गाँधी जयंती
महात्मा गाँधी अथवा मोहन दास करम चंद गाँधी, एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती. एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने सत्य को कहकर नहीं अपितु उस पर चलकर बताया. ऐसा व्यक्तित्व जिसने सत्य को प्रतीकों से नहीं अपितु अनुभव से जाना. ऐसे व्यक्तित्व का आज 150वाँ जन्म दिन है. आज समय है कि हम एक बार उनके संदेशों को जानने का प्रयत्न करें.
गाँधी जी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' में अपने जन्म के बारे में उन्होंने लिखा है -"कबा* गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्याए थीं; अंतिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे । उनमें अंतिम मैं था।" अपने पिता के बारे में उन्होंने लिखा है,"पिता कुटुम्ब-प्रेमी, सत्य-प्रिय ,शूर , उदार किन्तु क्रोधी थे........पिताजी ने धन बटोरने का लोभ कभी नहीं किया ।"[*कबा=करमचंद गाँधी] अपनी माताजी के बारे में गाँधी जी ने लिखा,"मेंरे मन पर यह छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं । वे बहुत श्रद्दालु थीं । बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं ।" उनका जन्म कब हुआ इस सम्बन्ध में उनका ही कथन उद्धृत करना उचित होगा. उन्होंने लिखा,"इन माता पिता के घर में संवत् 1925 की भादों वदी बारस के दिन, अर्थात 2 अक्टूबर , 1869 को पोरबन्दर अथवा सुदामापुरी में मेरा जन्म हुआ।"
निश्चय ही उनके जीवन में उनके माता-पिता के उत्तम गुणों की छाप रही. पिता की तरह गांधीजी को धन लोभ कभी छू नहीं सका तो वहीं माता जी का धर्म परायण होना व कठिन से कठिन व्रत भी सरलता से पूरा करने का गुण गांधीजी को आजीवन प्रभावित किया. कहना होगा कि गांधीजी के व्यक्तित्व के बीज उनके माता-पिता से ही उन्हें प्राप्त हुए किन्तु इन गुणों को जीवन में उतारने में उन्होंने अपने प्राणों और प्रियजनों की कभी चिंता नहीं की.
बचपन आम था- गाँधी जी के बचपन का जीवन आम इंसान की ही भांति था. वह बहुत कुशाग्र बुद्धि नहीं थे. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-"बचपन मेरा पोरबन्दर में ही बीता। याद पड़ता है कि मुझे किसी पाठशाला में भरती किया गया था. मुश्किल से थोड़े पहाड़े मैं सीखा था । मुझे सिर्फ इतना याद है कि मैं उस समय दूसरे लड़कों के साथ अपने शिक्षक को गाली देना सीखा था । और कुछ याद नहीं पड़ता । इस पर से मैं अंदाज लगाता हूँ कि मेरी बुद्धि मंद रही होगी."
सत्य का पहला प्रयोग- कदाचित विद्वानों और स्वयं गाँधी जी के अनुसार उनका सत्य का पहला प्रयोग कुछ और भी हो सकता है, या बचपन का कोई ऐसा प्रसंग, जिसकी चर्चा बहुत न हुई हो.किन्तु उनकी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' को पढने से ऐसा प्रतीत होता है कि उनका सत्य का पहला प्रयोग उस समय पर हुआ जब उन्होंने शिक्षक के इशारे के बावजूद अपने साथी छात्र की उत्तरपुस्तिका से नकल कर उन्हें दिए गये अंग्रेजी शब्द "kettle" के हिज्जे को नहीं सुधारा.
बाल-विवाह का दुष्परिणाम उनके शब्दों में- विदित ही है कि गाँधी जी का तेरह वर्ष की आयु में विवाह हो गया था. बाल-विवाह के सम्बन्ध में स्वयम गाँधी जी ने लिखा है."ब्याह का परिणाम यह हुआ कि हम दो भाईयों का एक वर्ष बेकार गया । मेंरे भाई के लिए तो परिणाम इससे भी बुरा रहा । ब्याह के बाद वे स्कूल में पढ़ ही न सके । कितने नौजवानों को ऐसे अनिष्ट परिणाम का सामना करना पड़ता होगा, भगवान ही जाने !"
