पंचायत चुनाव लोकतंत्र या शक्ति प्रदर्शन बनाम आधी आबादी –डा ओ पी चौधरी
पंचायती राज दिवस 24 अप्रैल के विशेष संदर्भ में
कोविड –19 की प्रचंड लहर के बीच त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव उत्तर प्रदेश में चल रहा है और अंतिम चरण 29 अप्रैल को समाप्त होगा।शक्ति से तात्पर्य,धन बल, बाहु बाल आदि अर्थात साम, दाम,दंड,अर्थ,येन केन प्रकारेण।चुनाव की तैयारी चुनाव आयोग अपने सरकारी अमले के साथ कर रहा था तो दूसरी ओर गांवों में बहुत पहले से ही बड़ी बड़ी होर्डिंग और सादी(प्रायः दाल बाटी, चोखा,खीर) एवम् रंगीन पार्टी (जो नॉन वेज और दारू के साथ होती है)के साथ शादी विवाह, मरनी, जियनी, भागवत,मुंडन अनेकानेक कार्यक्रमों में प्रत्याशियों के शामिल होने की होड़ मची है।" कच्ची दारू कच्चा वोट,पक्की दारू पक्का वोट " , पंचायत चुनाव में अब यह नारा पुराना हो गया है,क्योंकि मतदाता अबकी बार के चुनाव में हर प्रत्याशी की ओर से मिल रही सौगात को समेटकर सभी से वोट देने का वादा कर रहा है।वह वोट किसे देगा यह भविष्य के गर्त में है, लेकिन लेन देन के खेल में मतदाताओं के बीच एक नया नारा बुलंद किया जा रहा है कि " नोट लियो सबसे, वोट दियो मन से "।सूरज के अस्त होते ही गावों में उम्मीदवारों की कृपा से वोटर मस्त हो जा रहे हैं,क्योंकि आजकल प्रत्याशी वोटरों पर दिल खोलकर मेहरबान हैं।"मयकदे किसने कितनी पी खुदा जानें, मयकदा तो मेरी बस्ती के कई घर पी गया" मेराज फैजाबादी की ये लाइनें पंचायत चुनाव में मुफ्त बंट रही शराब पर बिल्कुल सटीक बैठ रही है।ऐसे में पति सुबह कमाने की बात कहकर घर से निकलता है और पहुंच जाता है प्रत्याशी के प्रचार में,जहां मुफ्त में खर्च और दारू मिलती है।लड़खड़ाते पांव शाम को जब यह प्रचारक घर पहुंचता है, तो पत्नी घर की साग सब्जी के लिए पैसे मांगती है तो उसे पिटाई नसीब होती है,जिससे आधी आबादी परेशानी की हालत में उस प्रत्याशी को कोसती नजर आती है,जिसने उसके परिवार के दो जून की रोटी का इंतजाम करने वाले को मुफ्त में शराब पिलाकर परिवार के प्रति लापरवाह बना दिया है।फिलहाल इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है।प्रत्याशी वोटों की खातिर शराब का दरिया बहा रहे हैं,कई मजदूर तबके का रोजगार छीनकर उन्हें अपने परिवार के प्रति लापरवाह बना रहा है (हिंदुस्तान, 22 एवम् 23 अप्रैल,2021)।इसी तर्ज पर प्रथम एवम् द्वितीय चरण का समाप्त हो चुका है।आखिरी चरण के प्रत्याशी सबसे अधिक परेशान व लंबे समय तक भागदौड़ तथा खर्चे का शिकार हो रहे हैं।एक बड़ा मजेदार वाकया बताता हूं,मैं कुछ दिन पूर्व वाराणसी में अपनी भतीजी की शादी का कार्ड बांटने गया – रमसीपुर, सगहट, मनकइयां भोरकला,वहां के लोगों की आपस में चर्चा सुनकर बड़ा मजा आया कि अबकी नवरात्र में चुनाव हो जाने से प्रत्याशी बहुत राहत में हैं, मुर्गा, मीट, फ्राईड फिश और मदिरा का सेवन काफी लोग नही कर रहे हैं,खर्च काफी कम हो गया है, केवल पनीर तक ही लोग रह गए।