समतामूलक समाज की स्थापना में साहित्य का योगदान
समतामूलक समाज मानव
सभ्यता का सर्वोत्तम आदर्श है. इसके बिना मानव को सभ्य कहना तो दूर, उसे मानव कहना भी बेकार है. समाज के महापुरुषों ने समतामूलक समाज का
महत्व समझा है और इसकी स्थापना में अपने जीवन का बलिदान तक किया है.
आइये विचार करें कि मानव
का अभीष्ट क्या है? यदि मानव उन्नति के मार्ग पर शिखर तक पहुँच जाए तो उसका अभीष्ट
क्या होगा? निः संदेह उन्नति के अंतिम पड़ाव में संसार का कोई व्यक्ति पीड़ित और
दुखी नहीं होगा. किन्तु क्या समतामूलक समाज की स्थापना के बिना ऐसे संसार की
कल्पना की जा सकती है?
और यह भी कि समाज
में विषमता है क्यों ? इसका उत्तर जीवन के स्वार्थों में निहित है. स्वार्थ के
वशीभूत होने पर हमें परपीड़ा का एहसास नहीं होता और यही स्वार्थ जब समुदाय में
विस्तारित हो जाता है, हित साधन के आधार पर समूह निर्मित होने लगते हैं तब सम्पूर्ण
समाज विषमताग्रस्त हो जाता है. यह विषमता एकविमीय नहीं होती. विषमता के आकार और स्वरूप
में इतनी भिन्नता और विविधता है कि औरों के साथ विषमता का आचरण करने वाला स्वयं भी
कहीं न कहीं इसका शिकार हो जाता है. अतः समाज का कोई व्यक्ति विषमता के आचरण को
वैध और उचित नहीं ठहराता होगा! भले ही असमानता का आधार कुछ भी क्यों न हो.
अलग-अलग समय पर इन
विषमताओं को मिटाने के लिए महापुरुषों ने काम किया है, समाज का वर्तमान स्वरूप कई
समाजसुधारकों की देन है. तथापि इसमें बहुत प्रकार के दोष अभी भी हैं. इसमें सुधार
होते रहेंगे और शायद ही इस सुधारक्रम का कभी अंत होगा! इसीलिए साहित्य को एक सचेतक
की भूमिका निभानी होगी. जिस दिन साहित्य अपनी इस भूमिका से बाहर हो जायेगा, मानव
को एक सभ्यसमाज के रूप में पुनर्स्थापित करने में कठिन चुनौती का सामना करना
पड़ेगा.
इस देश की आजादी को
एक लंबा अरसा हो गया है. इस देश के लोगों को समान गरिमा के साथ जीवन जीने का अवसर
प्राप्त हो, इसके संवैधानिक प्रावधान भी हो गये हैं. किन्तु क्या संविधान की
मूलभावना के अनुरूप सच में लोगों को जीवन जीने का अवसर प्राप्त हो रहा है?
साहित्य की यह शक्ति
है कि वह पीड़ित और पीड़क दोनों के हृदय तक पहुँचता है. वह शोषित को जगाने का प्रयास करता है तो दूसरी और शोषक को
शोषण का रास्ता छोड़ने का भी आह्वान करता है. साहित्य चेतना के स्तर पर बिना किसी शस्त्र
के वार करता है और निहत्थों का स्वयं शस्त्र बन जाता है.