आचरण की शुद्धता विद्यार्थी जीवन में सीखा-अपने आचरण के सम्बन्ध में गाँधी जी ने लिखा है , "मेरा अपना खयाल है कि मुझे अपनी होशियारी का कोई गर्व नहीं था । पुरस्कार या छात्रवृति मिलने पर मुझे आश्चर्य होता था । पर अपने आचरण के विषय में मैं बहुत सजग था । आचरण में दोष आने पर मुझे रूलाई आ ही जाती थी । मेंरे हाथों कोई भी ऐसा काम बने, जिससे शिक्षकों को मुझे डाँटना पड़े अथवा शिक्षकों का वैसा खयाल बने, तो वह मेंरे लिए असह्य हो जाता था ।"
पत्नी प्रेम, अर्थाभाव और सामाजिक बहिष्कार के बावजूद विलायत गए- गांधीजी की पत्नी निरक्षर थीं. इसके बावजूद ऐसा कोई प्रसंग नहीं आता जिसमें उनमें कस्तूरबा के प्रति लगाव न रहा हो. बल्कि जब गांधीजी जी विलायत गए, उन्हें संतान प्राप्ति भी हो चुकी थी. उन्होंने लिखा है, "माताजी की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर और पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर मैं उमंगों के साथ बम्बई पहुचा ।" स्पष्ट होता है कि गांधीजी का शिक्षा प्राप्ति का निश्चय बहुत अधिक दृढ़ था. पैसों का अभाव तो था ही. अपने भाई के मित्रों और बहन से रकम जुटाकर विलायत जाने के तैयारी कर ही रहे थे कि उनके जातिवालों ने समुद्र पार करने के सम्बन्ध में गाँधी जी के विरुद्ध पंचायत बैठा दी. इस सम्बन्ध में गाँधी जी ने जो कुछ लिखा उसे उद्धृत करना ही अधिक उचित होगा," जाति की सभा बुलायी गयी । अभी तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नहीं गया था । और मैं जा रहा हूँ इसलिए मुझसे जवाब तलब किया जाना चाहिए । मुझे पंचायत में हाजिर रहने का हुक्म मिला । मैं गया । मैं नहीं जानता कि मुझमें अचानक हिम्मत कहाँ से आ गयी। हाजिर रहने में मुझे न तो संकोच हुआ, न डर लगा ।" अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि उन्होंने सरपंच के सभी प्रश्नों का निर्भीकता पूर्वक जवाब दिया किन्तु पंचायत ने उन्हें समाज से बहिष्कृत करने का फैला किया. गांधीजी पर इसका कोई असर नहीं पड़ा.
विलायत में रखा माँ को दिए गए वचनों का ध्यान- गाँधी जी ने विलायत जाने के बाद अपनी माँ के दिए वचनों का पूरा ध्यान रखा और उसका अक्षरश: पालन किया. विलायत जैसी ठंडी जगह पर मांस न खाना इतना सहज न था. और यह भी नहीं कि उनके मित्रों ने उन्हें मांस खाने के लिए विवश न किया हो परन्तु अपनी माँ को दिए वचनों के लिए उन्होंने अपना वृत नहीं तोडा. उन्होंने लिखा है," मित्र मुझे रोज मााँस खाने के लिए समझाते । मैं प्रतिज्ञा की आड़ लेकर चुप हो जाता । उनकी दलीलों का जवाब देना मेंरे बस का न था । दोपहर को सिर्फ रोटी, पत्तों वाली एक भाजी और मुरब्बे पर गुजर करता था । यही खुराक शाम के लिए भी थी । मैं देखता कि रोटी के तो दो-तीन टुकड़े ही लेने की रीत है । इससे अधिक मााँगते शर्म लगती थी । मुझे डटकर खाने की आदत थी । भूख तेज थी और खूब खुराक चाहती थी । दोपहर या शाम को दूध नहीं मिलता था ।"
कोई वाद या विचार थोपना गाँधी जी का ध्येय कभी नहीं रहा- गाँधी जी ने जिन प्रयोगों को स्वयं के जीवन में उतारा, वह ऐसा नहीं मानते थे कि बिना समझे अन्य भी उसी रूप में उसे स्वीकार करें. उन्होंने अपने प्रयोगों को वैज्ञानिक दृष्टि से परखने की पूरी आजादी दी है. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है,"इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता । जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियम-पूर्वक, विचार पूर्वक और बारीकी से करता है, फिर भी उनसे उत्पन्न परिणामों को अंतिम नहीं कहता, अथवा वे परिणाम सच्चे ही हैं इस बारे में साशंक नहीं तो तटस्थ अवश्य रहता है, अपने प्रयोगों के विषय में मेरा भी वैसा ही दाबा है. मैंने खूब आत्म-निरीक्षण किया है एक-एक भाव की जाँच की है , उसका पृथक्करण किया है किन्तु उसमें से निकले हुए परिणाम सबके लिए अंतिम ही हैं, वे सच हैं अथवा वे ही सच हैं, ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता."