खाने खिलाने का दौर बदस्तूर जारी है।उम्मीदवार भी एक से बढ़कर एक हैं। सबसे मजे में सहायताप्राप्त अशासकीय डिग्री व माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक हैं, पगार कोषागार से लिया, काम क्षेत्र में भ्रमण कर जनता का ; पठन– पाठन के अतिरिक्त, अन्य सभी कार्य करते हैं,हमारे विधान सभा क्षेत्र जलालपुर,अम्बेडकरनगर के वर्तमान सदस्य, विधान सभा,उत्तर प्रदेश एक कॉलेज में अध्यापक रहते हुए अपने इतने दिनों के कार्यकाल में कितने दिनों तक अध्यापन कार्य किए होंगे वही बता सकते हैं। मैं स्वयं जलालपुर का रहने वाला हूं,और काशी में अध्यापन करने का सौभाग्य प्राप्त है,बहुत कोशिश करने के बाद भी प्रत्येक रिश्तेदारी की शादी विवाह व शोक के समय संवेदना व्यक्त करने नही जा पाता,अवकाश होते हुए भी,छुट्टी नहीं खर्च कर पाता, क्योंकि पूरा पाठ्यक्रम समाप्त करने के चक्कर में सामाजिक रिश्तों का निर्वहन नहीं कर पाता, लेकिन विधायक जी पूरे क्षेत्र में सभी लोगों के यहां पहुंचते हैं,कब अपने उस दायित्व का निर्वहन करते हैं,जिस निमित्त सरकारी खजाने से एक मोटी रकम हर माह आहरित करते हैं।वहीं से बी जे पी के उम्मीदवार जो डा राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय अयोध्या में प्रोफेसर हैं, ये लोग प्रायः क्षेत्र में रहते हैं, कब पढ़ते – पढ़ाते हैं, अल्लाह जानें।यह तो प्रभावशाली लोग हैं।अपने जनपद में हम ऐसे दर्जनों लोगों को जानते हैं जो अध्यापन पेशे में है,लेकिन पेशेवर राजनीतिज्ञ हैं, चुनाव लड़ना और लड़ाना इनका पेशा है,और अध्यापन गौड़ हो गया है।यही हाल पूरे प्रदेश या देश का है,जहां ऐसे माननीय हैं,जो सरकारी खजाने से वेतन आहरित कर रहे हैं, लेकिन चुनाव लड़ रहे हैं।हमारे कर्मक्षेत्र काशी में भी एक ऐसे ही प्रोफेसर कोषागार से वेतन प्राप्त कर, विधायक बन जनता की सेवा में रत हैं,उनके अध्यापन कला का वर्णन विद्यार्थी ही कर सकते हैं।सबसे मजेदार बात यह है की समाज में इनका सम्मान भी है, क्योंकि ये अपना मूल कार्य(अध्यापन) नहीं करते हैं, जो मूल कार्य करते हैं वे केवल मदर्रिश ही रह जाते है।ऐसे माननीयों की तनख्वाह तो ऐशो आराम के लिए है। ऐसे अध्यापक प्रधानी, जिला पंचायत सदस्य/अध्यक्ष, ब्लॉक प्रमुख, बी डी सी तक के लिए भी मैदान में उतरने के लिए आतुर।इससे अच्छा होगा भी क्या, तनख्वाह सरकार देगी,वोट जनता देगी,फिर चुनाव जीतकर या अपनी पत्नी, मां किसी अन्य को जिताकर लोकतंत्र का खुला माखौल उड़ायेगे।शिक्षक स्वयं में एक अत्यंत सम्मानित पेशा है, जिसमें नौकरी से ज्यादा सेवा भाव और सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने का दायित्व है, बच्चों को एक सजग और जागरूक नागरिक बनाने की जिम्मेवारी है।लेकिन कुछ लोग प्रधान बनकर या अपनी पत्नी को प्रधान बनवाकर, प्रधानपति कहलाने में ज्यादा गौरवबोध का अनुभव करते हैं।अब बात प्रधानपति की आ गई तो इस बात का जिक्र भी जरूरी है।