समतामूलक समाज की
स्थापना में जिनका साहित्य सर्वप्रथम उल्लेखनीय है वह है कबीर के दोहे. कबीर के
दोहों में आत्मजागृति का आह्वान तो है ही, परपीड़ा के प्रति करुणा का भाव पैदा हो,
दूसरों को भी वही आदर और सम्मान मिल सके, इसका सरस आग्रह भी है. कबीर के इस दोहे
को देखें:-
“कबीर खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर. ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर”
उपरोक्त पंक्ति कबीर
की समतावादी समाज की स्थापना का सबसे बड़ा आग्रह है. इस पंक्ति में वे सबकी भलाई
चाहते हैं, न तो उनकी किसी से दोस्ती है और न ही किसी से दुश्मनी है. कवीर का यह
आग्रह आने वाले समय में असंख्य कबीर पैदा करने की ताकत रखता है किन्तु जब दो लोग
किसी भिन्नता को आधार बनाकर लड़ने लगते हैं तब वह किस तरह दोनों को समझाने का
प्रयास करते हैं, उसे इस दोहे में देखें:-
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोऊ लड मुए, मरम न कोऊ जाना.
समाज में व्याप्त
विषमताओं को दूर करने में कबीर के दोहों की तुलना किसी और अन्य साहित्य से नहीं हो
सकती. किन्तु जो काम तब कबीर ने किया था वही काम प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में
अब किया है. प्रेमचंद की कहानी ‘बूढी
काकी’ और ‘पञ्च परमेश्वर’ किसी जाति अथवा सम्प्रदाय से उपजी सामाजिक विषमता नहीं
है. बल्कि वह मानव के स्वार्थ में निहित विषमता है जो कम-अधिक मात्रा में सभी में
पाई जाती है. जहाँ बूढी काकी कहानी में ‘वृद्ध वर्ग’ के साथ होती असंवेदना को
उघारने का काम प्रेमचंद ने किया है तो वहीं ‘पञ्च परमेश्वर’ में वक़्त बीतने के साथ
सारी जमीन-जायदाद अपने हक में करा लेने के बाद अपनी जिम्मेदारियों से भागते
स्वार्थियों की खाल खीचने का काम भी उन्होंने किया है.
जाति और सम्प्रदायगत
सामाजिक विषमता की बात समाज के धरातल पर आती रहती है किन्तु सभी वर्गों में
स्त्रियों के साथ हो रही विषमताओं के प्रति समाज प्रायः चुप्पी साध लेता है. किन्तु
फ़्रांसीसी लेखिका सिमन द बुआ ने ‘द सेकंड सेक्स’ नाम का साहित्य रचकर स्त्री
उपेक्षा की बात को सार्वजनिक कर दिया. उन्होंने साहित्य के माध्यम से पूरी दुनिया
की महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति लड़ने के लिए सहमत कर लिया.
साहित्य स्वमेव
हितकारी नहीं होता. साहित्यकार यह तय करता है कि वह किस प्रकार की व्यवस्था का
पक्ष-पोषण करने का आग्रही है. इसीलिए हमारे समाज में ऐसे साहित्यों की कमी नहीं है
जो किसी न किसी स्तर पर भेदभाव का ही आग्रही है. जब हमारे समाज में भेदभाव के
आग्रही साहित्य भी मौजूद हों तब यह और आवश्यक हो जाता है कि सचेतन ऐसे साहित्य का
सृजन हो जो ऐसे भेदभाव के आग्रही साहित्य का न केवल विरोध करे बल्कि समतामूलक समाज
की स्थापना का आग्रह कर साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति भी सुनिश्चित करें.
इस सम्बन्ध में
डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है जिनका सम्पूर्ण कार्य ही
समतामूलक समाज का निर्माण करना था. न केवल शोषित और वंचित वर्ग को बल्कि महिलाओं
को समुचित अधिकार सम्पन्न बनाकर समतामूलक समाज की स्थापना में उन्होंने जो योगदान
दिया है, उसके लिए वंचित वर्ग ही नहीं सम्पूर्ण समाज को ऋणी होना चाहिए. इस क्रम
में अनेक और साहित्यकारों का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने साहित्य के माध्यम से
समाज में समानता लाने का अथक प्रयास किया है.