कठिन परीक्षा: एक बार कस्तूरबा गाँधी बीमार पडीं. बीमारी ऐसी की उन्हें शल्यक्रिया करानी पड़ी. यह घटना डरबन की थी. कुछ दिन साथ रहने के बाद गांधीजी जोहान्सबर्ग चले गये. पहले सब कुछ ठीक था किंतु बाद में चिकित्सक ने मशविरा दिया कि यदि कस्तूरबा गाँधी मांस का सेवन नहीं करतीं तो उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं होगा. गांधीजी जोहस्न्बर्ग से आए. उन्हें समझाया गया कि पत्नी का जीवन बचाने के लिए मांस का शोरबा दिया जाना आवश्यक है. वह इस पक्ष में नहीं थे कि उन्हें मांस खिलाया जाय और वह यह भी जानते थे कि कस्तूरबा जानबूझकर मांस का शोरबा ग्रहण नहीं करेगी, उसे केवल धोखे से ही मांस का शोरबा दिया जा सकता था. महात्मा गाँधी ने जीवन की लालसा में कस्तूरबा गांधी को धोखे में रखकर मांस का सेवन कराना उचित नहीं समझा. गाँधी जी ने कस्तूरबा को यह छूट जरूर दी कि वह उनके विचारों से बंधी हुयी नहीं हैं. फिर भी कस्तूरबा गाँधी ने जीते जी मांस का सेवन नहीं किया. वह बिना मांस के सेवन के यद्यपि स्वस्थ हो गईं किन्तु गाँधी जी के लिए यह जीवन की एक कठिन परीक्षा थी.
उपसंहार- गाँधी जी का जीवन, उनका कर्म और विचार युगों-युगों तक मानव जाति को शिक्षा देते रहेंगे. गांधीजी ने जो कहा उसका प्रयोग स्वयं पर किया, उसे जीवन में उतारा और तब वह स्वयं औरों के लिए अनुकरणीय हुआ. भारत में वह अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों को एकजुट करने के लिए तो याद किये ही जायेंगे, वह शांति और अहिंसा के लिए पूरे विश्व के लिए सदा के लिए अमर रहेंगे. आज जब वास्तविकता पर प्रतीकात्मता इस कदर हावी है कि कोट, पेंट और टाई लगाकर स्वच्छता अभियान को अंजाम दिया जाता है ऐसे में यह समझना आवश्यक है कि एक बैरिस्टर ने अपना कोट और टाई किन उद्देश्यों के लिए खूँटी पर टांग दिया था और लंगोट धारण किया था.
प्रायः हम जिन तस्वीरों में गांधीजी को देखते हैं वह लंगोटी धारण किए हुए और ऐनक लगाए गांधीजी होते हैं और कदाचित मन में ऐसा विचार आता है कि महात्मा गांधी प्रारम्भ से ही ऐसे थे। और कदाचित किसी के मन में ऐसा विचार आता है कि उनके सत्य, शांति और अहिंसा की संकल्पना जैसे उनके असहाय और विवशता की अवधारणा रही हो. जी नहीं, गांधीजी भी हम जैसे ही आयु की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए ही ऐनक तक पहुंचे हैं। उन्होंने बच निकलने के लिए सत्य, शांति और अहिंसा के पथ का वरण नहीं किया बल्कि उस पर डंटे रहने के लिए किया। उनके सत्य, शांति और अहिंसा की अवधारणा वीरता का ही प्रतीक थी। उनके विचारों में सत्य,अहिंसा और सत्य के प्रयोग के प्रति दृढ़ता उन्हें इसी रूप में स्थापित करते हैं. आज जब पूरा विश्व उनके विचारों को जानने, समझने और प्रयोग करने का आकांक्षी है, ऐसे समय में उनको केवल स्वच्छता संदेशों के लिए याद किया जाना उनकी उपादेयता को कम करना है। उनके अन्य विचारों को दबाना है।
प्रस्तुति:सुरेन्द्र कुमार पटेल
प्रायः हम जिन तस्वीरों में गांधीजी को देखते हैं वह लंगोटी धारण किए हुए और ऐनक लगाए गांधीजी होते हैं और कदाचित मन में ऐसा विचार आता है कि महात्मा गांधी प्रारम्भ से ही ऐसे थे। और कदाचित किसी के मन में ऐसा विचार आता है कि उनके सत्य, शांति और अहिंसा की संकल्पना जैसे उनके असहाय और विवशता की अवधारणा रही हो. जी नहीं, गांधीजी भी हम जैसे ही आयु की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए ही ऐनक तक पहुंचे हैं। उन्होंने बच निकलने के लिए सत्य, शांति और अहिंसा के पथ का वरण नहीं किया बल्कि उस पर डंटे रहने के लिए किया। उनके सत्य, शांति और अहिंसा की अवधारणा वीरता का ही प्रतीक थी। उनके विचारों में सत्य,अहिंसा और सत्य के प्रयोग के प्रति दृढ़ता उन्हें इसी रूप में स्थापित करते हैं. आज जब पूरा विश्व उनके विचारों को जानने, समझने और प्रयोग करने का आकांक्षी है, ऐसे समय में उनको केवल स्वच्छता संदेशों के लिए याद किया जाना उनकी उपादेयता को कम करना है। उनके अन्य विचारों को दबाना है।
प्रस्तुति:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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