मेरे निकटस्थ गांव की प्रधान महिला थी, लेकिन लोग उनके पति को ही प्रधान कहकर बुलाते थे और उन्हीं के पास जाते थे और तो और वही मीटिंग में भी जाते थे,यही हाल जिला पंचायत सदस्यों का भी है।ऐसे में कैसा लोकतंत्र?किसका लोकतंत्र? कैसा महिला सशक्तिकरण? कैसा महिला आरक्षण?सभी कोई मायने नहीं रखता?केवल थोथा लोकतंत्र।ऐसे में आधी आबादी में निर्णय लेने की क्षमता कैसे विकसित हो ?वैशाखी के सहारे गांव, संस्थाएं व लोकतंत्र, जनतंत्र।ग्राम प्रधान या ऐसा कोई नेता सदैव अपने व्यक्तिगत लाभ हानि की ही सोचता है।मनरेगा में जॉब कार्ड का भी चक्कर है।जनपद मीरजापुर में दो वर्ष पहले खबर आई थी की एक दुधमुंहा बच्चा भी मनरेगा में काम करता है। गांव में पंचायत बैठकों की परम्परा समाप्त हो चुकी सभी निर्णय प्रधान,सेक्रेटरी और लेखपाल मिल कर लेते हैं।किस कार्य के लिए बजट मिला हैं ? गांव में कौन सा काम आवश्यक है?lकिस कार्य में ज्यादा लोगों का फायदा इस बात की गांव पंचायत में चर्चा किये जाने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं करता, सच बोलने-सुनने की इच्छा व साहस किसी में नहीं रह गया है, गांव के विकास या अन्य किसी मामले में विमर्श या सार्वजनिक चर्चा की आवश्यकता कोई महसूस नहीं करता है।इस चुनावी मौसम में बच्चे क्रिकेट खेलने के लिए इक्कठा होते हैं, व्यस्क या तो दारू मुर्ग़ा, बाटी चोखा की पार्टी या फिर तास खेलने के लिए जुटते हैं।सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए ग्राम सभा की कदाचित ही कोई मीटिंग होती हो। क्या विवाद या भलाई बुराई के डर से पंचायत राज की अवधारणा समाप्त हो रहीं हैं? क्या गांव का लोकतंत्र केवल एक दिन वोट डालने तक सीमित है ? मुझे गांव से लेकर ऊपर तक सभी स्तरों पर लोकतंत्र खतरे में नज़र आता है,अर्थात उसका यही स्वरूप नजर आता है ।इस विषय पर विचार और सार्थक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है कि गांव का सामाजिक ताना-बाना सही बना रहे गांव के विकास तथा साफ सफाई में और समारोहों में सबकी सहभागिता हो तभी लोकतन्त्र को बचाया जा सकेगा अन्यथा सत्ता और ताकत प्रायः लोगों को भ्रष्ट और तानाशाह बनाती ही है, बनाती ही रहेगी।कुछ माह पूर्व वोटर लिस्ट में नाम बढ़वाने और कटवाने के फेर में अंबेडकरनगर के जहांगीरगंज ब्लॉक में दो सगे भाइयों को मौत के घाट उतार दिया गया था,ऐसे न जाने कितने लोग प्रदेश में चुनावी हिंसा का शिकार होते हैं।प्रधानी के चुनाव में हिंसा अब आम बात हो गई है।ऐसे में लोक का क्या होगा?लोकतंत्र का क्या होगा?समाज का क्या होगा? हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए,ताकि हमारा लोकतंत्र सभी स्तर पर मजबूत हो सके,जनतंत्र की रक्षा हो सके।जोहार प्रकृति!जोहार किसान!
डा ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।
मो : 9415694678
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