साहित्य केवल अपने
वर्तमान स्वरूप में ही लोगों को जगाने का काम नहीं करता बल्कि आने वाली पीढ़ियों के
लिए भी वह पथ प्रदर्शन का काम करता है. साहित्य किसी वर्ग विशेष के साथ पक्षपात करे
तो फिर वह साहित्य कैसा? साहित्य तो समय के परे भी अपनी सार्थकता को सिद्ध करता
रहता है,
जिस कवि ने इन पंक्तियों
को लिखा है, “ नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो.” भला इन
पंक्तियों में यह कहाँ बंटवारा है कि कौन इन पंक्तियों से प्रेरणा लेकर स्वस्फूर्त
हो काम करने लग जाए और कौन नहीं? नेल्सन मंडेला ने जीवन भर दक्षिण अफ्रीका में
रंगभेद वादी नीति के खिलाफ आन्दोलन किया और फिर अपनी इस संघर्ष यात्रा का साहित्य
रचा, “लॉन्ग वाक टू फ्रीडम” इस साहित्य में कहाँ बंटवारा है कि कौन इस साहित्य से
प्रेरणा लेगा और कौन नहीं. जब-जब और जिसे अपने जीवन में कठिन चुनौतियाँ मिलेंगी
तब-तब वह उनका यह साहित्य लोगों को संघर्ष करने की प्रेरणा देगा. इसलिए समतामूलक
समाज की स्थापना के आगही साहित्य का सभी को समर्थन करना चाहिए.
अम्बेडकर जी केवल
संवैधानिक प्रावधानों से संतुष्ट हो सकते थे. लेकिन नहीं, वे केवल संवैधानिक
प्रावधानों से संतुष्ट नहीं हुए. वे जानते थे कि कुछ सुविधाओं के मिलते ही लोग
संघर्ष का रास्ता भूल जायेंगे, आराम तलब हो जायेंगे और जिस गरिमापूर्ण जीवन की उन्होंने
आशा की है उसका सूर्य फिर कहीं अस्त हो सकता है इसलिए उन्होंने आजीवन साहित्य रचा.
आज का समाज केवल उनका साहित्य अध्ययन कर ले तो भी उसे आगे का रास्ता मिल जाएगा.
किन्तु क्या हम यह भी करना चाहते हैं?
कोई भी सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक व्यवस्था मानसिक विचार का ही मूर्तरूप होता है, अतः जिस समाज में जिस प्रकार का साहित्य लोकप्रिय होगा, जिस प्रकार के साहित्य की प्रचुरता होगी वैसे ही समाज के विकसित होने की अधिकतम संभावना होगी. अतः यदि हमारा उद्देश्य समतामूलक समाज की स्थापना करना है तो ऐसे ही साहित्य का सृजन हमारी अनिवार्य आवश्यकता होगी. राजा राममोहन राय, ज्योतिबाफुले, पेरियार, डॉक्टर अम्बेडकर आदि इस बात से भली-भांति परिचित थे और आज भी उनका साहित्य वंचितों की जागृति का साधन बना हुआ है. इसी से समतामूलक समाज में साहित्य के योगदान की पुष्टि होती है.
-सुरेन्द्र कुमार पटेल
2 टिप्पणियां:
समता मूलक समाज की स्थापना बहुत आवश्यक है असमतामूलक समाज का विकास कभी नहीं हो सकता, एक तपका हमेशा अपने आप को हीन भावना से आहत रहता है, जैसे ऊंच-नीच सडक पर गाड़ी की गति वही पकड़ सकती उसी प्रकार समाज भी आसमान रहने से की विकास की गति धीमी रह जाती है
लेखक द्वारा समसामयिक परिदृश्य में समतामूलक समाज की आवश्यकता एवं उसके निर्माण में आम लोगों की वैचारिक भूमिका को उच्च कोटि के लेखन से रेखांकित किया गया है। जिस तरह से रिफ्रेंस और उद्धरण प्रस्तुत किए गए है वह लेखक गहन और विविध अध्ययन को प्रदर्शित करता है।
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