शुक्रवार, अगस्त 23, 2019

मृत्युभोज:एक सामाजिक बुराई

       

    परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु के बाद कराया जानेवाला भोज  मृत्युभोज कहलाता है। हमारी सामाजिक परम्पराओं में यह शामिल है। ऐसा माना जाता है कि उसकी मृत्यु के बाद जो भोज कराया जाता है उसका सम्बन्ध उस दिवंगत आत्मा की शांति से है।

        मान्यताएं मानव की कल्पना से उद्भूत है। इनकी वैज्ञानिक परख के बाद यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि इन्हें माना जाना चाहिए या नहीं। आज तक हुए वैज्ञानिक खोजों में से किसी ने ऐसी किसी धारणा का समर्थन नहीं किया जिसमें किसी की मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व किसी आत्मा या देह रूप में साबित होता है। हमारे धार्मिक ग्रंथ भी यह सिखाते हैं कि जीव का निर्माण पांच तत्वों से मिलकर होता है और मृत्यु पश्चात जीव इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाता है। अर्थात वे तत्व अपने मूल स्वरूप में विलीन हो जाते हैं जो पुनः अन्य तत्वों के संयोग से किसी अन्य जीवधारी का निर्माण करते हैं। किंतु उसका पूर्व के जीवधारी से अथवा उसकी स्मृति से उसका कोई संबंध नहीं होता। धर्म और अध्यात्म को मानने वाले लोग भी मृत्युभोज को एक कुरीति के रूप में देखते हैं। किन्तु समाज के अपयश के भय से इस परंपरा का अंत करने का साहस नहीं जुटा पाते। 


      किसी गरीब परिवार के किसी सदस्य का असामयिक निधन होना उस परिवार के लिए दोहरी मुसीबत खड़ा करता है। एक तो उस सदस्य की मृत्यु से उपजा दुःख, और उस दुःख की स्थिति में समाज और अपनी बिरादरी के लोगों को भोज कराने की व्यवस्था। यह भी निश्चित है कि जो जन्मा है उसकी मृत्यु होगी। ऐसे में परिवार की आय का बड़ा हिस्सा इन्ही परम्पराओं के निर्वहन में खर्च हो जाता है। परिवार का सारा अर्थ और व्यक्ति का जीवन इन्हीं परम्पराओं के कुचक्र में नष्ट हो जाता है। समाज का पढ़ा-लिखा वर्ग इस परम्परा का उन्मूलन चाहता है। 

     मृत्युभोज एक सामाजिक बुराई है इसे खत्म करने के लिए सभी एकजुट हों और शोक वाले घर व परिवार जनों के दुःख का हिस्सा बनें, न कि उनके घर खाने का हिस्सा बनें।



जिस आँगन में पुत्र शोक में विलख रही माता
वहाँ पहुँच कर स्वाद जीभ का तुमको कैसे भाता


पति के लिए चिर वियोग में, व्याकुल युवती, विधवा रोती
बड़े चाव से पंगत खाते, तुम्हें पीड़ा नहीं होती


मरने वालों के प्रति अपना सद्व्यवहार निभाओ
धर्म यही कहता, मृतक भोज मत खाओ


चला गया संसार छोड़कर जिसका पालनहारा
पड़े चेतनाहीन जहाँ पर नन्हे-मुन्हें बच्चे, उनका कौन सहारा


खुद भूखे रहकर भी परिजन तेरहवीं खिलाते।
अंधी परम्परा के पीछे जीते-जी मर जाते।


इस कुरीति (की रीति) का उन्मूलन करने का साहस दिखलाओ।
धर्म यही कहता है दोस्तों, मृतक भोज मत खाओ।


प्रस्तुति :
सरिता पटेल
MBA-Finance.PGPBM- Banking & Insurance
Paraswada, Dhanvantri Nagar, Jabalpur.
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें]

कोई टिप्पणी नहीं:

तनावमुक्त जीवन कैसे जियें?

तनावमुक्त जीवन कैसेजियें? तनावमुक्त जीवन आज हर किसी का सपना बनकर रह गया है. आज हर कोई अपने जीवन का ऐसा विकास चाहता है जिसमें उसे कम से कम ...