख की अनुभूति उसे फिर मादपान के लिए उकसाती है इस तरह से एक कुचक्र निर्मित होता है। इसी तरह अच्छे क्रियालाप का भी चक्र निर्मित होता है और साहित्य/स्वाध्याय/लेखन के चक्र में फंसना श्रेयस्कर है।
सुरेन्द्र जी आपका लेख जानकारी से लबालब रहता है और जीवन को आवश्यक खुराक की तरह पोषित करता है। आपसे ऐसे ही बहुत सारे लेख की उम्मीद है। आपकी लेखनी का आभार ।
आपने विस्तृत समीक्षा कर इस लेख को अधिक व्यापक और बहुआयामी बना दिया है. बहुत-बहुत साधुवाद.
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